गणेश जी के स्वरूप और उत्सव में परिवार के समन्वय, समाज की जागरुकता, सशक्तीकरण और नेतृत्वकर्ता के लिये कुशलता का अद्भुत संदेश है। नेतृत्व कर्ता का व्यक्तित्व कैसा हो, व्यवहार कैसा हो, कार्य क्षमता कैसी हो। यह सभी संदेश गणेशोत्सव के माध्यम से दिये गये हैं।
गणेश जी को हम दो प्रकार से समझें। एक उनके जन्म की कथा और दूसरा उनका स्वरूप। उनके जन्म कथा में है कि माता पार्वती ने उन्हें द्वार पर नियुक्त किया। शिवजी आये, गणेश जी ने रोका तो शिवजी ने शिरच्छेद कर दिया। बाद में ऐसे बालक की तलाश हुई जो अपनी माता के ओर से पीठ करके सो रहा हो और माता की पीठ भी उस बच्चे की तरफ हो। बहुत ढूंढने पर एक हथिनी और उसका बच्चा उसी स्थिति में सोते मिले बालक की शीश लाया गया और गणेशजी को जीवित किया गया।
इस कथा में कुछ प्रश्न उठते हैं। क्या माता पार्वती साधारण स्त्री हैं? और क्या शिवजी साधारण पुरुष हैं? माता पार्वती आदि शक्ति हैं, त्रिकाल दर्शी हैं। शिवजी देवाधिदेव हैं वे भी त्रिकाल दर्शी हैं। तो क्या माता पार्वती को यह भान न था कि थोड़ी देर बाद भगवान शिव आने वाले हैं और क्या शिवजी को यह नहीं जानते थे कि ये बालक कौन है और यहाँ किसने तैनात किया।
यदि बालक का शिरच्छेद हुआ भी तो क्या शिवजी नया शीश नहीं बना सकते थे? और फिर ऐसा क्यों कहा कि ऐसे बालक का शीश चाहिए जो माँ बेटे परस्पर विपरीत दिशा में मुँह करके सो रहे हों। शिव और पार्वती ने यह लीला समाज को सीख कुछ संदेश देने के लिये है।
पहला तो यही कि पति पत्नी एक दूसरे को समझें। यदि द्वार पर किसी द्वारपाल का प्रबंध किया है तो यह प्रबंध समझदारी और पति पत्नि द्वारा परस्पर विचार विमर्श के साथ होना चाहिए। यदि किसी आपात स्थिति में कोई प्रबंध किया गया है तो यह सूचना द्वारपाल को होना चाहिए कि कौन परिवार जन कब आने वाले हैं। ताकि कोई अप्रिय घटना न घटे। यदि सूचना नहीं है तो भी द्वारपाल को यह व्यवहारिक समझ होनी चाहिए कि किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए।
अब दूसरा संदेश किसी बच्चे का शीश लाने का है। उसमें माता को संदेश है कि वह कभी भी अपने बच्चे की ओर पीठ न करे और न बच्चा अपनी माता की ओर से विमुख हो। जिन बच्चों की माताएँ बच्चों पर ध्यान नहीं देतीं और बच्चा भी माता से विमुख रहेगा तो उसका विनाश निश्चित है।
गणेश जी स्वरूप और अंगों का संदेश
अब गणेशजी के स्वरूप और नाम को देखिये। गणेश जी को गणनायक कहा गया है अर्थात गणों का नायक, गणों का नेतृत्वकर्ता। “गण” सामान्य जन को कहा जाता है इसलिए आधुनिक शासन पद्धति को “गणतंत्र” कहा जाता है। नेतृत्व की श्रृंखला हर स्तर पर होती है। परिवार में, समाज में, किसी संस्थान में और राष्ट्र में भी।
प्रत्येक व्यक्ति को सक्षम और सक्रिय होना चाहिए किन्तु फिर भी सबको संगठित रखने और प्रगति की ओर गति देने में की क्षमता भी नेतृत्वकर्ता में होनी चाहिए। जिस परिवार, संस्थान, समाज और राष्ट्र में सक्षम नेतृत्व कर्ता होते हैं वही प्रगति करते हैं, समृद्ध होते हैं।
गणपति के स्वरूप में नेतृत्वकर्ता को क्षमतावान होने का संदेश है। नेतृत्व कर्ता की शैली कैसी हो, व्यक्तित्व कैसा हो, और व्यवहार कैसा हो यह सब गणेश जी के माध्यम से ही समझाया गया है। गणेश जी की प्रिय वस्तुओं, प्रिय भोजन और उनके शरीर के अंगों में यह रहस्य छुपा हुआ है। गणेश जी का पूरा शरीर असाधारण है कोई अंग सामान्य नहीं है। नाक, कान पेट आकार में बहुत बड़े हैं, माथा चौड़ा है,आँखे छोटी हैं, दांत भी एक है, दूसरा दांत टूटा हुआ है।
सबसे पहले गणेश जी की छोटी आंखों के संदेश को समझें । जब भी हम किसी वस्तु को बहुत ध्यान से या एकाग्रता से देखते हैं तब हमारी आँखे सिकुड़ती हैं। यदि आँखे फैलाकर देखेंगे तो वस्तु का आकार थोड़ा धुँधला दीखता है । अर्थात नेतृत्व कर्ता को हर वस्तु हर बात, और हर घटना को एकाग्रता से समझनी चाहिए। एकदम पैनी नजर से।
गणेश जी सूँड अर्थात नाक लंबी है। नेतृत्व कर्ता की सूंघने की शक्ति तीक्ष्ण होनी चाहिए। अपने परिवार में,समाज में या राष्ट्र में कहाँ क्या कुछ घट रहा, यह सब नेतृत्व कर्ता को दूर से ही सूंघ लेना चाहिए। गणेश जी के कान लंबे हैं। यनि नेतृत्वकर्ता का सूचना तंत्र तगड़ा हो और हर बात को सुनने क क्षमता होनी चाहिए।
उनका पेट बड़ा है अर्थात जो भी अधिक से अधिक बात सुनी है उसे अपने पेट में डाल लेनी चाहिए। पचाने की क्षमता होनी चाहिए। ऐसा न हो कि इधर सुना और उधर सुनाया। एक सफल नेतृत्वकर्ता वही जो अपने प्रभाव क्षेत्र में घटने वाली हर घटना की जानकारी रखता है, पैनी नजर रखे। कहाँ क्या घट रहा, उसे सूंघ ले, कौन कहाँ क्या बात कर रहा है वह हर बात सुने और अपने भीतर छिपा कर रखे। माथा चौड़ा यनि उसकी छवि प्रभावकारी होनी चाहिए।
उनका वाहन चूहा है। चूहा छोटे से छोटे रास्ते पर चल सकता है। पत्थरों के बीच भी मार्ग बना सकता है अर्थात नेतृत्वकर्ता का वह तंत्र जिसके माध्यम से वह अपना प्रशासन चला रहा है, इतना सक्षम होना चाहिए कि वह नये मार्ग बना सके कठिन से कठिन रास्तों को भी आसान बना सकें।
गणेशजी से समन्वय की सीख
गणपति जी शिव परिवार के समन्वय हैं। अब शिव परिवार की विविधता देखिये। शिवजी का वाहन नंदी है। नंदी अर्थात बैल और देवी पार्वती का वाहन सिंह। सिंह का आहार होता है बैल। कुमार कार्तिकेय के वाहन मयूर, जिनका आहार नाग होता है और भगवान शिव का श्रृंगार हैं नागदेव।
गणेश जी का वाहन मूषक। शिवजी का आसन सिंह चर्म। शिवजी सिंह चर्म पर समाधि लगाते हैं। मूषकराज का वश चले तो आसन कुतर दें। फिर भी यह एक आदर्श परिवार है जिसमें कभी कोई टकराहट का प्रसंग किसी कथा में नहीं मिलता। अद्भुत समन्वय है शिव परिवार में। यह समन्वय गणपति जी के कारण। वे परिवार के समन्वयक हैं । इससे यह संदेश मिलता है कि जो नेतृत्वकर्ता हैं उनमें यह क्षमता होनी चाहिए कि वे विषम और विपरीत स्वभाव वाले लोगों के बीच समन्वय कर सकें। जिससे परिवार, समाज या देश आदर्श स्वरूप निखार सकें।
गणेश जी को दूब और लड्डु अर्पण का संदेश
सनातन परंपरा में प्रत्येक देवता के लिये पूजन अर्पण की सामग्री अलग होती है, प्रसाद अलग होता है, श्रृंगार अलग होता है। यह समाज को समझाने केलिये मनौवैज्ञानिक उपाय है। गणेशजी को दूब अर्पित की जाती है और लड्डुओं का भोग लगाया जाता है। देखें तो इन दोनों वस्तुओं में कोई तालमेल नहीं। कोई एक रूपता नहीं। दूब मिट्टी में ऊगी जाती है और स्वयं ऊग आती है। दूव को उगाने कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, कोई बीज नहीं डालना पड़ता। वह स्वयं ऊग कर पैरों तले रहती है।
जबकि लड्डू में बहुत श्रम साधन और समय लगता है। पहले गाय पालें दूध लगायें, दूध का मावा बने, फिर लड्डू बनें या फिर पहले चना उगाएं, चने से दाल बनाओ, बेसन बने, बेसन की बूंदी बने, उसमें शकर या गूड़ डालकर लड्डू बनाये जाते हैं। हम शकर या गुड भले बाजार से खरीद लें लेकिन बाकी सभी वस्तुएँ घर में ही होती हैं।
अब लड्डू का मनो विज्ञान देखे। लड्डू खाने में जितने स्वादिष्ट होते हैं उन्हें बनाने में उतना ही श्रम और समय लगता है। लड्डू इतना नाजुक है कि यदि वह नीचे गिर जाये तो विखर जाता है। वहीं इसके बनने में देखिये। बेसन का एक एक कण मिलकर बूंदी बनती है फिर बूंदी को संगठित करके लड्डू अर्थात एक एक व्यक्ति को जोड़कर युग्म बनाना।
नेतृत्व कर्ता को वही प्रिय होते हैं जो परिवार और समाज को संगठित रहते है। वही समाज प्रभावशाली, प्रतिष्ठित और सबके आकर्षण का केन्द्र होता है जो एकजुट चलने का प्रयत्न करते हैं। जैसे लड्डू में बूंदी या बेसन के कण कण परस्पर संगठित रहने का प्रयत्न करते हैं। लड्डू जितना पुराना होता है उतना कठोर बनता है अर्थात समय के साथ परिवार और समाज संगठन का स्वरूप सघन होते रहना चाहिए।
जो लोग इस मन मानस के होते हैं वे सदैव संगठित रहते हैं बिल्कुल लड्डू की भाँति और संगठन भाव के प्रति ऐसे सकारात्मक व्यवहार के लोग ही नेतृत्वकर्ता को पसंद होते हैं बिल्कुल गणेश जी भाँति। चूँकि विकास और समृद्धि के लिये संगठन का यह भाव रखने वाले समूह से और इस भाव को पसंद करने वाले नेतृत्वकर्ताओं से ही संभव होता है।
अब उनकी पसंद दूब को समझें। दूब पैरों तले रहती है न केवल इंसान के बल्कि जानवरों के पैरों तले भी। फिर भी गणपति जी को दूब पसंद हैं, क्यों ?
गणपति गणनायक हैं, सफल नेतृत्वकर्ता वही है जो निम्नतम के प्रति भी अपनी प्रियता प्रकट करता है। दूसरा संदेश एक परंपरा को समझें। जब सामान्य जन अपने नायक के पास जाता है तो कुछ न कुछ भेंट लेकर जाता है। पुराने समय में भी लोग राजाओं के, ऋषियों के, आचार्यों और गुरु के पास खाली हाथ नहीं जाते थे कुछ न कुछ लेकर ही जाते थे।
तब संदेश दिया गया है कि यदि आपको भेंट दी जा रही है तो आपका व्यवहार ऐसा हो कि सस्ती से सस्ती वस्तु भी ऐसे स्वीकार करो जैसे वही आपको सबसे प्रिय है। दूब से सस्ता क्या होगा? यदि नेतृत्व कर्ता इतनी साधारण वस्तु को भी अपनी सर्वाधिक प्रिय बताता है तब इसका संदेश जन साधारण पर भी पड़ता है। वह भी दिखावट सजावट से दूर सरल जीवन शैली की ओर प्रवत्त होता है।
यह दूब गणपति जी को बहुत श्रृद्धा से अर्पित की जाती है । इसका संदेश है कि वरिष्ट जनों को दी जाने वाली भेंट का मूल्य महत्वपूर्ण नहीं होता, भाव महत्वपूर्ण होता है। हमारी रिश्तेदारी में या किसी अवसर विशेष पर कोई व्यक्ति सामान्य वस्तु की भेंट लाता है तब भी उसमें स्नेह देखना चाहिए न कि उसका मूल्य। यही संदेश है दूब का और लड्डुओं का है।
इन सभी संदेशों के साथ गणेशोत्सव कहीं सप्ताह भर तो कहीं दस दिन चलता है ताकि समाज इन संदेशों को आत्मसात कर सके। इसीलिए शिवाजी महाराज ने यह उत्सव आरंभ किया और स्वतंत्रता संघर्ष में समाज को संगठित करने के लिये लोकमान्य तिलक जी ने भी गणेशोत्सव आरंभ किया था।
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