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काकतीय वंश की कुलदेवी मां दंतेश्वरी

बस्तर का दंतेवाड़ा जहां विराजमान है काकतीय राजवंश की कुलदेवी मां दंतेश्वरी। डकनी, शंखनी और धनकिनी नदी संगम तट पर माता का मंदिर अपनी पारंपरिक शैली में बना है वनवासियों की आराध्या दंतेश्वरी माई के दरबार से बस्तर के हर तीज-त्यौहार और उत्सव प्रारंभ होते हैं। अपनी समृद्ध वास्तु कला, मूर्तिकला को लिए, परंपरागत जीवन्त त्यौहार को समेटे हुए है माई का मंदिर। समूचे बस्तर के आध्यात्मिक केंद्र के रूप में यह मंदिर स्थापित है। जहां पर नलयुग से लेकर छिंदक नागवंशी काल की स्थापत्य कला का वैभव बिखरा पड़ा है।

मंदिर निर्माण की कथा-

प्राचीन मान्यतानुसार सती का दांत यहां गिरा था जिसके अनुसार यहां मां दंतेश्वरी मंदिर विराजी। एक शिलालेख में ‘दंता वाला देवी जयति’ प्रथम पंक्ति में उत्कीर्ण है। प्राचीन काल में दंतेश्वरी माई ‘दंतावला देवी के नाम से प्रसिद्ध थी, देवी के नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसा।

दंतेवाड़ा में माता का मंदिर कब कैसे बना इस संबंध में कई किंवदंतियों प्रचलित हैं। ऐसा माना जाता है कि काकतीय वंश के राजा अन्नम देव को कुलदेवी ने स्वप्न देकर कहा कि मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन घोड़े में बैठकर तुम अपनी विजय यात्रा प्रारंभ करो। जहां तक तुम जाओगे वहां तक तुम्हारा राज्य फैल जाएगा।

दंतेश्वरी माता

देवी ने कहा कि उसकी रक्षा के लिए सेना के पीछे चलेंगी लेकिन मुझे मुड़कर नहीं देखना जहां तुम पीछे देखोगे मैं वहीं रुक जाऊंगी। देवी के आदेश के साथ राजा ने अपनी यात्रा प्रारंभ की। डंकिनी-शंखनी नदी संगम पर रेत में देवी के पैरों के घुंघरूओं की आवाज थम गई। राजा ने मुड़कर देखा और अपने कथनानुसार देवी संगम तट में स्थिर हो गई।

डंकिनी -शंखनी संगम की ओर जाने वाली एक पगडंडी के किनारे चट्टान पर पैरों के चिन्ह चिन्ह अंकित हैं कहा जाता है कि यह माई के पैरों की छाप है।

मंदिर की आधारशिला

राजा अन्नम देव ने तारला गांव में माई दंतेश्वरी का मंदिर लगभग 850 साल पहले बनवाया, देवी के नाम पर गांव का नामकरण दंतेवाड़ा हुआ। 1932 33 में मंदिर का जीर्णोद्धार बस्तर की महारानी प्रफुल्ल कुमार देवी ने कराया।

मंदिर 32 काष्ठ स्तंभों पर विस्तृत महामंडप है। मुख्य द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह काले पत्थर से निर्मित हैं। काष्ठ स्तंभों और खपरैल की छत वाले मंदिर के प्रांगण में गरुड़ स्तंभ है। मंदिर के बरामदे को पार करने के साथ महा मंडप है। जिनमें से एक भैरव महा मंडप है जहां भैरव विराजमान हैं। महा मंडप के बाद मुख्य मंडप है जहां अनेक देवी-देवताओं की कलात्मक मूर्तियां हैं। मूर्तियों में शिव पार्वती, लक्ष्मी देवी, बंजारिन देवी एवं गणेश की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। गणेश जी की विशाल भव्य मूर्ति सहज आकर्षित करती है। मुख्य मंडप में ही भैरव -भैरवी की मूर्ति के साथ ही भैरवी चक्र भी बना हुआ है।

मुख्य मंडप से अंतरालय में प्रवेश करने के पूर्व दो द्वारपाल की आदमकद मूर्तियां हैं यहांअनेक मूर्तियां हैं। गर्भ गृह में प्रवेश द्वार तक दोनों ओर अनेक मूर्तियां हैं जिसमें कुछ मूर्तियां उपासना की मुद्रा में हैं। मंदिर की बनावट और मूर्तियों में दक्षिण भारत की शिल्प कला का प्रभाव परिलक्षित होता है।

मुख्य मंडप दंतेश्वरी मंदिर

गर्भगृह में मां दंतेश्वरी की षट्भुजी काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशूल और बाएं हाथ में घंटी ,पद्म और राक्षस का सिर पकड़े हुए हैं। माता के सिर के ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार रूप धारण किए हुए हैं। नरसिंह द्वारा हिरण्यकश्यप का वध करते हुए यहां प्रदर्शित हैं। माई के विशाल ललाट पर तिलक की भांति तीसरा नेत्र दृष्टिगोचर होता है। परंपरागत वेशभूषा और आभूषणों से अलंकृत है माई का सुंदर विग्रह जिनके दर्शन पाकर धन्य हो उठते भक्तगण।

देवी मंदिर से जुड़े पर्व उत्सव

बस्तर के पर्व और उत्सव माई दंतेश्वरी मंदिर से ही शुरू होते हैं। बस्तर का दशहरा विश्व प्रसिद्ध है जो लगभग 52 दिनों में संपन्न होता है ।वसंत ऋतु में दंतेवाड़ा की फागुन मड़ई मां दंतेश्वरी देवी की छत्रछाया में संपन्न होती है ।फागुन मडई में 200 गांव की गुड़ी के देवी -देवता एक ही स्थान पर आकर विराजते हैं। मडई का आयोजन फागुन शुक्ल पंचमी से प्रारंभ होकर चतुर्दशी तक होता है। वसंत ऋतु की मादकता में बस्तर का लोक जीवन मड़ई में थिरक उठता है। ऐसे में अपने आराध्या की भक्ति से ओतप्रोत, लोक नृत्य के साथ जीवन के उत्साह को नए नए रंग देते दिखते हैं बस्तर के वनवासी।

पूजा-अर्चना-

माता दंतेश्वरी और भुनेश्वरी देवी की आरती व भोग एक ही साथ लगता है। चैत्र व शारदीय नवरात्रि पर माता के दर्शन के लिए भक्तों की भीड़ लग जाती है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए धोती या लूंगी पहनना अनिवार्य है।

काष्ठ निर्मित दंतेश्वरी मंदिर का बाहरी दृश्य

देवी मंदिर में नरबलि प्रथा के कुछ तथ्य मिलते हैं। ‘जैपोर रियासत की पुलिस ने यह आरोप लगाया कि बस्तर की सरकार दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी के सम्मुख बलि देने हेतु आदिवासियों को पकड़वा मंगाती है ।यह आरोप भोंसले आधिपत्य के समय भी लगाए गए थे। इसके परिणाम स्वरूप 1842 में लाल दल गंजन सिंह को नागपुर बुलाकर जांच पड़ताल की गई थी तथा नागपुर राज्य का पुलिस गार्ड दंतेश्वरी मंदिर में लगा दिया गया था ताकि वह मानव बलि रोकी जा सके।(इंन्द़वती पृष्ठ २९-३०)

चतुर्भुज भैरव के चार स्वरूप

वट और पीपल वृक्ष के नीचे भैरव की चार प्रतिमाएं हैं। पद्मासन सहित ध्यानावस्था में बैठे वन भैरव हैं जिनके सिर पर देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं।वन भैरव के आजू-बाजू जटा भैरव,गदा भैरव और तांडव भैरव हैं। जटा भैरव पद्मासन में बैठे ध्यान मग्न हैं जो सर्पों की छत्रछाया में विराजे हैं। तांडव भैरव भी सर्पों की छत्रछाया में तांडव नृत्य मुद्रा में है। गदा भैरव खड़े हुए हैं । सभी भैरव चतुर्भुजी हैं जनके हाथों में डमरू, त्रिशूल,खड्ग और दीपक हैं।

भैरव मंदिर के सामने द्वारपालों की मूर्तियां हैं। भैरव बाबा की सवारी के रूप में दो घोड़ों की मूर्तियां यहां है। यहीं भैरवी चक्र बना हुआ है।

मंदिर प्रांगण के वट वृक्ष के नीचे विशाल नारी प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में है,इस भग्न मूर्ति के एक हाथ में तलवार है। स्थानीय लोग इन्हें ग्वालिन माता कहते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह काली का एक रूप है।

भैरव बाबा का साम्राज्य-

दंतेवाड़ा में शंखनी नदी को पार करने के बाद भैरव बाबा का साम्राज्य दृष्टिगोचर होता है। तुण्डाल भैरव जो किंवदंतियों में कामदेव के प्रतीक कहे जाते हैं। कोसम वृक्ष के नीचे बने मंदिर में विराजे हैं भैरव देव। वृत्ताकार गुंबद प्राचीन वास्तुकला का सुंदर नमूना का मंदिर जो अब खंडहर में तब्दील हो गया है।

तुण्डाल भैरव की विशाल प्रतिमा काले पत्थर से निर्मित नर मुंडो की माला से सुशोभित है माला घुटनों तक लटकी हुई है।पूर्वा विमुख चारभुजा प्रतिमा के एक हाथ में डमरू दूसरे हाथ में खड्ग तीसरे में त्रिशूल और चौथे हाथ में दीपक धारण किए हुए नृत्य की मुद्रा में है। जिनके पैरों के नीचे एक व्यक्ति दबा हुआ है। यह स्थान तंत्र साधना स्थली रहा होगा। जहां 1833 तक नरबलि होती रही थी।

डंकनी नदी

मंदिर के बाहर कोसम वृक्ष के नीचे एक अष्टभुजी प्रतिमा है। जिसका एक हाथ क्षतिग्रस्त हो गया है जो एक पैर से भैंस को दबाए हुए देवी महिषासुर की यह मूर्ति प्रतीत होती है।

यहीं पर ग्रामीणों के बीच गंगा मावली देवी पूजित है। चार भुजाओं वाली देवी प्रतिमा का एक हाथ खंडित हो चुका है। स्थानीय जन श्रद्धा के साथ वृक्ष के पत्ते देवी को अर्पित करते हैं। ग्रामीण इन्हें डाल खाई माता के नाम से भी जानते हैं।

महादेव का साम्राज्य-

भैरव मंदिर के आसपास पगडंडियों के किनारे अनेकों शिवलिंग है। प्राचीन काल में जो महादेव के मंदिर रहे होंगे, जो अब नहीं दिखते। भैरव की उपासना परंपरा अति प्राचीन रही है जो शैल परंपरा की देन है। दक्षिण में लिंगायतो का विशेष प्रभाव रहा है। इस संदर्भ में खोज और अनुसंधान के बाद ऐसे तथ्य सामने आ सकते हैं।

पहुंच मार्ग-

दंतेवाड़ा जगदलपुर से 65 किलोमीटर दूर सड़क मार्ग पर है। रायपुर से दंतेवाड़ा 379 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। जहां से किरंदुल ,बचेली भोपालपटनम की बसें नियमित रूप से चलती हैं। डंकिनी शंखनी नदी के संगम तट पर दंतेवाड़ा का मंदिर स्थापित है जहां कभी भी जाया जा सकता है यहां ठहरने की भी उत्तम व्यवस्था यहां पर है। छत्तीसगढ़ पर्यटन विभाग से संपर्क करके यहां ठहरने की उचित व्यवस्था की जा सकती है।

आलेख

श्री रविन्द्र गिन्नौरे
भाटापारा, छतीसगढ़

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