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जनजातीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग : महुआ

आम तौर पर महुआ का नाम आते ही इसका सम्बन्ध शराब से जोड़ दिया जाता है। जबकि यह एक बहुपयोगी वृक्ष है। इस वृक्ष के फल, फूल, पत्ती, लकड़ी, तने की छाल सबका अपना उपयोग है। इस वृक्ष के बहुपयोगी होने के कारण जनजातीय समाज इस वृक्ष को पवित्र मानता है। देव काम में इसके पत्तों का उपयोग करता है। आदिवासी समाज इस वृक्ष पर न तो कभी चढ़ता है और न ही कभी टँगिया चलाता है। वृक्ष की छाल निकालने के लिये भी लोहे का उपयोग नहीं किया जाता, ना ही इस वृक्ष के पास दिशा मैदान (शौच) ही किया जाता है।

महुआ वृक्ष की पत्तियाँ साल भर हरी रहती हैं। इसीलिये इसे हरियाली का प्रतीक माना गया है। वैदिक रीति से और सामाजिक रीति से होने वाली शादियों में मंडपाच्छादन में गाँव के पुजारी द्वारा एक डगाली इस वृक्ष की भी गाड़ी जाती है। हर समाज, हर वर्ग की शादियों में मण्डपाच्छादन के समय इसकी एक न एक डगाल जरूर गाड़ी जाती है। कमरछट (हलशष्टी) में लाई के साथ महुआ मिलाकर प्रसाद बनाया जाता है। यह छत्तिसगढ़ का त्यौहार है। जो बस्तर में भी प्रचलित है ।

महूआ फ़ूल

महुआ : एक परिचय

महुआ का वृक्ष हिमालय की तराई और पंजाब को छोड़ कर सम्पूर्ण भारतवर्ष के मैदानी क्षेत्रें में पाया जाता है। मध्य भारत के इस प्रमुख वृक्ष का वैज्ञानिक नाम “मधुका लोंगफोलिआ” है। इसका सम्बन्ध पादपों के सपोटेसी परिवार से है। यह उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन का प्रमुख वृक्ष है। इस वृक्ष की उम्र कोई अंदाजा तो नहीं है, परन्तु इसके पौधे को वृक्ष बनने और फल देने में 20-22 वर्ष लगतें है। यह वृक्ष सालों साल तक फूल, फल इंधन की लकड़ी आदि देता है। जिसका विविध उपयोग किया जाता है।

फाल्गुन, चैत्र में जब इस वृक्ष की पत्तियाँ झड़ जाती है, तब स्पष्ट गुच्छे के रूप इसके फूल दिखाई देने लगतें है। यह गुच्छे में होने से इसे महुआ का कुचीयाना और गोंडी बोली में इरूक कुच्चेंग कहते हैं। पकने पर इसका फूल जो सफेद रंग का होता है, अपने आप ही झड़ता है। यह फूल गुदाज रसदार होता है, इसमें मिठास होने के कारण पशु-पक्षी, मनुष्य सभी इसे चाव से खाते है। यही महुआ है, इसे हल्बी में “महु” और गोंडी में “इरूक” कहते है। बस्तर में यह वृक्ष जंगल, खेत मरहान, बाड़ी में अपने आप ही उगता है। आदिवासी समाज और दिगर समाज के लोग प्रतिदिन इसके फूल का संग्रहण कर इसे सूखाकर साप्ताहिक बाजारों में विक्रय कर आय अर्जित करते हैं।

महुए का व्यापार

एक अनुमान के अनुसार पूरे बस्तर संभाग में लगभग दो हजार ट्रक याने एक लाख क्विटंल से भी अधिक महुआ का संग्रहण किया जाता है। जिसका लागत मूल्य लगभग 40 लाख रु से भी अधिक होता है। यह हर वर्ष होने वाले संग्रहण का मोल हैं। महुआ बस्तर से बाहर निर्यात नहीं किया जाता। इसकी खपत बस्तर में ही हो जाती है। जिस वर्ष किसी कारणवश महुआ की आवक कम होती है, उस विशेष वर्ष में बस्तर में महुआ अन्य प्रदेशों से आयात कर उस कमी की पूर्ति की जाती है। इसका अर्थ यह है कि सम्पूर्ण बस्तर सम्भाग में प्रतिवर्ष एक लाख क्विटंल से भी अधिक महुए की खपत होती है।

जिस समय बस्तर में शराब की हाथ भट्टी हुआ करती थी, उस समय महुआ की खपत इतनी नहीं थी। इनके बन्द हो जाने के कारण अचानक महुआ का उपयोग आदिवासियों के अलावा अन्य समाज के लोग भी करने लगे। प्रशासन द्वारा भी आदिवासी लोगों को पाँच बाटल तक शराब बनाने और रखने की छूट देने से इसकी खपत में अत्याधिक वृद्धि हुई। जिसका लाभ आदिवासीयों के अलावा दिगर समाज के लोगों को भी हुआ और वे भी महुआ से शराब बना कर बिक्री कर आय अर्जित करने लगे।

वर्तमान में बस्तर सम्भाग सात जिलों में विभाजित है, इन में सबसे अधिक महुआ का संग्रहण दन्तेवाड़ा जिले मे होता है। गुणवत्ता के दृष्टिकोण से सबसे अच्छा महुआ कांकेर जिला के लखनपुरी का माना जाता है। गुणवत्ता का आँकलन महुआ के रंग से किया जाता है, यदि महुआ के सुखने के बाद उसका रंग गुलाबी होता है तो उसे अच्छी श्रेणी का माना जाता है और उसी के अनुरूप उसका मूल्यांकन किया जाता है। इसके अलावा महुआ का आकार भी उसकी गुणवत्ता को दर्शाता है।

कुछ क्षेत्रों के महुआ के आकार छोटा होता है, उनकी कीमत कम होती है और कुछ क्षेत्र के महुआ का आकार बड़ा होता है, उनकी कीमत अपेक्षाकृत कुछ अधिक होती है। कांकेर जिला के पखांजूर क्षेत्र में संगृहीत महुआ के दानें बस्तर के अन्य क्षेत्र में पाये जाने वाले महुआ के दाने से छोटे होने से उसकी कीमत कम होती है। इसी तरह सुखने के बाद कत्थई रंग और काला पड़े दानें वाले महुआ की कीमत कम होती है।

व्यापारी पहले तो महुआ को ग्रामीणों से खरीद कर उसे शीतगृह में संगृहीत करते हैं। फिर उसे ही उन्हीं आदिवासियों को कुछ अधिक दाम में बेंच देते है। कारण की नये महुए की अच्छी शराब नहीं बनती, उसका अन्य उपयोग तो हो सकता है पर शराब बनाने के लिये चार माह तक इन्तजार करना होता है। इसलिये ग्रामीण पहले उसे बेंच देते है और बाद में उसे खरीदते है। इसका कारण है कि महुआ संग्रहण कर रखने की ग्रामीणें के पास व्यवस्था नहीं होती है।

बहूपयोगी महुआ

महुआ के फूल झड़ जाने के बाद इसके वृक्ष से पत्तियों की नई कोंपले फूटती है, इस समय सारा वृक्ष लाल रंग का दिखता है। इसी समय फूल वाले गुच्छों से महुआ का फल निकलता है, जिसे महुआ फल (केन्दली) के अलावा हल्बी में टोरा गोंडी में गारांग कहते हैं। व्यवसायी लोग इसे गुल्ली भी कहते हैं। जब यह फल परिपक्व होता है तब इसे झड़ा लिया जाता है, ऊपर का छिलका निकालने पर दो फली निकलती है, इसे सूखाकर तेल निकाला जाता है जिसे हल्बी में टोरा तेल गोंडी में गारांनी कहते है, और छिलके की सब्जी बनाकर खाया जाता है।

वर्तमान में तेल निकालने के साधन का अभाव होने से इसे बेच दिया जाता है। इस टोरा तेल में औषधीय गुण होता है, दर्द होने की जगह में या मोच आने पर इस तेल से मालिश की जाती है, यह दर्द निवारण की अचूक दवा है। इस तेल का उपयोग मल-पित उतारने के लिये भी किया जाता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में इस तेल का खाने में प्रयोग किया जाता है। बस्तर के अधिकांश इलाके में इसी तेल से दिया जलाया जाता है। इसकी लकड़ी का उपयोग इंधन के रूप में किया जाता है।

देव गुड़ी और पूजा स्थलों पर टोरा तेल का दिया जलाना शुभ माना गया है। महुआ वृक्ष की छाल को दर्द की जगह में बाँधने पर वह दर्द खींच लेता है। इसके फल से तेल निकालने के बाद जो खल्ली बचती है, उसका भी अपना उपयोग है। इसे दाने में मिलाकर दुधारू पशुओं को खिलाया जाता है, जिससे वे स्वस्थ्य एवं अधिक दूध देते है। बरसात में इस खल्ली से धुआं कर वातावरण शुद्ध कर जहरीले कीट-पतंगों को मारने के काम में लाया जाता है। इसकी खल्ली के धूयें का प्रयोग प्रेत बाधा दूर करने के लिये भी किया जाता है। व्यापार की भाषा में टोरा को गुल्ली कहते हैं।

महुआ का फूल जो दिखने में कोश नुमा होता है, यह दोनो तरफ से खुला होता है। सिरे पर चारो तरफ छोटी आकृति होती है। बीच में रेशा जैसा होता है। सूखने पर इसका गुदाज भाग गुलाबी रंगत ले लेता है। इसका ग्रामीण क्षेत्र में विविध उपयोग किया जाता है। महुआ के अच्छे से सूखने के बाद इसे जोन्दरा (मक्का) के साथ बहुत बारीक कूट लिया जाता है, इसमे सूखा मावा जो प्रायः ग्रामीण क्षेत्र मे मिलता है। जैसे चिरौंजी, भेलंवा (भिलांवा) आदि को भी कूट कर लड्डू बनाया जाता है। यह बहुत ही स्वादिष्ट लगता है। कारण महुआ में मिठास की अच्छी खासी मात्रा होती है, जिससे उसकी मिठास बढ़ जाती है।

लड्डू बनाने को गोंडी में “लडुंग पडना” और इसे खाने को “लडडुंग पिडिस तिन्दाना” कहते है। इसी तरह महुआ के साथ सरई (साल ) के बीज को उसा (उबाल) कर उसे बरसात के समय खाया जाता है। यह पूर्ण आहार होता है। इसे एक दोनी खाने से पेट भर जाता है। महुआ का लसलसा साल के बीज में लिपट जाता है और सरई के बीज को स्वादिष्ट बना देता है। इसे गोंडी में “अड़का तेहुना उच तिन्दाना” कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में महुआ को कूटकर आटें में मिलाकर रोटी बनाई जाती है। जिसे “लाठा” और उसके रस से आटा सान कर पूड़ी बनाई जाती है जिसे “महुअरी” कहते है।

महुए की शराब

महुआ का सबसे अधिक उपयोग शराब बनाने में किया जाता है। इससे बनी शराब हल्बी में “मन्द” गोंडी में “दाड़गों” हिन्दी में कच्ची शराब या ठर्रा कहलाती है। आदिम समाज में महुआ से बनी शराब का महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिये इसे संस्कृति के साथ जोड़ दिया गया है। आदिवासी समाज किसी भी कार्य मे इस शराब का उपयोग करता है। अपने सगा-सम्बन्धियों से हाट-बाजार में सुख-दुःख बाँटने का अवसर हो या कहीं मेहमान बनके जाना हो तो वह शराब लेकर अवश्य जाते है।

घर में शादी-विवाह के समय शराब पी जाती है। जन्म के समय हो या मृत्यु के समय समधियान पक्ष शराब लेकर आता है, बदले में दूसरे पक्ष को भी शराब परोसना पड़ता है। हर देव काम में शराब का तर्पण किया जाता है। जनजातीय समाज के देवता उनके आदि पुरूष हैं। आदिवासी समाज का मानना है कि उनके पूर्वज पहले शराब पीया करते थे, इसलिये उन्हें शराब तर्पण किया जाता है।

संयोग से यदि शराब नहीं होने की दशा में शराब हण्डी को धो कर तर्पण किया जाता है। किसी अपने से बड़े व्यक्ति से मिलने या सलाह लेने जाते समय सम्मान में शराब लेकर जाने की परम्परा है। माहला (सगाई) में लड़की पक्ष के लोग लड़के वालों से दो तीन बार शराब पीते हैं, तब शादी की तारीख पक्की करते हैं। अपने सबसे बड़े त्यौहार नवाखानी में अपने से बड़ों को शराब भेंट कर आशीर्वाद लिया जाता है।

महुआ से शराब बनाने के लिये वैज्ञानिक विधि का ही प्रयोग किया जाता है, जिसे आश्वन विधि कहते है। इसमे पहले सूखे महुये को पानी में तीन चार दिन तक भिगा दियाजाता है, जब उसमे बूलबुले फूटने लगते हैं इसे “पास आना” कहते है। इस पास को एक हण्डी में चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है, उसके उपर एक हण्डी और रखी होती है, जिसकी पेन्दी के नीचे की हण्डी के मुँह बराबर कटी होती है। इसमें से बीच से एक लम्बा पाइप निकली होती है, इस हण्डी के उपर एक और हण्डी रख दी जाती है, जिसमें ठण्डा पानी भरा होता है। चूल्हे की आग से नीचे की हाण्डी जिसमे पास होता है को उबाला जाता है, इसका भाप बीच की हण्डी में जमा होता है जो ऊपर हण्डी में रखे ठण्डे पानी से टकरा कर ठण्डा होता है और पाइप द्वारा बून्द-बून्द एक अलग पात्र में जमा होता है, यही शराब है।

पहले और दूसरे दौर के बने शराब को “फूल्ली” जो बहुत ही तेज अधिक नशा युक्त और तीसरे चौथे दौर में बने शराब को “रासी” कहा जाता है। यह अपेक्षाकृत कम नशा और कम तेज होता है। इसके अलावा एक विधि और है जिसका प्रयोग भी बस्तर के ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाता है। एक बड़ी हाण्डी में महुआ के पास को उबालने के लिये रख देते हैं। इस हांडी में एक छोटी हांडी रखी जाती है, जो खाली होती है और ऊपर खींचने के लिये डोर बँधी होती है। बड़ी हांडी के ऊपर एक हांड़ी और रखते हैं, जिसमें ठन्डा पानी रखा जाता है। महुए के पास को उबालने पर वाष्प ऊपर के ठन्डे पानी की हंडी से टकराकर बीच में रखी हांडी में जमा होती है, यही महुआ की शराब है।

आदिम समाज को महुआ में नशा होने की जानकारी मिलने के पीछे एक किंवदन्ती है। एक बार सब जीवों को भगवान अपने पास बुलाते है, सबके साथ मनुष्य भी वहाँ जाता है। भगवान के यहाँ सबको ज्ञान की बातें समझायी जाती है। लगभग आधा दिन बीत जाता है, उसके बाद भगवान द्वारा सभी जीवों को अपने-अपने स्थान पर लौटने के लिये कहा जाता है। सब लौटने लगते हैं तब भगवान के द्वारा उनके पीछे अपने लोगों को लगाकर प्रतिक्रिया जानने का प्रयास किया जाता है, सभी जीव लौटते समय सब आपस में एक ही बात कहते है। “ज्ञान की बात तो ठीक है, पर मजा नहीं आया।” आधा दिन बिना खाये-पीये बीत गया।

इसीं समय एक रामी चिड़िया महुआ पेड़ के खोह में जमा पानी पीती है और जब बाहर आती है तो खूब मस्ती करती है, नाचती है, गाती है। सबको आश्चर्य होता है, सभी सोचते हैं, इसे एकाएक क्या हो गया है? पता करने पर मालूम होता है कि वह यह सब महुआ वृक्ष के खोह के पानी पीने से कर रही है। तब सब उस पानी को पीकर देखते हैं। उन्हे भी आनन्द आता है। सब एक साथ कहतें हैं, हम यही आनन्द खोज रहे थे और उसी दिन से महुआ के पानी मे नशा होने की सबको जानकारी मिली। उस महुआ के खोह में महुआ के दाने गिरे रहते हैं। जो पानी से पास बनकर नशीले हो जाते है। बाद में इसी प्रक्रिया से महुआ से शराब बनाने की विधि का इजाद हुआ।

इस तरह महुआ जनजातीय ग्रामीण संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है, जो सामाजिक उत्सवों में अनिवार्य रुप से प्रयोग में लाया जाता है तथा ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का भी महत्वपूर्ण आधार है। जनजातीय ग्रामीण संस्कृति की कल्पना बिना महुआ के नहीं की जा सकती है। जन्म से लेकर मृत्यु संस्कार में महुआ प्रमुख अवयव के तौर पर सम्मिलित रहता है। इसलिए इसे जनजातीय समाज के कल्प वृक्ष की संज्ञा भी दी जा सकती है।

आलेख

श्री शिव कुमार पाण्डेय अधिवक्ता,
संस्कृति के जानकार
नारायणपुर, बस्तर

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