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राजा चक्रधर सिंह और रायगढ़ का गणेशोत्सव

01 जनवरी 1948 को पांच देशी रियासतों क्रमशः रायगढ़, सारंगढ़, धरमजयगढ़, जशपुर और सक्ती रियासतों को मिलाकर रायगढ़ जिला का निर्माण किया गया था। 1956 में राज्य पुनर्गठन के पश्चात् सक्ती और खरसिया तहसील के कुछ भाग बिलासपुर जिले में सम्मिलित कर दिये गये। रायगढ़ नगर के नाम पर जिले का नाम ‘रायगढ़‘ रखा गया है।

जिले के गठन के पूर्व रायगढ़ एक फ्यूडेटरी स्टेट की राजधानी था। फ्यूडेटरी स्टेटस गजेटियर के अनुसार रायगढ़ नाम की उत्पत्ति ‘‘राई‘‘ नामक एक कटिले वृक्ष की अधिकता के कारण हुआ माना जाता है। डॉ. रामकुमार बेहार के अनुसार ‘राय‘ अर्थात् ‘बड़ा जामुन‘ की अधिकता के कारण इसका नाम रायगढ़ पड़ा।

वर्तमान रायगढ़ जिले के उत्तर में जशपुर और सरगुजा जिला, दक्षिण में महासमुंद और बलोदाबाजार जिला, पूर्व में झारखंड प्रांत के रांची और उड़ीसा प्रांत के संबलपुर जिला, पश्चिम में और जांजगीर चांपा जिला स्थित है। रायगढ़ की पहचान यहां की सांस्कृतिक, साहित्यिक, संगीत और कत्थक नृत्य है।

यहां प्रतिवर्ष होने वाले चक्रधर समारोह से इसे आज पूरे देश में ख्याति मिली है। भारतेन्दु काल से लेकर आज तक यहां साहित्यकारों के द्वारा लेखन होता आ रहा है। यहां के संगीत प्रेमी और उत्कृष्ट रचनाकार राजा चक्रधरसिंह ने इसे पूरे देश में विख्यात कर दिया। सुप्रसिद्ध कवि शुकलाल पांडेय ने ‘छत्तीसगढ़ गौरव‘ में भी लिखा हैः-
महाराज हैं देव चक्रधर सिंह बड़भागी।
नृत्य वाद्य संगीत ग्रंथ रचना अनुरागी।
केलो सरितापुरी रायगढ़ की बन पायल।
बजती है अति मधुर मंद स्वर से प्रतिपल पल।
जल कल है, सुन्दर महल है निशि में विपुल द्युतिधवल।
है ग्राम रायगढ़ राज्य के, सुखी संपदा युत सकल ।।
गणेश मेला से चक्रधर समारोह तक:-
रायगढ़ में ‘‘गणेश मेले’’ की शुरूवात कब हुई इसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता। मुझे मेरे घर में रायगढ़ के राजा विश्वनाथ सिंह का 8 सितंबर 1918 को लिखा एक आमंत्रण पत्र माखनसाव के नाम मिला है जिसमें उन्होंने गणेश मेला उत्सव में सम्मिलित होने का अनुरोध किया गया है।

इस परम्परा का निर्वाह राजा भूपदेवसिंह भी करते रहे। पंडित मेदिनी प्रसाद पांडेय ने ‘गणपति उत्सव दर्पण‘ लिखा है। 20 पेज की इस प्रकाशित पुस्तिका में पांडेय जी ने गणेश उत्सव के अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों को छंदों में समेटने का प्रयास किया है।

गणेश चतुर्थी की तिथि तब स्थायी हो गयी जब कुंवर चक्रधरसिंह का जन्म गणेश चतुर्थी को हुआ। बालक चक्रधरसिंह के जन्म को चिरस्थायी बनाने के लिए ‘चक्रधर पुस्तक माला‘ के प्रकाशन की शुरूवात की थी। इस पुस्तक माला के अंतर्गत पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय के कुशल संपादन में पंडित अनंतराम पांडेय की रचनाओं का संग्रह ‘अनंत लेखावली‘ के रूप में नटवर प्रेस रायगढ़ से प्रकाशित किया गया था।

कहते हैं रायगढ़ रियासत के राजा जुझारसिंह ने अपने शौर्य और पराक्रम से राज्य को सुदृढ़ किया, राजा भूपदेवसिंह ने उसे श्री सम्पन्न किया और राजा चक्रधरसिंह ने उसे संगीत, कला, नृत्य और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में ख्याति दिलायी।

नान्हे महाराज से चक्रधर सिंह तक का सफर:-

दरअसल रायगढ़ दरबार को संगीत, नृत्य और कला के क्षेत्र में ख्याति यहां बरसों से आयोजित होने वाले गणेश मेला उत्सव में मिली। बाद में यह जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। क्योंकि इस दिन (19 अगस्त सन् 1905 को) रायगढ़ के आठवें राजा भूपदेवसिंह के द्वितीय पुत्र रत्न के रूप में चक्रधरसिंह का जन्म हुआ।

वे तीन भाई क्रमशः श्री नटवरसिंह, श्री चक्रधरसिंह और श्री बलभद्रसिंह थे। चक्रधरसिंह को सभी ‘‘नान्हे महाराज’’ कहते थे। उनका लालन पालन यहां के संगीतमय और साहित्यिक वातावरण में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा रायगढ़ के मोती महल में हुई। आठ वर्ष की आयु में सन् 1914 में उन्हें रायपुर के राजकुमार कालेज में दखिल कराया गया।

नौ वर्ष तक वहां के कड़े अनुशासन में विद्याध्ययन करने के बाद सन 1923 में प्रशासनिक ट्रेनिंग के लिए छिंदवाड़ा चले गये। कुशलता पूर्वक वहां की प्रशासनिक ट्रेनिंग पूरा करके रायगढ़ लौटने पर उनका विवाह बिंद्रानवागढ़ के जमींदार की बहन से हुआ। जिनके गर्भ से श्री ललित कुमार सिंह, श्री भानुप्रताप सिंह, मोहिनी देवी और गंधर्वकुमारी देवी का जन्म हुआ।

15 फरवरी 1924 को राजा नटवरसिंह की असामयिक मृत्यु हो गयी। चंूकि उनका कोई पुत्र नहीं था अतः रानी साहिबा ने चक्रधरसिंह को गोद ले लिया। इस प्रकार श्री चक्रधरसिंह रायगढ़ रियासत की गद्दी पर आसीन हुए। 04 मार्च सन् 1929 में सारंगढ़ के राजा जवाहरसिंह की पुत्री कुमारी बसन्तमाला से राजा चक्रधरसिंह का दूसरा विवाह हुआ जिसमें शिवरीनारायण के श्री आत्माराम साव सम्मिलित हुए। मैं उनका वंशज हंू और मुझे इस विवाह का निमंत्रण पत्र मेरे घर में मिला। उनके गर्भ से सन 1932 में कुंवर सुरेन्द्रकुमार सिंह का जन्म हुआ। उनकी मां का देहांत हो जाने पर राजा चक्रधरसिंह ने कवर्धा के राजा धर्मराजसिंह की बहन से तीसरा विवाह किया जिनसे कोई संतान नहीं हुआ।

नृत्य, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में:-

राजा बनने के बाद चक्रधरसिंह राजकीय कार्यो के अतिरिक्त अपना अधिकांश समय संगीत, नृत्य, कला और साहित्य साधना में व्यतीत करने लगे। वे एक उत्कृष्ट तबला वादक, कला पारखी और संगीत प्रमी थे। यही नहीं बल्कि वे एक अच्छे साहित्यकार भी थे। उन्होंने संगीत के कई अनमोल ग्रंथों, दर्जन भर साहित्यिक और उर्दू काव्य तथा उपन्यास की रचना की।

उनके दरबार में केवल कलारत्न ही नहीं बल्कि साहित्य रत्न भी थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री भगवतीचरण वर्मा, पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, श्री रामेश्वर शुक्ल ‘‘अंचल’’, डॉ. रामकुमार वर्मा और पं. जानकी बल्लभ शास्त्री को यहां अपनी साहित्यिक प्रतिभा दिखाने और पुरस्कृत होने का सौभाग्य मिला।

अंचल के अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार जिनमें पं. अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और ‘‘पद्मश्री’’ पं. मुकुटधर पांडेय आदि प्रमुख थे, ने यहां साहित्यिक वातावरण का सृजन किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र रायगढ़ दरबार में दीवान रहे। श्री आनंद मोहन बाजपेयी उनके निजी सचिव और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके पथ प्रदर्शक थे।

इनके सानिघ्य में राजा चक्रधर सिंह ने कई पुस्तकों की रचना की। उनमें बैरागढ़िया राजकुमार, अल्कापुरी और मायाचक्र (सभी उपन्यास), रम्यरास, रत्नहार, रत्नमंजूषा (सभी काव्य), काव्य कानन (ब्रज काव्य), जोशे फरहत और निगारे फरहत (उर्दू काव्य) आदि प्रमुख है। इसके अलावा नर्तन सर्वस्वम, तालतोयनिधि, रागरत्नमंजूषा और मुरजपरन पुष्पाकर आदि संगीत की अनमोल कृतियों का भी उन्होंने सृजन किया है।

संस्कृत, हिन्दी और उर्दू साहित्य में राजा चक्रधरसिंह का अवदान:-

रायगढ़ के राजा चक्रधरसिंह अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी और उर्दू भाषा साहित्य के जानकार ही नहीं बल्कि उसके उत्कृष्ट रचनाकार भी थे। वे हिन्दी में ‘‘चक्रप्रिया‘‘ और उर्दू में ‘‘फरहत‘‘ के नाम से रचना करते थे। ‘चक्रप्रिया‘ के नाम से उन्होंने बहुत सी सांगीत की रचनाओं का प्र्रणयन किया है। उनकी दो ठुमरियां देखिये:-
(1)स्थायी –
मोहे छेड़ो नाहि श्याम
गुजरिया मैं घर की अकेली। मोहे….
अंतरा
प्रेम की बतियां में नहीं जानत
दूर अजहुं मेरो धाम।। मोहे….
रात अंधेरी बादर घेरे
चक्रप्रिया से है काम।।
(2)स्थायी
मोरी गलिन कब एहो मोहन।।
अंतरा
बिरह घटा देखो घिर घिर आवत
कब मोहे दरश दिखैहो मोहन।। मोरी….
बिजली चमके जियरा लरजे
कब तक हरि कल पैंहो।। मोरी….
मो मन धीर धरत ना ‘चक्रप्रिया‘
सांची कहो कब ऐहो मोहन।। मोरी….

डॉ. बल्देव ने ‘रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव‘ में लिखा है- यथा नाम तथा रूपम् को चरितार्थ करने वाला संस्कृत काव्य है ‘‘रत्नहार‘‘ सचमुच काव्य रसिकों का कंठहार है। कोलकाता से संवत 1987 में प्रकाशित इस पुस्तक का प्रकाशन साहित्य समिति रायगढ़ ने किया है। इसमें संस्कृत के ख्यात-अख्यात् कवियों के 152 चुनिंदा श्लोक राजा चक्रधरसिंह द्वारा किये गये हैं।

उन्होंने लिखा है -‘जब मैं राजकुमार कालेज रायपुर में पढ़ रहा था, उसी समय से ही मुझे संस्कृत साहित्य से विशेष अनुराग हो चला था। संस्कृत काव्य काल की कितनी ही कोमल घड़ियां व्यतीत हुई थी। उन घड़ियों की मधुर स्मृति आज भी मेरे मानस पटल पर वर्तमान की भांति स्पष्ट रेखाओं में अंकित है। ‘रत्नहार‘ उसी मधुर स्मृति का स्मारक रूप है।‘

संस्कृत काव्य की विशेषता बताते हुए राजा चक्रधरसिंह लिखते हैं-‘भाव व्यंजना, शब्द विन्यास, पद लालित्य और कल्पना की उड़ान में संस्कृत कवि विश्व साहित्य में अपना विशेष सान रखते हैं। उपमाओं की छटा तो संस्कृत की निजी सम्पत्ति है है, उसकी गौरवपूर्ण सामग्री भी है।‘ कवियों की काव्य व्यंजना की विश्लेषण करते हुए उन्होंने लिखा है-‘नव कुसुमिता आम्र लतिका और प्रेमाकुल मलयानिल के प्रेम विनिमय का अनूठा अभिनय इन्हीं संस्कृत कवियों की आंखों में देखिए-
इयं संध्या दूरादहमुपगतो हन्त मलयात्। तवै कान्ते गेहे तरूणि।
वत नेष्यामि रजनीम्। समीरेणोक्तैवं नवकुसुमिताचूतलतिका।
घुनानमूर्द्धानं न हि नहि नहीत्येव कुरूते।।‘

राजा चक्रधरसिंह ने श्रृंगार रस के दुर्लभ उदाहर देकर अपनी श्रृंगारप्रियता का प्रदर्शन किया है। श्रृंगार के संयोग और विप्रलम्भ दोनों रूपों के अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत किया है। संस्कृत कवियों द्वारा नारी के रूप में चमत्कारपूर्ण वर्णन की भी उन्होंने प्रशंसा की है।

‘रत्नहार‘ में राजा साहब ने संस्कृत के श्लोकों का गद्यानुवाद न कर भावानुवाद किया है। वे लिखते हैं-‘गद्यानुवाद में न तो काव्य का रहस्यपूर्ण स्वर्गीय आनंद रह जाता है और न ही उसकी अनिर्वचनीय रस माधुरी। सूक्ष्म से सूक्ष्म कवितापूर्ण कल्पनाएं गद्य रूप में आते ही कथन मात्र सी रह जाती है।‘

उस काल में ब्रजभाषा की बढ़ती उपेक्षा से चिंतित रायगढ़ के राजा चक्रधरसिंह ने उनकी उत्कृष्ट रचनाधर्मिता के महत्व को बतलाने के लिए खड़ी बोली और पड़ी बोली (ब्रजभाषा) के पाठकों के लिए ‘‘काव्य कानन‘‘ ग्रंथ का प्रकाशन किया।

‘काव्य कानन‘ में पांच प्रकरण हैं। वे श्रृंगार के प्रकरण में नायिका के नख-शिख वर्णन, प्रेमांकुरण, विरह निवेदन, लज्जाशीलता, केलि भवन के रति रंग के विपरीत रति, विरह विहलता, षड् ऋतु वर्णन, प्रिय मिलन, संकेत स्थल, अभिसार और दूतियों की सहायता विषयक रचनाओं को बड़े यत्न के साथ काव्य कानन में रखा है। ‘आंख‘ के दो उदाहरण प्रस्तुत है:-
(1)अनियारे दीरघ दृगनि, किती न तरूनि समान।
वह चितवनि और कछु, जिहि बस होत सुजान।।
(2)अमिय हलाहल मद भरे, श्वेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।।

इसी प्रकार भौं, चितवन, चिबुक, तिल, पलकें, बिंदी, अधरोष्ठ के उदाहरण मिलते हैं। ‘काव्य कानन‘ में प्रसिद्ध कवियों के ऋतु वर्ण को विशेष रूप से सम्मिलित किया गया है। इससे संकलनकर्त्ता की प्रकृति सौंदर्यपरक रूचि का पता चलता है। देव, पद्माकर, सेनापति, बिहारी यहां छाये हुए हैं। यहां राधा कृष्ण की भक्ति विषयक शांत रस की सरिता बहती है:-
देव सबै सुखदायक संपत्ति, संपत्ति सोई जु दंपति जोरी।
दंपति दीपति प्रेम प्रतीति, प्रतीति की प्रीति सनेह निचोरी।
प्रीत तहां गुन रीति विचार, विचार की बानी सुधारस बोरी।
बानी की सार बखानो सिंगार, सिंगार को सार किसोर किसोरी।

‘काव्य कानन‘ में 1001 रचनाएं हैं जहां शताधिक ख्यात अख्यात कवियों की बानगी देखी जा सकती है, जिनमें कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, देव पद्माकर, सेनापति, मतिराम, ठाकुर, बोधा, आलम, नंददास, रसलीन, बिहारी, भूषण, घनानंद, रसखान, रत्नाकर, मीर, रधर आदि प्रमुख हैं।

‘‘रम्य रास‘‘ राजा चक्रधरसिंह की अक्षय कीर्ति का आधार है। यह श्रीमदभागवत के दशम स्कंध के रसााध्यायी के आधार पर लिखा गया उच्च कोटि का काव्य है। इसमें शिखरिणी छंद का सुंदर प्रयोग हुआ है। उन्हीं के शब्दों में-‘‘सुवंशस्था गाथा श्रुति मधुर लावे शिखरिणी।‘‘

डॉ. बल्देव लिखते हैं कि ‘रम्य रास‘ को पढ़ते हुए कभी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘‘सुरम्य रूप, रस राशि रंजिते। विचित्र वर्णा भरणे कहां गई‘‘ जैसी कविता का स्मरण हो आता है तो कभी हरिऔध की ‘‘रूपोद्यान प्रफुल्ल प्राय कलिका राकेन्दु बिंबानना‘‘ जैसी संस्कृत पदावली की याद आती है।

‘रम्य रास‘ 155 वंशस्थ वृत्त का खंडकाव्य है। आरंभ में मंगलाचरण दिया गया है और समापन में भगवान श्रीकृष्ण के पुनर्साक्षात्कार की कामना की गई है। एक छंद होने से इसका प्रवाह कहीं बाधित नहीं होता और आख्यान के निर्वहन में प्रयुक्त छंद समर्थ भी है। इसका वस्तु विन्यास भी सुसंगठित है।

डॉ. ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श‘ के अनुसार-‘मध्यप्रदेश में विंध्यप्रदेश के पच्चीसों राजाओं का उल्लेख मिलता है जिन्होंने उच्च कोटि की काव्य रचना की है। मध्य काल में इन नरेश कवियों ने भक्ति और रीति कालीन काव्यधारा को संतुष्ट किया है। इनमें रायगढ़ के कला मर्मज्ञ राजा चक्रधर सिंह का नाम अग्रगण्य है। वे आधुनिक युग के कवि, शायर और सुलेखक थे।‘ कवि के रूप में उनका ‘रम्यरास‘ जिसे वंशस्थ छंदों में लिखा गया है, आज भी लोगों के पास सुरक्षित है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला का सरस वर्णन किया गया है। इसमें खड़ी बोली के तत्सम शब्द प्रधान शैली में कविवर हरिओम जी की शैली का प्रभाव दिखाई देता है। पेश है इसकी एक बानगी:-
मुखेद की स्निग्ध, सुधा समेत थी
लिखी हुई विश्व विभूति सी लिए।
शरन्निशा सुन्दर सुन्दरी समा,
अभिन्न संयोग वियोग योगिनी।
विशुद्ध शांति स्फुट थी प्रभामयी
खड़ा हुआ उर्ध्व नभ प्रदेश में,
मृगांक रेखा वषु में प्रसार के
द्विजेश था कान-सा नरेश का।

वर्णवृंतों की शैली तत्सम प्रधान संस्कृत निष्ठ शब्दावली के प्रति राजा चक्रधरसिंह का बड़ा मोह था। उनकी भाषा में अलंकारिता थी:-
शशांक सा आन कांत शांत था,
निरभ्र आकाश समान देह थी
शरन्निशा में लसते ब्रजेश
शरच्छय के नर मूर्तरूप से
सजे हुये थे शिखिपंख केश में
तड़ित्प्रभा सा पट पीत था लसा
गले लगी लगी थी वनमाल सोहतो
ब्रजेश वर्षा छविधाम थे बने।

डॉ. आदर्श राजा चक्रधरसिंह को द्विवेदी कालीन प्रमुख प्रबंध काव्य रचयिताओं में से एक माना है। उनकी रम्यरास नागपुर विश्वविद्यालय में एम. ए. के पाठ्यक्रम के लिए स्वीकृत है।

राजा चक्रधरसिंह ने हिन्दी और उर्दू में समान गति से रचना करते थे। उन्होंने चार उर्दू गजल की किताबें लिखी हैं जिसमें निगारे फरहत (1930), जोशे फरहत (1932) के अलावा इनाएत-ए-फरहत और नग्मा-ए-फरहत है। उनकी पहली दो पुस्तकें प्रकाशित हैं जबकि बाद की दोनों पुस्तकें अप्रकाशित। ‘जोशे फरहत‘ और ‘निगारे फरहत‘ लिखा है जो देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुआ है। ये दोनों गजल संग्रह है। ‘निगारे फरहत‘ की भूमिका हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि श्री भगवतीचरण वर्मा ने लिखी है। इसी प्रकार ‘जोशे फरहत‘ संवत् 1989 (सन 1932) में छपी है। इसमें 178 गजल संग्रहित है। देखिये खमसा का एक भाव:-
खालिक ने ये दिन हमको दिखाया है जो फरहत
आंखें में समा और समाया है जो फरहत
गुलशन का तमाशा नजर आया है जो फरहत
फिर मोस में गुलजोश पे आया है जो फरहत
क्योंकर वा अनादिल को ये मस्ताना बना दे।

उनकी गजलों में मुहावरेदारी और वंदिशा काबिले तारीफ है-
मिल के कतरा भी दरिया से दरिया बना
हक से बंदा भी मिला के खुदा हो गया।

एक गजल की चंद पंक्तियां भी पेश है:-
राजे दिल आज उनको सुनायें हम
राज उल्फत की उनको दिखाये हम
रूठ जायेंगे अगर वे मनाकर उन्हें
अपने पहलू में लाकर बिठायेंगे हम।

दरअसल राजा चक्रधरसिंह कौमी एकता के हिमायती थे। उन्हीं के शब्दों में ‘‘उर्दू और हिन्दी एक भाषा-एक ही जुबान के दो पहलू हैं। पंडितों ने उसी भाषा में संस्कृत के शब्द भरकर उसे हिन्दी का रूप दे डाला, मौलवियों और मुल्लाओं ने उसी जुबान में अरबी-फारसी के अल्फाज का जखीरा रखकर उसे उर्दू कहना शुरू कर दिया।‘‘ उनका कहना था कि पहले हिन्दी और उर्दू में तो कोई फर्क ही नहीं था। उन्होंने मीर खुसरो और कबीर का उदाहरण देकर इस तथ्य की समणने का प्रयास किया है:-
बीसों का सिर काट लिया। ना मारा ना खून किया।
-खुसरो
कबीर इश्क की माता दुई को दूर दिल से
जो चलना राह नाजुक है हम ना सिर को बोझ भारी क्या।
-कबीर

राजा चक्रधरसिंह मात्र कवि या शायर नहीं थे बल्कि वे साहित्य के एक चिंतक भी थे। उनका चिंतन परंपरा से हटकर नहीं है। यहां भारतीय और अरबी-फारसी के दर्शन एक बिंदु में मिलते दिखाई देते हैं। ‘‘उर्दू शायरी की सबसे बड़ी विशेषता है, बुतपरस्ती‘‘ बुतपरस्ती यहां सौंदर्योंपासना के लिए प्रयुक्त हुआ है।

सवाल यह उठता है कि सौंदर्य की उपासना माशूकी की या परम तत्व की या दोनों की है ? राजा साहब के शब्दों में-‘इश्क हकीकी में, ईश्वर प्रेम में ठीक यही होता है अर्थात् लौकिक प्रेम में जैसा होता है। कौन कह सकता है कि इस बुतपरस्ती में बजाय इश्क हकीकी एकदम इश्कमिजाजी का, सांसारिक प्रेम की चर्चा है। क्या सूरदास ने श्रृंगार की ओट में भक्ति नहीं बतलाई है ? क्या मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत में सिर्फ राजा रानी के प्रेम की बात ही लिखनी चाही थी ? क्या कबीर दास ने ‘खेललेनहेरवा दिन चार‘ में सिर्फ एक नई नवेली नायिका को ही नसीहत देने का इरादा किया था ?

उर्दू शायरों ने शमा और परवाना, गुल और बुलबुल, कातिल और मकतूल, मर्ज और गौर की बातों को बहुत पसंद किया है, तो तुलसी ने चातक की। राजा साहब ने उर्दू की बड़ी विशेषता बतलाई है, मुहावरेदारी जो उस्तादों के हजारों वर्षो के अनुभव से शब्दगत होता है। ‘जोशे फरहत‘ में दोनों ही विशेषताएं दिखाई देती है।

इश्क हकीकी का एक उदाहरण देखिये:-
उलझ क्यों रहा ओस की बूंद पर है
उधर देख खूबी का दरिया जिधर है
भटकता है नाहक ही दैरो-हरम में
नजारा उसी का ये पेशे नजर है
उसी के सहारे टिका आसमां है
उसी के उजाले में रौशन कमर है
समा जाय वहशत का नख्शा कुछ ऐसा
न आए नजर बुत किधर रब किधर है।

इश्क मिजाजी का दूसरा उदाहरण पेश है:-
नजर आ गया रूए जेबा किसी का
समाया है आंखों में जलवा किसी का
जो उसके जुल्फे पेंचों का मारा हुआ है
न ही उसके सर है सौदा किसी का
बुतों में भी है ढूंढता हूँ खुदा को
मेरा दिल नहीं और जोया किसी का
तू अपनी खबर ले मेरा क्या है जाहिद
बला से तेरी मैं हूँ बंदा किसी का
गिरती है बस बिजलियां दिल के उपर
निगर फेर कर मुस्कुराना किसी का
मेरा नाम है इश्कबाजों में फरहत
बनाया है किस्मत ने शैदा किसी का।

‘‘निगारे फरहत‘‘ उर्दू गजलों का संग्रह है। उर्दू का छंद भंडार बहुत कम है इसलिए यहां गजल को ही प्राथमिकता दी जाती है। गजल बहुत नाजुक विधा है परन्तु फैज अहमद फैज, फिराक गोरखपुरी आदि ने उसे वैचारिक स्वरूप दिया। राजा चक्रधरसिंह पुरानी संस्कृति परही कायम रहे अर्थात् उनकी गजलें माशूका और जाम तक ही सीमित हैं, हालांकि उसमें कहीं कहीं इश्क हकीकी की भी झलक है। एक शेर पेश है:-
मिल के कतरा भी दरिया से दरिया बना
हक से बन्दा भी मिल के खुदा हो गया।
जरा उनकी तिरछी नजर हो गई
इधर की खुदाई उधर हो गई।

माशूक के प्रति लगाव सीमातीत होता है, अर्ज है-
डर है उसे कि मुझे सीने से लगा न ले
मेरे गले में रहता है खंजर अलग अलग
डर है माशूक बिंध न जाए।

यहां माशूक के युवा सौंदर्य का पर्याय है,उसका हृदय से लगाना प्रलय है लेकिन बागों में बहार पतझर बन कर आती है –
कयामत है लगाना दिल हसीनों से जवां होकर
बहारे बारा हस्ती रंग लाती है खिजां होकर।

राजा चक्रधरसिंह आज हमारे बीच नहीं है न राजशाही का जमाना है। बस उनकी एक ही तमन्ना थी –
न जिंदगी में कभी बात तुमने की फरहत
मजार पर मेरे दो फूल क्यों चढ़ा के चले ?

‘‘बैरागढ़िया राजकुमार‘‘ राजा चक्रधरसिंह का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। रायगढ़ के दीवान और लोकप्रिय साहित्यकार डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र ने उसका नाट्य रूपांतरण कर उसे और भी लोकप्रिय बना दिया था। उपन्यास के बारे में राजा चक्रधरसिंह लिखते हैं-‘जिस समय मैं रायपुर के राजकुमार कालेज का विद्यार्थी था, उसी समय मुझे साहित्य और संगीत में रूचि हो गई थी। ईश्वर की कृपा से यह रूचि उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। कालेज से निकलकर शासन सम्बंधी शिक्षा प्राप्त करने के लिए मैं कुछ दिनों तक छिंदवाड़ा में आनरेरी असिस्टेंट कमिश्नर का काम करता रहा। सरकारी काम से अवकाश मिलने पर मैं वहां अनुकूल जल, पवन और सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाता हुआ अपनी प्रिय रानी के साथ साहित्य सम्बंधी चर्चा किया करता था।‘ यहीं रानी की प्रेरणा से उन्हें उपन्यास लिखने की प्रेरणा मिली।

छिंदवाड़ा की प्राकृतिक सुषमा के बीच वे अपनी सुखद स्मृति को सदैव के लिए स्थिर कर देना चाहते थे। उन्होंने अपने ही अंधकारमय अतीत में घुसकर राजकुमार बैरागढ़िया से आत्म साक्षात्कार किया जो उनके पूर्व पुरूष थे। उनके अनुसार जिस जाति का कोई इतिहास ही नहीं वह भविष्य में कहां तक स्थिरता प्राप्त कर सकता है? यही सोचकर मैंने अपना कर्त्तव्य समझा कि यदि मैं कोई कथा लिखू तो अपने ही प्राचीन गौरव की कथा लिखूं। मेरे पूर्वज इन्हीं राजकुमार के वंश में उत्पन्न हुए। ऐतिहासिक घटनाओं के लिए कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं होने पर राजा साहब ने इस उपन्यास का कलेवर किंवदंतियों के आधार पर तय किया है। यही कारण है कि इस उपन्यास में यथार्थ कम, कल्पना की उड़ानें अधिक हैं।

राजा चक्रधरसिंह के कुशल निर्देशन में यहां के अनेक बाल कलाकारों को संगीत, नृत्यकला और तबला वादन की शिक्षा मिली और वे देश विदेश में रायगढ दरबार की ख्याति को फैलाये। इनमें कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल की जोड़ी ने कत्थक के क्षेत्र में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे देश में फैलाये। निश्चित रूप से ‘‘रायगढ़ कत्थक घराना’’ के निर्माण में इन कलाकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

राजा चक्रधरसिंह स्वयं एक उत्कृष्ट तबला और सितार वादक तथा विलक्षण ताण्डव नर्तक थे। संगीत, नृत्य कला और साहित्य के आयोजन में उन्होंने अपार धनराशि खर्च की जिसके कारण उन्हें ‘‘कोर्ट ऑफ वार्ड्स‘‘ के अधीन रहना पड़ा। अनेक संगीत सम्मेलनों, साहित्यिक समितियों और कला मंडलियों को वे गुप्त दान दिया करते थे। सन् 1936 और 1939 में इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन के वे सभापति चुने गये थे।

लखनऊ में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में दतिया के नरेश ने राजा चक्रधरसिंह को ‘‘संगीत सम्राट‘‘ की उपाधि से सम्मानित किया था। ऐसे कला साधक राजा चक्रधरसिंह का 7 अक्टूबर 1947 को अल्पायु में निधन हो गया। उनके निधन से एक चकमता सितारा डूब गया। लेकिन जब जब संगीत, नृत्यकला और साहित्य की चर्चा होगी तब तब उन्हें याद किया जायेगा।

आलेख

प्रो (डॉ) अश्विनी केसरवानी, चांपा, छत्तीसगढ़

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