भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने में भ्रमणशील समुदायों का बड़ा योगदान रहा है। ये समुदाय जिन्हें घुमंन्तु जातियों के नाम से जाना पहचाना जाता है । यायावरी संस्कृति के पोषक ये जातियाँ हमारी परम्पराओं के संवाहक हैं, जो कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक और गुजरात से लेकर असम तक देश के सभी राज्यों में फैले हुए है। रोजी-रोजगार और जीवन जीने के साधनों की तलाश में। कभी पशुओं का झुंड लेकर, कभी अपनी कला और हस्त शिल्प का नायाब नमूना लेकर । चौमास की बूंदे सहते, शीत की ठिठुरन में ठिठुरते और कभी ग्रीष्म की ताप सहते है। कभी पैदल, कभी बैल गाड़ियों और अब आधुनिक साधनों से रास्ता नापते जीवन को कठिनाइयों म जीते है। सुख-सुविधा इनके लिए सपना है । इनका कोई अपना है तो इनका लोक, अपनी परम्परा और अपनी संस्कृति अभावो मे भी जीकर अपनी संस्कृति और परम्परा को बचाये हुए है ।
समय बदला, साधन बदले पर जीवन निर्वाह का ढंग नहीं बदला। आधुनिकता से दूर, अशिक्षा के अंधेरे में अभावों के डेरे में जीने वाली इन भ्रमण शील घुमंन्तु जातियों मे बसदेवा जाति किसी के लिए अपरिचित नहीं है। मुझे याद है अपना बचपन और आज के समय मे बसदेवा का आगमन | आज भी हमारे गाँव-घरो में गूँजता ये जय गंगान गीत जिसे बसदेवा जाति के लोग फसल कटाई के बाद से होली के पूर्व तक गाते फिरते भिक्षाटन करते है । इस गीत मे बालपन की सहजता भी झलकती है –
बड़े – बड़े मुसुवा के छोटे-छोटे कान,
बुढवा बइला ल देदे दान जय गंगान ।
जय गंगान, जय गंगान।
जय गंगान गीत गाने वाले बसदेवा है । इन्हें बसुदेव, वासुदेव भी कहा जाता है । के पिता बासुदेव का एते ज मानते है। इनका कहना है वासुदेव भी कहा जाता है। ये भगवान श्री कृष्ण के पिता वासुदेव को अपना पूर्वज मानते है। इनका कहना है कि वासुदेव से ही उत्पत्ति के कारण इनकी जाति वासुदेव कहलायी जो आगे चलकर क्षेत्रानुसार बसदेवा या वसुदेव के रूप मे जाने-जाने लगे। ‘जय गंगान’ शब्द भी इनके मूल निवास को व्यक्त करता है। ये गंगा नदी के पार से आए हैं। इसलिए इन्हें जय गंगान कहा जाता है। बसदेवा के दो प्रमुख प्रकार बताए गये है (1) गंगापारी जो गंगा पार से आए है और (2) देशावारी, जो स्थानीय हैं।
बसदेवा लोक आख्यानों के पारंपरिक गाथा गायक हैं, और पीढ़ियों से गाथा गायक के माध्यम से लोक को मानवीय मूल्यों का संदेश दे रहे है । ये भारतीय संस्कृति के उदान्त गायक और आदर्शो के उन्नायक हैं । कथा गायन इतके जीवन यापन का साधन तो है, पर जीवन यापन के साधन के साथ-साथ समाज में नैतिकता का प्रतिमान गढ़ना इनका मुख्य ध्येय है। गाथा में जिन चरित्रों का गायन होता है, उनमे प्रमुख श्रवण कुमार, राजा हरिश्चंद्र, राजा मोरध्वज, राम-कृष्ण, भर्तहरी गोपीचंद व अन्य भक्ति के पद है। वाचिक परम्परा के द्वारा पीढ़ीकर पीढ़ी लोक गायन की यह परम्परा आज भी समाज में विद्यमान है। लम्बी-लम्बी कथाएँ इन्हें याद है। ये ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं होते। लगगग अशिक्षित होते है। घुमन्तु जीवन के कारण ये न खुद पढ़-लिख पाते है और नाही बच्चो को पढ़ा-लिखा पाते हैं। किन्तु भक्ति भाव श्रद्धा और विश्वास के साथ-साथ इनकी गायकी में मनोरंजन का पुर ‘बसदेवा गायन’ को लोक रंजकता भी प्रदान करता है। मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, बघेलखंड, बालाघाट, छिंदवाड़ा, महाराष्ट्र के वर्धा-अमरावती अंचल तथा छत्तीसगढ़ के पश्चिमांचल व उत्तरांचल में ये बड़ी संख्या मे निवास रत हैं।
छत्तीसगढ़ को ‘धान का कटोरा’ कहा जाता है। ‘धान का कटोरा’ के नाम से यह जग प्रसिद्द है। इसका कारण यह है कि छत्तीसगढ़ में धान की सैकड़ो प्रजातियों का विपुल उत्पादन होता है। महानदी व अन्य नदियों मे बड़े-बड़े बांध बन जाने के कारण सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएं है। दीपावली के बाद जब धान कि फसल कटकर खलिहान मे आ जाती है और खलिहान से कोठी (अन्नागार) मे , तो सर्वत्र खुशी और उमंग का वातावरण निर्मित हो जाता है। किसान खुशी-खुशी अन्न दान करता है। ऐसे समय में बसदेवा अपमेद स्थायी वास से निकल निर्मित हो जीवन व्यतीत करता है। ऐसे समय में बसदेवा अपनी स्थायी वास से निकल कर चार महिने के लिए गाँव-गाँव भ्रमण कर घुमंतु जीवन व्यतीत करता है । ये बसदेवा अपने परिवार के साथ समूह मे निकलते है और गाँवो मे किसी खुले स्थान या बगीचे में डेरा डालते है। पहले ये बैलगाड़ी में आते थे। किन्तु आवागमन के साधन उपलब्ध होने कारण अब बस, रेल व मोटर सायकल से यात्रा करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा मानकर ये अगहन पूष,माँघ व फागुन माह तक चार महीने भिक्षाटन करते है। होली का त्यौहार अपने स्थायी निवास मे मनाते है
श्री राजू महराज पिता स्व० बद्रीनाथ जिनकी उम्र 42 वर्ष है प्रतिवर्ष हमारे घर आते हैं। ये दसवी तक पढ़े-लिखे हैं, ग्राम खपरी थाना कारंजा, तहसील कारंजा, जिला वर्धा महाराष्ट्र के निवासी है । ग्राम खपरी नागपुर – अमरावती रोड पर कारंजा घाडगे नागपुर से 80 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। इसी कारंजा से 12 कि.मी की दूरी पर है ग्राम खपरी । इस गाँव में लगभग 80 परिवार हैं वासुदेवो के । शेष 20 प्रतिशत अन्य जाति के लोग है। उत्पत्ति कथा पूछने पर राजू बसदेवा ने कृष्ण के पिता राजा वासूदेव की प्रचलित कथा को बताया। ये मूल रूप से बुंदल खंड के निवासी हैं, जो अब महाराष्ट्र में बस गए है। उन्होंने बताया कि इनके अन्य परिवार जन, रिश्त उत्तर प्रदेश के झांसी, मध्य प्रदेश के ग्वालियर, बैतूल खंडवा, जबलपुर, पावनी मलाज- खंड व छत्तीसगढ़ के काठा कोनी, नवागांव बिलासपुर में निवास करते है। जहाँ स्थायी रूप से बसे है वहाँ ये खेती-किसानी भी करते है। इनके समाज में समय के साथ शिक्षा के प्रति रुचि जगी है। इसलिए इनके बच्चे पढ़े-लिखे है । पारंपरिक बसदेवा गायन में रूचि नही है। पढ़े-लिखे उच्च शिक्षित बच्चों कि संख्या अधिक है। इनका छोटा साला इंजिनीयरिग कि पढाई कर रहा है । इनके गाँव के 15-20 युवा नौकरी पेशा हैं, जो नागपुर की प्रसिद्ध कम्पनी हल्दीराम भुजिया वाले में कार्यरत है। इनके साथ कथा गायन में इनका बड़ा साला योगेश महराज व भांजा गोलू महाराज भी साथ देते है। योगेश महाराज बारहवी उत्तीर्ण हैं बसदेवा गीत के कुशल गायक हैं । गोलू महाराज पढ़े लिखे नहीं है। ये खुद को महाराज, पंडित कहते है। मैने पूछा – “महाराज जी आप लोगों की उत्पत्ति कथा तो आपको श्री कृष्ण के पिता वासुदेव से जोडती है। वासुदेव जी तो यदुवंशी, यादव थे। आप पंडित ब्राह्मण कैसे हो गए ? उन्होंने कुछ नहीं कहा, सकुचा गए। मुझे लगा कि ये अपने कथा गायन के माध्यम से लोगों में ज्ञान बाँटते हैं लोगों को भक्ति भाव से जोड़ते है। शायद इसीलिए ये पंडित या महाराज कहने- कहलाने में गर्व का अनुभव करते है। इनकी भाषा बुंदली है, क्योकि मे बुंदेलखंड के निवासी है। ये मराठी भी जानते है। छत्तीसगढ़ में वर्षों आ-जा रहे है। यहाँ इनकी यजमानी है इसलिए छत्तीसगढ़ी भी मीठी और प्रभावी बोलते हैं ।
ये भिक्षाटन के लिए जब निकलते है तो परिवार जन अर्थात महिला व छोटे बच्चों को साथ नहीं रखते। केवल पुरुष ही समूह में निकलते है। छत्तीसगढ़ के पश्चिमांचल क्षेत्र गंडई, उड़िया, खैरागढ़, पाण्डादाह, गोपालपुर, छुईखदान, चीमागोंदी, कवर्धा पैलपार-खम्हरिया, साजा-मोहतरा, भैंसा मुडा-देवरबीजा, दुर्ग-भिलाई के आस-पास के गाँवों में घूम-घूम कर डेरा जमाते हैं और जय गंगान का गीत गाते है। बसदेवा गीत मे जय गंगान शब्द की आवृति बार-बार होती है। इसलिए भी इन्हें जय गंगान कहा जाता है। इनके भिक्षाटन का यह कार्य चार माह अगहन, पूष, माँघ व फागुन तक चलता है। कथा गायन के बाद इन्हें ससम्मान धान,चाँवल,नकद राशि, वस्त्रादि सेर-सीधा के रूप मे दिया जाता है। अन्न को इकट्ठा कर बच देते हैं। बसदेवा कथा गायन बड़ा कर्णप्रिय और सरस होता है। कथा की वार्ता भी कहा जाता है। गायन ईशवंदना से प्रारंभ होता है, जिसमें प्रचलित दोहे शामिल होते है- सरसती बिन स्वरन न मिले, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
मात-पिता ने जनम दिया है रूप दिया है, रूप दिया है भगवान ॥
अरे अंधरी मइया बुढ़वा बाप
जेखर बेटा सरवन लाल, जय गंगान ।
अरे माता पिता ल तीरथ घुमाय
सरवन बेटा ज्ञानी आय, जय गंगान।
एक ही लय एक ही ताल पर गायन, किन्तु मन-प्राण को आनंद से भरने वाला बसदेवा गायन समाज मे आज भी सम्मानीय है, और सम्मानीय हैं बसदेवा गायक जो लोक प्रचलित आख्यान परम्परा को आज भी जीवित बनाए हुए है।
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के बसदेवों मे भिन्नता है। गायन शैली में भिन्नता के साथ ही रहन-सहन और लोक परम्पराओ मे भिन्नता है। इनमे आपस मे रोटी-बेटी का संबंध नहीं होता और एक दूसरे से अपने का श्रेष्ठ साबित करते है। कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश से बसदेवो का समूह प्राकृतिक आपदा व अन्यान्य कारणों से चलकर मध्य प्रदेश के बघेल खंड क्षेत्र में अनुकुल वातावरण देखकर बस गए। फिर वहाँ से कुछ समुदाय कटनी से महाराष्ट्र की ओर तथा कुछ समुदाय छत्तीसगढ़ की ओर आकर बस गए । छत्तीसगढ़ मे बसदेवो का पहला पड़ाव कवर्धा मे रुका। फिर वहाँ से रायपुर की ओर प्रस्थान किया और यहीं के होकर रह गए। इसलिए इन्हें छत्तीसगढिया बसदेवा कहा जाता है। कबीर तीर्थ दामाखेड़ा के पास चौरंगा मे बसदेवों की बड़ी संख्या निवास करती है। कुछ परिवार दुर्ग जिले के सुरडुंग गांव में निवास रत हैं । बसदेवों की सर्वाधिक संख्या रायपुर मे जहाँ लगभग 800 परिवारों की बसाहट है। पहले यह स्थान रायपुर पश्चिम छोर पर था, किन्तु बढ़ती जनसँख्या और राजधानी बन जाने के कारण यह लगभग मध्य क्षेत्र मे स्थित है पुरानी पीढ़ी के लोग बसदेवा गीत तो गाते है । किन्तु नई पीढ़ी के लोगो मे पारंपारिकता के प्रति रुचि दिखाई नहीं पड़ती।
छत्तीसगढ़ के बसदेवा भी भिक्षाटन के लिए कार्तिक पूर्णिमा के बाद गाँवों की ओर निकलते है । बैलगाड़ी में सवार होकर सपरिवार महिला-पुरुष व बच्चे गाँवों मे आकर अस्थायी डेरा डालते हैं । मुझे याद है जब हम बच्चे थे तब खलिहानों मे धान मिंजाई के बाद इनका डेरा हमारे गाँव में नदी के किनारे आम के बगीचे मे लग जाता । आसपास के गाँव जाकर बसदेवा गीत गाते। गाँवो मे इनका बड़ा सम्मान होता। अब देखने मे आता है कि बसदेवों का आगमन कम संख्या मे होता है। किसी वर्ष आते है किसी वर्ष नहीं आते। चूंकि छत्तीसगढ़ मे बसदेवों की सबसे बड़ी आबादी रायपुर में ही है। नगरीय जीवन और आधुनिक जीवन शैली के कारण ये यहाँ से निकलना नहीं चाहते। शायद भिक्षा मांगने में संकोच भी होता हो।
बसदेवा का आवास-
बसदेवा भ्रमण शील जाति है और इनका स्थायी निवास नहीं होता। जिस गाँव मे रहते है, जहाँ इनका निवास होता है, उसे छोड़कर ये भिक्षाटन मे निकल जाते है। भिक्षाटन की अवधिचार माह की होती है। तब ये घर से दूर बाहर होते हैं। ऐसी स्थिति मे देखरेख के अभाव मे इनका आवास जीर्ण – शीर्ण हो जाता है। यह स्थिति हर साल होती है। इसलिए इनका मकान कच्चा होता है । छोटे से स्थान पर पूरा परिवार सीमित साधनों में गुजर बसर करता है। सुविधाओं का आभाव होता है । गाँवों मे स्थिति तो कुछ अच्छी है,क्योंकि यहाँ उपलब्ध साधनो से उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। कुछ खेती-बाड़ी भी करते है । लेकिन शहरों में स्थिति बड़ी दयनीय है। चारों ओर गंदगी पसरी रहती है। बज बजाती नालियो के किनारे बनी झोपड़ियाँ या कच्चे मकान इनकी आर्थिक स्थिति को बयाँ करते है । शहरी जीवन जीने के कारण ये लोग गाँवो को भूल कर अपनी परम्परा को भी भूल रहे हैं।
पडे खाली दालान य टीन शेड इनका आश्रय दाता बनता है। भिक्षाटन के लिए बसदेवा ब्रम्हमुहुर्त मे निकल जाते है। घर- घर जाते हैं, कथा गायन करते है । भेंट स्वरूप इन्हें अन्नदान के साथ नकद राशि भी दी जाती हैं। उदार यजमान द्वारा वस्त्राभूषण आदि भी दिया जाता है। आवास की दृष्टि से देखा जाय तो इनका स्थायी आवास हो या अस्थायी आवास साधनहीन होता है। साधनो के अभाव में भी उनकी जिजीविषा प्रणम्य है। जैसे इन्होंने अभावो में भी की जी कर समाज में नैतिक मूल्यों का प्रचार-प्रसार करना अपना ध्येय मान लिया है।
वेशभूषा –
प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक जाति की अपनी विशिष्ट वेसभुषा होती है। वेशभूषा पर प्रदेश व अंचल विशेष का प्रभाव पड़ता है। सामान्यत बसदेवा जब गाँवो मे रहते हैं या अपने समूह के साथ रहते है तो आम भारतीय पोषाक धारण करते है जिसमे स्थानीयता का प्रभाव परिलक्षित होता है। जैसे पुरुष धोती कुर्ता व पगड़ी धारण करते हैं।महिलाएं साड़ी व ब्लाउज (पोलखा) पहनती हैं। उपलब्ध साधन के आधार पर स्थिति आर्थिक दृष्टि से मजबूत हुई तो महिला व पुरुष यथोचित आभूषण पहनते है। यह सामान्य पोशाक है, किन्तु जब बसदेवा पुरुष कथा गायन व भिक्षाटन के लिए निकलता है तो उसकी वेशभूषा विशेष होती है। पीली, केशरिया या कत्थई धोती इसी रंग की कमीज। लगभग मिलते-जुलते रंग की पगड़ी। गले मे मालाएं। बाएं कंधे पर लटकती हुई गोदड़ी और हाथ मे मंजीरा,चटकुला या सारंगी। माथे की पगड़ी में धातु की छोटी सी देव मूर्ति। बढ़ी हुई दाढ़ी इन्हें किसी योगी का रूप देती है। एक तरह से कहें तो गेरुआ बाना इन्हे प्रणम्य बनाता है । गाँव के लोग आस्थावान होते हैं। इसलिए जब ये घरो मे जाते है, तो गृहस्वामी इन्हें प्रणाम कर उचित स्थान देता है । गृह स्वामिनी दान देकर यथेष्ट सम्मान करती है। गाँव के लोग बड़े आस्थावान होते है।
जिस बसदेवा के माथे पर घेरदार पगड़ी बंधी होती है उसी पगड़ी मे मूर्ति लगी होती है। ऐसे बसदेवा मुकुट परिहा, या मुकुट धारी बसदेवा कहलाते है। पहले बसदेवा अपने कथा गायन में लोक वाद्य सारंगी का उपयोग करते थे। इन्हे सारंगिया बसदेवा कहा जाता था। किन्तु अब के बसेदवा सारंगी का उपयोग नहीं करते। कुछ बसदेवा मयूर पाँख सिर पर लगाते है। मे मयूर पाँख इन्हें श्री कृष्ण भगवान से जोड़ता है। गोदड़ी मे दान से प्राप्त सामग्री रखी जाती है। इनके पास बांस की कमची से बना चंगोरा भी होता है । जिसमे लड्डू गोपाल की मूर्ति, कुछ देवी-देवताओ के फोटो व गंगा जल का छोटा पात्र होता है। यजमान इसी चंगोरे के सम्मुख वस्तुएं अन्न या नकद राशि भेंट करता है। बसदेवा गायक अपनी वेशभूषा से आसानी से पहचाने जाते है । ये रामनामी या कृष्णनामी पीले वस्त्र भी ओढ़े रहते है । इससे इनकी धार्मिक आस्था प्रकट होती है।
तीज-त्यौहार –
छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र के बसदेवों के तीज त्योहार मे स्थानीयता के कारन थोडा अंतर दिखाई पड़ता है । रक्षाबंधन,दीपावली,दशहरा,होली त्योहार उत्साह से मनाते है। जन्माष्टमी का त्यौहार से विशेष रूप से मनाते है। चूंकि ये श्रीकृष्ण के पिता राजा वासूदेव को अपना पूर्वज मानते है। अतः सभी वासुदेव(बसदेवा) श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का त्यौहार एनी त्योहारों कि अपेक्षा ज्यादा धूमधाम से मनाते है। आबाल-वृद्ध नरनारी इस दिन उपवास रखते है। अर्धरात्रि में श्रीकृष्ण के जन्म के बाद ही फलाहार व व्यंजन ग्रहण कर उपवास तोड़ते है। दूसरे दिन ‘दही लूट’ गोविन्दा पर्व भी अत्यधिक उत्साह से मनाया जाता है। कृषि संस्कृति का पर्व पोला भी इनका प्रमुख त्यौहार है। छत्तीसगढ़ के बसदेवा देवी उपासक है । वे चैत्र व कुँवार नवरात्रि में जँवारा बोंकर (उगाकर) शक्ति की आराधना करते है। इस पर्व में ज्योति कलश जलाये जाते हैं। जिसमे अनवरत नौ दिनो तक ज्योति कलश प्रज्जवलित रहता है।
श्री राजू बसदेवा ने बताया कि उनकी रामायण मंडली है जिसमे राम कथा के साथ पूजिन -कीर्तन को गायन किया जाता है। बैतूल जिला के बसदेवा राम लीला का मंचन करते है। शादी-ब्याह, जन्म संख्कार, विवाह संस्कार और हिन्दू धर्म के अनुसार हीँ” मृत्यु संस्कार सने दिया जाता है।
बसदेवा गायकी और लोक वाद्य –
बसदेवा गायकी बड़ी प्रभावी और मन को मुग्ध करने वाली होती है। एक ही लय और एक ही ताल में गायन की यह शैली अद्भूत है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही कथा गायन की परम्परा आज भी लोक समाज मे समाहित है । बसदेवा गीत की स्वरलहरीयाँ जब वातावरण में गूँजित होती है तो सुनने वालो की भीड़ लग जाती है। बसदेवा गीत की गायकी के लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नही होती बल्कि बच्चे इसे अपने बड़े-बूढों से घर में ही रहकर सीख लेते है । जब बसदेवा भिक्षाटन के लिए जाता है तो वह अपने बालक को भी साथ ले जाता है । छोटा बालक अपने पिता या भाई के गायन में साथ देता है । इस तरह लगातार साथ आने-जाने से कुछ दिन न कुछ माह मे वह बालक भी निष्णात बसदेव गायक बन जाता है। युवावस्था आते तक उसमें परिपक्वता आ जाती है।
बसदेवा गायकी समूह में भी होती है। जिसमें दो से तीन गायक होते है। ज्यादातर ये अकेले ही गायन करते हैं। इनके गीतों में भाव भक्ति, जीवन के मर्म, धर्म और कर्म के संदेश होते है। कथा गीत गायन के पश्चात बसदेवा गायक दानी राजाओं यथा कर्ण, हरिचंद्र, आदि के दान का उल्लेख करते हुए अपने यजमान के परिवार की तुलना कर रहे यशस्वी होने का आशीर्वाद देता है ।
बसदेवा अपनी गायवी को प्रभावी बनाने को लिए सारंगी, पैंजना, चटकुला, चुटकी आदि का उपयोग करता है। जब बसदेवा अपने पाँवो में पैजना पहन कर नृत्य के साथ कथा गायन करता है तब उसका घूम-घूम कर नृत्य करना बड़ा मन मोहक और नयनाभिराम होता है।
नैतिक मूल्यों व परम्पराओं के संवाहक –
अभाव व असुविधाओं के बिच जीवन यापन करने वाले बसदेवा केवल कथा गायक ही नही है अपितु ये हमारे समाज में समता, सद्भाव, भाईचारा और नैतिक मूल्यों के सवर्धन में सहायक होते है। ये सदाचारी ओर धार्मिक स्वभाव के सेवा भावी भी होते है। इनके लिए सभी यजमान समान होते है। इनके मन में किसी प्रकार का उंच – नीच या अमीर गरीब का भाव नही होता है । ये छोटे – बड़े सभी का दान ग्रहण कर सम्मान का पात्र बनते है। इनमे छुवा-छुत का भाव नहीं होता । राजा –रंक,अमीर-गरीब सभी के घर जाकर कथा गायन करते हैं। दान-पुण्य की महिमा का बखान करते हैं । नीति – रीति,धर्म-कर्म और मानवता का गुणगान करते हैं । जहाँ हरिश्चंद्र की कथा गाकर स दान,धर्म, सत्यवादिता,वचनबद्धता का संदेश देते हैं, वही कर्ण की कथा व श्रवण कुमार की कथा कहकर दान शीलता व मातृ-पित्र भक्ति की प्रेरणा देते हैं । कृष्णावतारी व रामावतरी गीत-भजन के माध्यम से जीवन के आदर्शों को प्रतिस्थापित करते है। कथा गीतों में समाज की लोक मान्याताएं लोक विश्वास भी प्रकट होती है । अब तो बसदेवा गायक पारंपरिक लोक मान्य कथा गायन के साथ-साथ समसामयिक विषयों पर भी अपने अनुभवों को साझा करते है। । समय के साथ स्वीकृत लोकप्रिय भजन जैसे मीरा के पद, सूरदास के पद, तुलसी- कबीर के दोहे गाकर ये जन-मन को प्रभावित कर उनका मनोरंजन करते है।
बसदेवा गायक आवाज के धनी होते है। बिना किसी स्कूली शिक्षा या सांगीतिक ज्ञान के अपनी गायकी से यजमान का मन मोह लेते है। ये ऊँची आवाज में गाते हैं, तो तन-मन झंकृत हो जाता है। बसदेवा हमारी लोक परम्पराओं, मानवीय मूल्यों और जीवन आदशों के संवाहक है।
‘बसदेवों के कथा गीत – काली दाह कथा
भोर नाम भुनसार भये,जो बसुदेव के बालक जगे
गज पैरन गज मोतियन हार,उठकर लेत राम का नाम।
जो जो ध्यान धरनी म धरे, सकल विधन दाता के कटे
होय दृष्टिका ना भले से भेट करे भगवान्
एक घडी मोर आधी घड़ी फिर आधी में पुनि आध,
तुलसी चर्चा राम की, जो कटे कोटि राखव अपराध।
स्वर बिन मिले न सरसती,गुरु बिन मिले न ज्ञान।
जन्म दिए हे माता पिता, के रूप दिए भगवान।।
अरे राजा करन सूरज के, पूत
नेम धरम करनी मजबूत, जय गंगान
अरे कुंती को कर दान आते
राजसभा में बांटे सोन, जय गंगान
अरे करन करे सोना के दान,
अरे रानी करे घी खिचड़ी दान, जय गंगान
अरे बेटा करय गऊ अन्न के दान,
बहु करय वस्तर के दान,जय गंगान
अरे पाँचो पुण्य करन घर होय
करन करन का दुनिया में शोर, जय गंगान
अरे करम करम का दुनिया में जय
राम का नाम न लेत न कोय, जय गंगान
सत जाने को गये भगवान
सब कुछ जाय सत न जाय, जय गंगान
अरे सत की बानी लक्ष्मी आय
आगे जनम म फिर मिल जाय, जय गंगान
अरे सब कुछ जाय सत्य न जाय,
सत की बानी लक्ष्मी आय,जय गंगान
अरे सत की बानी लक्ष्मी आय
आगे जनम म फिर मिल जाय, जय गंगान
अरे धन्य-धन्य गोकुल नगरी,
धन्य जहाँ के फूलवारी,जय गंगान
अरे जहाँ कृष्ण ने जन्म लिए
अरे धन्य जहाँ के नरनारी जय गंगान
अरे छोटे चरैया लम्बे केश
मुरली बजाने जमुना तीर, जय गंगान
मुरली बजावे मिटे शोक
मोह लिए जब तीनों लोक, जय गंगान
अरे सोन के लंगर बर के गेंद
खेले कन्हैया ग्वालन संग, जय गंगान
मारी गेंद वा गिरी पताल
जाय गिरी काली दाह में
काली काह में कालिया नाग
नांग सोये नांगिन रखवार, जय गंगान
जहाँ कूद गए कृष्ण मुरार
उठ कर नांगिन देवय जवाब, जय गंगान
अरे कैसे के आ गए देवकी के लाल,
यहाँ पड़े जहरों के बीख, जय गंगान
अरे उठ जायेंगे डस देइहें
तबै कृष्ण जी देवय जवाब, जय गंगान
अरे तेरे नांग ल लेलै जगै
मैं देखूं जग के मनियार, जय गंगान
जय हो…. जय हो … जय हो…
अरे उठकर नागिन देवय जवाब
कैसे रे आ गये देवकी के लाल, जय गंगान
अरे यहाँ परे जहरों के मेल,
अरे उठ जायेंगे डस देइहें, जय गंगान
अरे नांग जगावन नागिन गै
उठके गोल मचकदे पोत, जय गंगान
लय फैना फुसकारे, दौड़
मैला बदन भए भगवान, जय गंगान
मुख मे रहे मुरली बजाय,
नांग नाथ लेवय नचाय, जय गंगान
अरे धन्य देवकी धन्य जसोदा
धन्य जिनके कृष्ण मुरार, जय गंगान
अरे जय रघुनंदन जय घनश्याम
अऊ पतित पावन सीता राम, जय गंगान
अरे कौशिल्या के प्यारे राम
दशरथनंद दुलारे राम, जय गंगान
अरे धरे ध्यान देखै भगवान,
माता लक्ष्मी बाँटय दान, जय गंगान
अरे मोर बसदेव का आसीरवाद
पुण्य बोलय अंगना से जाय, जय गंगान
अरे जय रघुनंदन जय घन श्याम
पतित पावन सीता राम, जय गंगान
सीतापट की कोठरी चंदन लगे किवाड़
ताला कुची प्रेमका खोलो कृष्ण मुरार
श्रीकृष्ण, गोविन्द नारायण भगवान सदा सहाय करणं
श्रीनारायणं, श्रीनारायणं, श्रीनारायणं राधे जय हो
काली दाह कथा (हिन्दी अनुवाद) –
सूरज उगा तो भिनसारे वासुदेव जी जाग गए बालक भी जगे। वे मोतियों के हार का दान भगवान का नाम लेकर करने लगे। दानी व्यक्ति जैसे ही धरती पर पाँव रखता है उससे दान-दाता के सारे संकट दूर हो जाते हैं। ऐसे दानी से भेंट करने से भगवान् भला करते है। एक घड़ी, आधी घड़ी फिर आधी से आधी फिर उसकी भी आधी अवधि में राम की चर्चा करने से सारे पाप दूर हो जाते है। माता सरस्वती के कृपा के बिना स्वर नही सधता और गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता माता-पिता ने तो जन्म दिया है। लेकिन रूप तो भगवान ने बनाया है ।
राजा कर्ण सूर्यदेव के पुत्र हैं । उनका धर्म- कर्म बड़ा सुदृढ़ है। राजा सोने का दान करते है। उनकी रानी थी और खिचड़ी का दान करती हैं । जबकि उनका बेटा गायो का दान करते है और बहु वस्त्रों का दान करती है। वे पाँचो पुण्य करते है। इस लिए इस संसार मे उनकी जय-जयकार है। सत की रक्षा भगवान करते है। सब कुछ चला जाय पर सत्य नही छोड़ना चाहिए। सत्य की वाणी से लक्ष्मी आती है। सत्य पालन से अगला जनम भी मिलता है ।
धन्य-धन्य है गोकुल नगरी,धन्य है वहाँ की फुलवारी, जहाँ श्रीकृष्ण ने जन्म लिया । धन्य है वहाँ के नर-नारी ।नन्हे कान्हा के लम्बे बाल हैं । जब वे मुरली बजाते हैं तो तीनों लोक के शोक मिट जाते हैं। सोने कि रस्सी से उनकी गेंद बनी हैं । एक बार ग्वाल बालो के साथ गेंद खेलते समय कृष्ण ने ऐसी गेंद मारी की गेंद पताल में जा गिरी काली दाह में । काली दाह में कालिया नाग रहता है । कालिया नाग सोता है और उसकी नागिन वहां की रखवाली करती है। कृष्ण मुरारी वहीं कूद गए। नागिन ने उठकर पूछा “देवकी के लाल तुम यहाँ कैसे आ गये ? यहाँ तो जहर का भंडार है। तुम यहाँ से चले जाओ। अगर मेरे पति नाग जाग गए तो तुम्हें डस देंगे” तब कृष्ण ने जवाब दिया –“अपने नाग को जगाओ देखूं वह कितना जहरीला है । नागिन नाग को जगाने लगी । नाग फनों को फैलाकर फुसकारने लगा। कालिया नाग के फुसकार से श्रीकृष्ण का शरीर सावला हो गया। श्रीकृष्ण ने नाग को नाथ लिया और उसके फनों पर नृत्य करने लगे । अरे धन्य है देवकी और धन्य जसोदा। वह भी धन्य धन्य हैं जिनके साथ कृष्ण मुरारी है। जय रघुनंदन लय घनश्याम, पतितों के पावन करने वाले सीताराम । अरे कौशिल्या के प्यारे राम, दशरथ के दुलारे राम, सबको प्रिय है। इस तरह से भगवान बड़े ध्यान से देख रहे हैं। माता लक्ष्मीजी दान कर रही है।
मैं वसदेवा तुम्हे आशीर्वाद दे रहा हूँ। तुम्हारा दान-पुण्य फलेगा । तुम यश के भागी बनो। तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो। भगवान राम तुम्हाराभला करेंगे। बसदेवा अपनी गायकी में बड़े प्रवीण होते है। यजमान व श्रोताओं की इच्छा का आदर करते हुए वे उनकी पसंद की कथा गाकर सुनाते हुए-
राजा हरिश्चंद्र की कथा
श्री रामचंद्र कृपालु की जय…
अरे राजा हरिश्चंद दानी आय… अरे नित्य धरम का करनी मजबूत, जय गंगान
अरे कहूँ वार्ता हरिश्चंद के
सतवा धारी हरिश्चंद आय, जय गंगान
अरे राजा हरिश्चंद दानी आय,
बख्त सोना के बाँटय दान, जय गंगान
अरे रानी करय घी. खिचडी दान,
अरे बेटा करय गऊ अन्न के दान, जय गंगान
अरे पाँचो पुण्य हरिश्चंद्र घर होथे,
धन्य धन्य पुन नगरी धाम, जय गंगान
अरे एक समय ऐसे पड़ जाय,
सत देखन लागौ भगवन,जय गंगा्न
अरे सत देखन लागौ भगवान,
आधी रात के सपना पडै, जय गंगान
अरे आधी रात के सपना पड़ गय
देदै राजा हरिश्चंद्र दान, जय गंगान
अरे होत सवेरा मुनि गए द्वार,
देदै राजा हरिश्चंद्र दान, जय गंगान
अरे ताला चाबी मुनि ल देथे
तीनो प्राणी काशी निकाय
अरे बीस भार सोना के खातिर
राजा बिके घर मरघट रखवार, जय गंगान
अरे राजा बिके मरघट रखवार,
अऊ रानी भरे पंडित घर नीर, जय गंगान
अरे रोहित बिके फूल बगियन जाय
फूल बगियन के करे रखवार, जय गंगान
अरे तीनों प्राणी तीन ठिकान
बिके राजा सतवादी, जय गंगान
अरे हरिश्चंद के सत ना गयरे
देखन लागे भगवान, जय गंगा न
सत्य वादी राजा हरिश्चंद्र की कथा – (हिन्दी अनुवाद)-
श्री रामचंद्र कृपालु की जय ।
राजा हरिश्चंद्र बड़े सत्यवादी राजा हुए। वे नित्य धर्म का कार्य करते। दान-पुण्य करते । अपने वचनों पर अडिग रहते। मैं राजा हरिश्चंद्र की सत्यवादिता कि वार्ता (कथा) गा रहा हूँ। वे बड़े धर्म निष्ठ, सत्य निष्ठ,सत्यवादी राजा थे। वे नित्य प्रति प्रातः काल उठकर सोने का दान करते थे। उनकी रानी घी और खिचड़ी का दान करता था। और उनका बेटा गऊओ ( गाय ) का दान करता था । इस तरह उनके घर, पांचो पुण्य की वर्षा होती थी धन्य – धन्य है उनके दान -पुण्य की उनकी नगरी को ।
एक समय एक अवसर आया कि जब भगवान ने उनकी सत्य निष्ठा और सत्यवादिता की परीक्षा लेने की सोची। राजा हरिश्चंद्र ने रात मे सपना देखा कि उन्होंने अपना सब राज – पाटमाल- खजाना, मुनियों को दान कर दिया है । मुनि जी सबेरे ही राजमहल पहुँच गए और दान मांगने लगे। राजा ने सपने को सच मानकर संपूर्ण राज-पाठ, उन्हें दान कर दिया।तला –चाबी उन्हें सौंप दी और तीनो प्राणी निकल गए । तीनो प्राणी राजा हरिश्चंद्र, उनकी पत्नी और उनका बेटा काशी नगर मे बिक गए। बीस भार सोना लेकर राजा हरिश्चंद्र खुद डोम के घर मरघट मे रखवाली के लिए बिक गए। उनकी रानी पानी भरने के लिए पंडित के घर बिक गई और बेटा रोहित कुमार फूल बगिया मे बिक गए।
इस प्रकार तीनों प्राणी राजा, उनकी रानी और उनका बेटा रोहित कुमार सत्य की रक्षा के लिए बिक गए। उधर भगवान भी ये देख रहे हैं कि राजा हरिश्चंद्र का सत्य डिग जायेगा ।
श्री कृष्ण जन्म कथा
बोलो गोविन्द गिरधारी भगवान की जय
अरे सिरी कन्हैया मोर भगवान
गढ़ गोकुल म धरे अवतार, जय गंगान
अरे भादो मास जन्मे भगवान
घर-घर होथै नंदन राम, जय गंगान
अरे देवकी बसदेव कैद करे
राजा कंस जस अपराधी राम, जय गंगान
अरे जितने गरभ देवकी कर होई हैं
होई है ओ कंस कर काल, जय गंगान
अरे एक समय ऐसे पड़ जाय
राजा कंस बसदेव मिल जाय, जय गंगान
अरे राजा कंस बसदेव मिल जाय
जाय देवकी संग रचे बिहाव, जय गंगान
अरे पावन म बेड़ियाँ पड़ गय
हाथन म जंजीरे राम, जय गंगान
अरे देवकी बसदेव कैद कराये,
कंस बने अपराधी आज, जय गंगान
अरे भादो मास जनमें भगवान,
घर-घर होई गैं नंदन राम, जय गंगान
अरे हाँथन के हथकड़ियाँ खुलगै
पावन के जब बेड़ी खुलै, जय गंगान
अरे ले बसदेव जी बालक जाय
अरे जमुना म जी उतरी जाय, जय गंगान
अरे ले बालक ले मोर जाथय,
बसदेव जी जब बोलय बात, जय गंगान
अरे बाबा नंद के नगरी आय
वसदेव जी जब बालक लेय, जय गंगान
अरे मइया दसोदा बोलन बाले
रघुकुल नंदन के जब राम, जय गंगान
राधे कृष्ण की जय हो।
श्री कृष्ण जन्म कथा, (हिन्दी अनुवाद)-
बोलो गोविन्द गिरधारी भगवान की जय । श्रीकृष्ण कन्हैया भगवान जी ने गढ़ गोकुल में अवतार लिया। भादो मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की आधी रात को भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया तो चारों ओर आनंद की हिलोरे उठने लगी।
राजा कंस ने देवकी और वसुदेव जी को अपराधी की तरह कैद कर कारागृह में डाल दिया । क्योंकि नारद ने उन्हें बताया था की देवकी की कोख से आठ संताने जन्म लेंगी। उनमें से ही कोई कंस का काल बनेगा। एक समय ऐसा आया जब कंस और वसुदेव जी मिले तो कंस ने अपनी बहन देवकी का विवाह वसुदेव के साथ कर दिया। नारद की बातों को सुनकर कंस ने तुरंत देवकी और वसुदेव के पावों में बेड़िया और हाथों में हथकड़ियाँ डालकर उन्हें अपराधी की भाँति मथुरा के कारागृह मे डाल दिया।
मथुरा के इसी कारागृह में भादो महीने भगवान ने अवतार लिया। तब देवकी और वसुदेव के हाथों की हथकड़ियाँ और पावों की बेडियाँ खुल गई। सारे पहरेदार सो गए, जेल के दरवाजे खुल गए। तब वसुदेव जी बाल कृष्ण को लेकर जमुना जी मे उतर गए।जमुना जी को पार कर वसुदेवजी बाबा नंद की नगरी पहुँच गए। जब वसुदेव जी बालक कृष्ण को गोकुल ले गए तो मइया यशोदा बोलने लगी रघुकुल नंदन राम तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।
बसदेवा गायकों के पास अनेकानेक कथा गीत और लोक आख्यान होते है। जो उन्हें कंठस्थ होते है। धारा प्रवाह गायन मे कुशल ये कथा गायक अपनी वाचिकता की परम्परा को बचा कर रखे हुए है। यह वाचिक परम्परा का कमाल है कि लम्बी लंबी कथाएँ उन्हें मुखाग्र होती है।
श्रवण कुमार और उसकी पत्नी का संवाद
बड हठीली सरवन हिय के,
दाई-उदा के न कहना माने, जय गंगान
ओ मईया कहना न माने बेटा सरवन लाल,
सरवन के लाने तोरे जाय, जय गंगान
जब धर के बान खेलन को जाय,
बनकी मारे रे बन शिकार, जय गंगान
ओ मइया बन के रे मारे मईया के शिकार,
लै डारे रे अंधरन के जान, जय गंगान
मारय विधिर घालय रे द्वार, जय गंगान
ओ मईया सरवन बेटा के रे रचे रे बिहाव,
ब्याहीरे नान को घर लाई रे जान, जय गंगान
ओ मईया ब्योही तो नार के लाइ घर बार,
गली घाट मे रहो समझाय, जय गंगान
जब सुनिजा तिरिया वचन हमार,
मोरे घरन म अंधरी हे माँन, जय गंगान
ओ मईया मोरे तो घरन में अंधरी है मान,
मोरे रे घरन मे अंधरा हे बाप, जय गंगान
ओ बहु जिनकी करलव सेवा जान
सेवा करे धन मेवा रे मिलय, जय गंगान
बहु सेवा के करे रे धन मेवा रे मिलय,
बैठे घर में तीरथ करय, जय गंगान
ओ हँसि के बोलय रे धनी से बहु बात
सुनिजा धनी रे पिया रे मोरी बात, जय गंगान
जन सुनिजा पिया रे धनी रे मोरी बात
एक चुक करि ले मोरी माफ़, जय गंगान
जब एक चुक मोरी करि ले रे माफ
तेरे जो बुढ़वा रे जी ‘के काल’
इनको मारे कुअन मे डाल, जय गंगान
जब इनको मारे कुअन मे डाल, जय गंगान
तैं भग चल पिया मैके मोर, जय गंगान
जब मोरे मैके म ग धन लाभ
एक लाख गइया, सवा लाख भैस, जग गंगान
जब दही तो दूध के नदी रे बोहाय
धारे से दूध रे दैहँव रे पिलाय, जय गंगान
जब धारे से दूध रे दैहँव रे पिलाय
धनी रे निकलन नाचन घोड़, जय गंगान
ओ मइया सरवन चोला मचीरे अंगार
जीय के बात कहीन रे जाय, जय गंगान
दाई ददा के कहना न माने
श्रवण कुमार और उसकी पत्नी का संवाद (हिन्दी अनुवाद) –
श्रवण कुमार की पत्नी बड़ी हठीली है। वह न अपने सास-ससुर का कहना मानती ना श्रवण कुमार का । श्रवण कुमार अपने माता – पिता को तीर्थ यात्रा मे गए तो राजा दशरथ ने अपने वाणों से धोखे से मार डाला।
जब श्रवण कुमार विवाह के योग्य हुआ उसकी माता ने उसका व्याह रचाया। श्रवण कुमार जब अपनी पत्नी को लेकर घर आया तो उसने समझाया कि मेरे घर मे बूढे आ-बाप हैं दोनों नेत्र हीन हैं । तुम्हे उनकी सेवा करना है। सेवा करने से मेवा मिलता है। मेरे माता पिता की इच्छा है कि मैं उन्हें तीर्थ यात्रा करा लाऊँ। श्रवण कुमार की बात सुनकर उसकी पत्नी ने कहा-“हे स्वामी मेरी बात सुनो कहने मे अगर चूक हो जाय तो माफ कर देना। कहाँ तुम अंधे मात-पिता की सेवा मे लगे हो। ये बूढ़े सास- ससुर मेरे जीव के काल है। इनसे दुख ही मिलता है। अच्छा होगा कि इन्हें कुएं मे डाल कर मार डालें । जब ये मर जायेंगे तब तुम मेरे साथ भागकर मेरे मायके चलो। मेरे मायके में लाखों की सम्पति है। एक लाख गायें है, सवा लाख भैंसी है वहाँ दूध-दही की नदी बढ़ती है। मै तुम्हें पीने के लिए दूध दूँगी। तुम घोड़े में सवार हो कर निकलना । पत्नी की ऐसी दुष्टता भरी बातें सुनकर श्रवण कुमार के हृदय में अंगारे सुलगने लगीं।
सरवन कुमार की गाथा –
राम-राम कहते रहो,धरे राखो मन धीर,
अरे कारज जेहि सुधारहि, रामा सिया राम रघुवीर।
अरे अंधरी मइया बुढवा बाप,
जेखर बेटा सरवन लाल, जय गंगान
अरे माता-पिता ल तीरथ घुमाय,
सरवन बेटा ज्ञानी आय, जय गंगान
दया-धरम के कारन आय,
राजा सरवन बोलय बात, जय गंगान
सुन जा बेटा सरवन बात,
राजा सरवन ज्ञानी आय, जय गंगान
अरे चिकट काँवड लिया बनाय,
लै काँवड काशी ल जाय, जय गंगान
अरे चलतन चल गय कोस पचास
अरे बीच जंगल म मरे पियास, जय गंगान
अरे सुन जा बेटा सरवन बात,
पानी पिया दे सरवन लाल, जय गंगान
अरे पानी पता मिलत नई आय,
अस्सी कोस के सरो तलाब, जय गंगान
अरे लय तुमा सरवन जी जाथय,
अस्सी कोस के सरो तलाब, जय गंगान
अरे बुड-बुड बोतो तुमा बोलय,
सुन राजा दशरथ बान, जय गंगान
अरे राजा दशरथ मारे बान ग,
लय डारे भांचा के प्रान,जय गंगान
अरे सरवन राजा बोलय बात,
कैसे राजा मारे बान,जय गंगान
अरे एक बान में तीन परान,
लै डारे दशरथ जी राम, जय गंगान
अरे सुन ले राजा दशरथ बात,
अंधरी- अंधरा ल पानी पिलाय, जय गंगांन
अरे लै तुमा दशरथ जी जाथय
अंधरी मइया बोलय बात, जय गंगान
अरे कोन नगर के बासी आय,
राजा सरवन हे कहाँ हे जाय, जय गंगान
जब राजा दसरथ बोलय बान
का कहूँ मइया करम के बात, जय गंगान
अरे कगदा होय ते बाँचे जाय,
कर्म लेख न बाँचे जाय, जय गंगान
जो लिख देत विधाता लेख ग
ओ टाले से टलत नई आय, जय गंगान
अरे कैसे पापी बन गय राजा,
राजा दसरथ से बोलय बात, जय गंगान
अरे एक बान मे तीन परान,
लै डारे दशरथ जी जान, जय गंगान
राधे कृष्ण राधे गोविन्द गोपाल की जय हो।
हिन्दी अनुवाद – अरे अंधे माता-पिता का बेटा श्रवण कुमार अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा पर ले गया। श्रवण कुमार बड़ा ज्ञानी है। यह धर्म-कर्म की बाते जानता है। वह बाँस का काँवड बनाया और उसमें अपने अंधे माता-पिता को बैठा कर काशी की ओर चला। चलते – चलते पचास कोस निकल गए। जंगल में माता-पिता को प्यास लगी लेकिन वहाँ कोई जलस्रोत नहीं था। आगे चलने पर अस्सी कोस का बड़ा सरोवर मिला। तुमड़ी लेकर श्रवण कुमार तालाब की ओर गया। पानी भरते समय बुड़-बुड़ की आवाज सुनकर दसरथ ने हिरण के धोखे मे बाण चला दिए। इससे श्रवण की मृत्यु हो गई। श्रवण के कहने पर राजा दसरथ तुमडी मे पानी ले कर अंधी-अंधा के पास, पहुँचा। दशरथ जब पानी पिलाने लगे तब अंधी ने कहा-“तुम कौन हो ? बोलते क्यो नही? मेरा बेटा कहाँ है?” राजा दशरथ ने सारा वृतांत कह सुनाया। राजा दशरथ के कहा – “कागज में लिखा पढ़ा जा सकता है किन्तु कर्म का लेख पढ़ा नही जा सकता। धोखे से मेरे हाथो श्रवण की हत्या हो गई।” अंधी-अंधा ने कहा- “तुम पापी हो। तुमने हमारे बेटे की हत्या की है । इसलिए तुम्हें हमारा श्राप है। जैसे हम अपने बेटे के वियोग में मर रहे हैं। वैसे ही अपने पुत्र के वियोग तुम्हारी भी मृत्य होगी।”
अभी वर्तमान में प्रचलित और लोक प्रिय भजनों का भी गायन बसदेवा गायकों द्वारा किया जाता है। श्री राजू बसदेवा द्वारा गाया यह भजन –
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार,,
बरनऊ रघुवर बिमल जस, जो दायक फल चार।
अरे एक बार भोले भंडारी, बनकर वृज की नारी
गोकूल में आ गए है, गोकूल में आ गए है
ओ पारवती से बोले भोले मै भी चलूँगा तेरे संग में,
ओ राधा संग कृष्णा नाचे मैं भी नाचूँगा तेरे संग में
रास रचेंगे वृज मे बिहारी हमे दिखाओं प्यारी
गोकूल में आ गए है…….
ओ मोरे भोले स्वामी…….
एक बार भोले भंडारी……
हो कान्हा बंसी पे जाऊँ वारी-वारी
हो तेरी बंसी की घुम लागे प्यारी
हो कान्हा बंसी पे जाऊँ वारी – वारी ।
एक बार भोले भंडारी……
गोकूल में आ गए है…….
जय भोले नाथ की कमी रहे किसी बात की
संगीत एक ऐसी कला विद्या है जो सुनने वालों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर उनमें उमगें भर देता है। यह प्रभाव लोक भजनों मे भी दिखाई देता है। आज का युग विज्ञान का युग है। गीत – संगीत के अनेक साधन उपलब्ध हो गए है। इन साधनो ने संगीत को सुगम बना दिया है। इसीलिए इन माध्यमो से उपलब्ध गीत और भजन लोकप्रियता के शिखर पर है। ऐसे भजन कबीर, तुलसी, सूर और मीरा बाई के है। जिनकी संगत और रंगत का प्रभाव बसेदेवा गायकों पर भी पड़ता है। जन रुचि कोडे देखते ये यजमानों के आग्रह पर ऐसे भजनो को गाने से इंकार नहीं करते। यजमान को खुश करना उनका कर्तव्य बनता है।
मीरा बाई का एक पद- श्री राजू बसदेवा ग्राम पथरी महाराष्ट्र के द्वारा –
ओ मैं अंजानी दरस दीनानी,
पागल मेरी प्रीत |
लियोंरी मैं तो दो नयनों के दीप के लिए
संजो श्री राधे श्रीराधे…..
ओ मैं अंजानी दरस दीवानी
पागल मेरी प्रीत
सूली ऊपर सेज हमारी किस विधि सोना होय
गगन मंडल में सेज पिया की किस विधि मिलना होय
लियोंरी मैं तो दो नयनों के दीपक लिए संजो श्री राधे श्री राधे
जोहरी की गत जौहरी जाने जो कोइ जोहरी होय,
घायल की गत घायल जाने जो कोइ घायल होय
लियोंरी मैं दो नयनों के दीपक लिए संजो
श्री राधे श्री राधे…………..
दरद की मारी बन-बन फिरु मैं,बैद मिला नहीं कोय
मीरा के प्रभु नीर मिलेंगे सावनिया बैरी होई
लियोंरी मैं दो नयनों के दीपक लिए संजो
श्री राधे श्री राधे…….
मैं न जानू आरती बंदन न पूजा की रीत
मै अंजानी दरस दीवानी पागल मेरी प्रीत
लियोंरी मैं दो नयनों के दीपक लिए संजो
श्री राधे श्री राधे…….
श्री राधे श्री राधे…….
मीरा कहती है कि- मैं इस दुनिया से अंजानी प्रेम की दीवानी हूँ। मेरी प्रीत पागल है। मैंने तो अपने दो नयनो के दीप जलाकर अपने प्रभु के दर्शन की दीवानी हूँ। सूली ऊपर हमारी सेज़ है उसमें भला कैसे सोया जायेगा? मेरे प्रिय का सेज गगन मंडल में है उससे कैसे मिलना होगा ? जौहरी का हाल जौहरी जानता है और घायल की दशा घायल जानता है। में दर्द की मारी हूँ। मुझे आज तक योग्य वैध नहीं मिला। मीरा के प्रभु मिल जायेंगे तो आँखों से अश्रु बरसना बंद हो जायेगा। मैं ना आरती वंदन जानती हूं न पूजा की रीत जानती हूँ। मै दुनिया से अंजानी अपने प्रिय के दर्शन की दीवानी हूँ।
राम बनवास कथा
सरसती बिन स्वर न मिले, गुरु दिन मिले न ज्ञान
माता-पिता ने जनम दिया, रूप दियाभगवान |
अरे कहूँ बार्ता कलजुग के,
अरे कलजुग केवल नाम अधार, जय गंगान
यही धरम तन आवय काम ग
राजा दशरथ बोलय बान, जय गंगान
अरे दशरथ के चार लाड़ले
“जन्मे राजा अयोध्या धाम, जय गंगान
अरे चौदा बरस गए राम बनवास
भेजय माता के कई राम, जय गंगान
अरे राज- पाठ भारत ल देये
भारत जैसे भाई नहीं जय गंगान
राम जनम दुनिया तरगै
जिन म तरगे राम के नाम, जय गंगान
राम जनम नगरी म होथय,
घर- घर होथे नंदन राम, जय गंगान
अरे जय गंगा और भज ले राम
राम वनवास कथा हिन्दी अनुवाद –
माता सरस्वती की कृपा के बिना किसी को स्वर नहीं मिलता और बिना गुरु की कृपा के किसी को ज्ञान नहीं मिलता। माता-पिता ने जन्म दिया है और इस रूप को भगवान ने गढ़ा है। मैं कलियुग की कथा गा रहा हूँ। इस कलियुग मे भव सागर पार उतरने का माध्यम, केवल भगवान का नाम ही है। यह शरीर धर्म के काम आए। ऐसा राजा दशरथ बोल रहे है। एक समय की बात है। राजा दशरथ के घर चार पुत्रों ने जन्म लिया। माता कैकयी ने अपने पुत्र भरत को राजपाठ देकर राम को चौदह वर्ष के लिए बनवास भेज दिया। इस संसार में भारत जैसा कोइ भाई नही ।
राम का भजन करके दुनिया तर गई। राम के नाम ने सबको तार किया। राम का उन्म जब अयोध्या नगरी में हुआ तो चारों ओर आनंद मंगल छा गया था। भजन करने से सारे कार्य सिद्ध हो जाते है। गंगा मइया की जय बोल कर राम का नाम भजो | कलियुग केवल नाम अधारा ।
बसदेवा जाति के लोगों की आजीविका का साधन कथा गायन है जो साल के केवल चार माह चलता है। शेष समय में कृषि के साथ साथ मजदूरी का भी कार्य करते है। यजमानी के लिए इसके गाँव निर्धारित रहते है। भिक्षाटन के लिए दूसरे गाँव में जाने की मनाही रहती है। किन्तु यह परम्परा टूट रही है। क्योकि नई पीढ़ी की रुचि भिक्षाटन में नहीं है। इस कारण गायकी कर भिक्षा मांगने वालों की संख्या कम होती जा रही है।
बसदेवा गाँव मे निरन्तर आने जाने के कारण गाँव की भौगोलिक स्थिति और गाँव के छोटे-बड़े सभी लोगों से परिचित होते है। अत: आवश्यकता पड़ने पर ये गाँव की विशेषता व लोगों के गुणों को भी की अपनी गायकी में शामिल कर समता – सद्भाव का अलख जगाते है। भक्ति-भाव के साथ मानवीय गुणों को प्रतिष्ठित करने की लोक गायकी की यह परम्परा अभिनंदनीय है। दरअसल बसदेवा नैतिक मूल्यों के प्रचारक और लोक जागरण के संवाहक है। बसदेवा चलते, फिरते ज्ञान कोष है।
कथा श्रोत
(1)श्री राजू बसदेवा, श्री योगेश बसदेवा व गोलू बसदेवा,
ग्राम खपरी थाना तहसील कांचना, जिला-वर्धा महाराष्ट्र