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क्या बस्तर की वनवासी संस्कृति में पुनर्जन्म को मान्यता है?

बस्तर के वनवासियों की पहचान उनकी अद्भुत अलौकिक संस्कृति और मान्य परम्परायें हैं। जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होकर यहाँ तक पहुँची है। भारतीय दर्शन की तरह आदिवासी समाज की भी मान्यता है कि पुनर्जन्म होता है। मृत्यु, सत्य और अटल है, जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु होती है। शरीर का विनाश होता है, जीव अविनाशी है, वह अजर-अमर है। जिस तरह हमारा शरीर पाँच तत्वों से बना है, उसी तरह वनवासी समाज भी मानता है कि उसकी काया माटी से बनी है और उसे एक दिन माटी में मिल जाना है। आदिम समाज में मृत्यु के बाद शव को दफनाया जाता है, इसके पीछे उसका मानना है कि “तेरा तुझको अर्पण” मिट्टी से बने शरीर को मिट्टी में अर्पित करना। जीव नहीं मरता वह चोला बदल कर फिर से जन्म लेता है। वनवासी समाज की मान्यता के अनुसार जीव फिर से उसके कुल में जन्म लेगा और वनवासी समाज उसकी पहचान भी कर लेता है। इसका अर्थ हुआ कि वनवासी समाज भी पुनर्जन्म पर विश्वास करता है। यह उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक किये जाने वाले रीति रिवाज और परम्पराओं के निर्वहन से स्पष्ट होता है।

बस्तर के वनवासी समाज में मृत्यु को बहुत ही सहज ढ़ंग से लिया जाता है, क्योंकि उनका मानना है कि जिस किसी की भी मृत्यु होती है, वह उनके ही कुल में अवश्य जन्म लेगा। इसलिए मृत्यु पर ज्यादा शोक मनाने का रिवाज नहीं है।

मृत्यु होने पर अपने सभी सगा सम्बन्धियों को सूचना देते हैं और सूचना मिलने के बाद बगैर एक पल गँवायें सब सगा-सम्बन्धी आने लगते हैं। जो रिश्वतेदार गाँव में रहते हैं, वे पहले पहुँचकर घर के लोगों को सम्हालने का काम करतें हैं तथा बाहर से आने वाले सगा-सम्बंधियों की उचित व्यवस्था करते हैं। सगा का अर्थ विषम गोत्रीय अर्थात मृतक परिवार से जिस घर में लड़कियाँ गई है, और जिस घर से लड़कियाँ उस परिवार में बहु बनकर आई हैं, वे सगा कहलाते हैं। सम्बन्धियों से तात्पर्य है कि मृतक परिवार से जिनका रिश्ता भाई-भाई का होता है। सगा अपने साथ चावल-दाल और राब लेकर आते हैं, अपने सगा के लिये जो सम्बन्धी होते हैं, उनके द्वारा शराब की व्यवस्था की जाती है। पुरूष वर्ग घर के बाहर बैठकर दोनों पक्ष से लाये शराब का सेवन करते हैं और क्रियाकर्म से सम्बन्धित वार्तालाप करते है। महिलायें शव के पास बैठकर मृत्यु गीत (आना पाटा) गाती हैं, बीच-बीच में उन्हे शराब परोसी जाती है।

यह समय मृतक परिवार में दाह संस्कार की तैयारी और उनके रिश्वतेदारों के आने की, बाट देखने का होता है। महिला वर्ग इस समय मृत्यु गीत गाती हैं, जिसे गोण्ड़ी बोली में आना पाटा कहा जाता है। आदिम संस्कृति के हर रीति रिवाज के लिए अलग-अलग पाटा अर्थात गीत होते हैं, जिसे महिलायें गाती हैं। गीत गायन के समय महिलायें दो भागों में बँटी हुई होती हैं, एक खेमा सम गोत्रीय महिलाओं का होता है और दूसरा खेमा विषम गोत्रीय महिलाओं का होता है। आना पाटा में एक पक्ष गीत में जो कहता है, दूसरा पक्ष उसका जवाब देता है। इन गीतों में एक पक्ष नदी, पहाड़, जंगल को मृतक से जोड़कर दूसरे पक्ष के सामने रखता है, उसका जवाब दूसरा पक्ष मृतक से जोड़कर प्रस्तुत करता है। इस गायन के बीच-बीच में जो महिलायें आती हैं, वे रूदन भी करती हैं, जिन्हें कुछ देर रो लेने के बाद चुप करा दिया जाता है। जो बाद में उस गायन समूह का हिस्सा बन कर पाटा (गीत) गाने लगती हैं। किसी भी व्यक्ति की मृत्यु एक आकस्मिक घटना होती है, इसलिये यहाँ आने वाली महिलायें अपने अपने घर से पान (पत्ते) लाती हैं जिसका दोना पत्तल गीत गाते हुये बनाती हैं।

जिस समय महिलायें गीत गा रही होती हैं उस समय पुरूष मृत्यु के कारणों पर विचार कर रहे होते है। स्वभाविक मौत में ज्यादा विचार नहीं किया जाता पर यदि मृतक की मृत्यु किसी लम्बी बीमारी या फिर दुर्घटना से होती है, तब उसे जलाया जाता है। जनजातीय समाज की इसके पीछे यह मान्यता है कि बीमारी के साथ दफनाये जाने पर जब वह पुनर्जन्म लेगा तब असाध्य बीमारी के साथ वह फिर से उसके कुल में आयेगा, इसी तरह यदि दुर्घटना से मृत्यु होने पर शरीर में हुई क्षति से जन्म लेने वाले जातक अपंग और कुरूप जन्म लेगा,  इसलिए ऐसी मृत्यु पर व को दफनाने की बजाय जलाने की परम्परा है। जब पुरूष वर्ग यह विचार कर लेता है तब महिलाओं को सूचना दी जाती है कि शव को जलाया जायेगा तब वे जो गीत (आना पाटा) गा रही होती हैं,  उसके बदले में “लेसींगना पाटा” गाती हैं, जिसका अर्थ हल्बी में “भूलकनी गीद” हिन्दी में भटकाव गीत होता है। इस गीत में मृत आत्मा को पेड़, पौधे, पहाड़, नदी आदि से होकर किसी अन्य स्थान पर जाने का निवेदन किया जाता है। आदिवासी समाज ऐसे मृतक को आदिवासी समाज से दूसरी योनि में जाने का निवेदन किया जाता है।

वनवासी समाज को अस्वभाविक मौत विचलित कर देता है, वह इसे अपने देवताओं की नाराजगी से जोड़कर देखता है और तरह-तरह के उपाय करता है। प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मृत्यु को वह अस्वाभाविक मानता है। पूरा समाज और गाँव इस मृत्यु पर आशंकित हो जाता है।

वनवासी समाज मानता है कि अल्प काल में हुई इस मृत्यु में मृतकों की इच्छा अधूरी रह गई होगी जिसे पूरा करने के लिए उसे दूसरी योनि में जाना होगा और यह प्रेत योनी होती है, जो समाज पर बुरा प्रभाव डालती है। ऐसी घटना होने से रिश्तेदारों के अलावा उन जानकार लोगों को भी सूचना दी जाती है, जो तांत्रिक क्रिया से बन्धन करना जानते हैं। वे आकर सबसे पहले मृतिका के पेट के ऊपर एक लोहे का टुकड़ा रखते है और क्रियाक्रम जल्दी करने को कहते है। सगा-सम्बन्धी को जल्दी आने की सूचना दी जाती है, ऐसे अवसर पर महिलायें पहले से ही जमा होकर आना पाटा (मृत्यु गीत) की बजाय लेसींगना पाटा (भटकाव गीत) गाती हैं। ऐसे व को जलाया नहीं जाता बल्कि दफनाया ही जाता है, ताकि वह जानकार व्यक्ति जिसे गुनिया कहा जाता है, उस स्थान को अपने तंत्र क्रिया से बन्धन कर दे ताकि अप्रिय स्थिति उत्पन्न न हो सके।

बस्तर के वनवासी समाज में ही नही अपितु अन्य समाज में भी प्रसव के दौरान हुई जच्चा-बच्चा की मृत्यु को भयानक माना जाता है। बस्तर के सम्पूर्ण क्षेत्र में ऐसी मान्यता है कि इस प्रकार से होने वाली मौत में मृतकों की आत्मा अतृप्त होती है और यदि ठीक ढंग से उपाय नहीं किया गया तो उन आत्माओं के जागृत होने की पूरी सम्भावना होती है। यह मान्यता छत्तीससगढ़ में भी है। आत्मा जागृत होने को छत्तीसगढ़ में “परेतनिन उलटना,” हल्बी में “चूरलहिन उलटना” और गोंडी में “खोते मुते होना” कहा जाता है। इस तरह की घटना सभी वर्ग को विचलित कर देती है और एक अनजाने भय से सभी भयभीत होते हैं। इसके लिये तरह-तरह से उपाय किया जाता है। जानकार व्यक्ति गाँव में नहीं होने से ऐसे लोगों को दूसरे गाँव से भी बुलाया जाता है और दफनाने वाले स्थान का बन्धन किया जाता है। दफनाने के बाद कुछ दिन इन्तजार कर यह देखा जाता है कि वे आत्माएँ बन्धन करने के बाद शान्त हुई या नहीं, यदि शान्त नहीं हुई तो किसी अनहोनी होने के पूर्व फिर से उपाय किया जाता है। ऐसे मामलों में  वनवासी समाज पूर्ण सावधानी रखता है और सब तरह से उपाय करता है।

 वनवासी समाज मानता है कि जिसकी भी मृत्यु हुई है, उसे उसके ही खानदान में जन्म लेना है, इसलिये वह मृत्यु के कारण का पता लगाता है। जब किसी व्यक्ति की मौत अचानक हो जाती है तब यह अनुमान लगाने में देर नहीं की जाती कि जरूर जादू-टोना किये जाने से इसकी मृत्यु हुई है।

इस व्यक्ति की भी जिसने जादू-टोना किया उसकी पहचान श्मशान जाने के पहले कर ली जाती है। कभी-कभी लड़ाई-झगड़े की भी अप्रिय स्थिति बन जाती है। मृतक परिवार के लोग उस व्यक्ति के साथ झगड़ा कर लेते हैं, जिस पर जादू-टोना का शक होता है। यह जानकारी मिल जाने के बाद कि मृत्यु स्वभाविक नहीं है, तब गाँव के सिरहा, गुनिया, गांयता और पुजारी दूर बैठ कर अपनी शक्ति का आह्वान करते हैं जैसे ही व यात्रा प्रारंभ होती है, वे उस जनाजे को इंगित करके कहते हैं कि उस व्यक्ति के पास जाओ जिसने तुम्हारे साथ गलत किया है, तब आश्चर्य होता है कि जनाजा उस व्यक्ति के पास जाकर रूक जाता है। यह प्रक्रिया दो से तीन बार दुहराई जाती है, जब बार-बार जनाजा एक ही व्यक्ति के पास जाकर रूकता है तब मान लिया जाता है कि मृत्यु के पीछे उस आदमी का हाथ है।

इन सब प्रक्रियायों को करने के पीछे  वनवासी समाज की मान्यता है कि मृतक व्यक्ति ने अपने जीवन काल में जिन लोगों से अदावत की है, या जिन लोगों ने उसके साथ किसी प्रकार की दुश्मनी रखी है, उसे मृत्यु के बाद समाप्त कर देना है। यह अदावत उसके शरीर के साथ ही खत्म हो जाये और मृतक का पुनर्जन्म हो तो उसका पूर्व जन्म से कोई लेना-देना न हो। इसके साथ ही मृतक ने अपने जीवन में अपनी इच्छा पूर्ति के लिए मनौती मानी थी या उसके परिवार के लोगों ने उसकी बीमारी के ठीक होने के लिये किये गये कराड़ (वचन देना) को माफ कराना भी शामिल होता है। इसके लिये उसे दफनाने के बाद गांयता, सिरहा, पुजारी द्वारा अपने इष्ट देवता, ग्राम देवता से प्रार्थना करते हैं कि “हे देव माटी से बनी मृतक की इस काया को माटी में अर्पित कर दिये हैं इसके जीव के ऊपर किसी प्रकार का कोई कर्ज हो तो उसे माफ कर देना” कहकर आदन (साजा) की लकड़ी तोड़ कर पूर्व दिशा में फेका जाता है, इसे “किटका तोड़ना” कहते है। यहाँ मृतक के लिये भोजन रखा जाता है शराब का तर्पण किया जाता है और उस स्थान से थोड़ा चावल लाकर उसी दिन “नुकांग अड़का  में डुमा देव के रूप में स्थापित किया जाता है। नुकांग अड़का चावल हण्डी को कहते हैं जिसे प्रत्येक आदिवासी परिवार के लोग एक पवित्र कमरे में रखे होते हैं, जिसमे उनके डुमा देव (पितृ देव) स्थापित होते हैं।

इसके ठीक तीन दिन बाद मृतक परिवार का शुद्धिकरण के दिन दफनाये गये स्थान पर एक मठ (मृत्यु स्तम्भ) का निर्माण किया जाता है, ताकि मिट्टी के अन्दर व सुरक्षित रहे। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि मृत आत्मा को उसके ही कुल में जन्म लेना है, इसलिए उसका रूप रंग ठीक रहे। आदिवासी समाज में मृत लोगों की याद को चिर स्थाई बनाने के लिए गांयता पखना (मृत्यु स्तम्भ) गाड़ने की परम्परा है। एक खानदान के लोगों का या एक गोत्र विशेष का गांयता पखना एक स्थान पर गाड़ा जाता है। यह एक वृहत आयोजन होता है जो आठ-दस वर्ष में किया जाता है। इसके लिये उनके गोत्र के लोगों को जो दूसरे गाँव में रहते हैं, उन्हें भी सूचना दी जाती है और इन वर्षों में उस गोत्र में जिनकी भी मृत्यु होती है सबका गांयता पखना गाड़ा जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक गाँव में एक गोत्र के लोग होते हैं, उनकी मृत्यु के बाद उनकी आत्मा को डूमादेव (पितृदेव) के रूप में एक स्थान में ही स्थापित कर पूजा की जाती है, इस मंदिर नुमा जगह को “आना कुड़मा” कहते हैं।

वनवासी समाज में जब कोई बच्चा जन्म लेता है तब उसकी पहचान की जाती है। बच्चे के जन्म के साथ उसके नाल झड़ने का इन्तजार किया जाता है, दूसरे समाज में बच्चे की छटी तीन दिन या छः दिन में किये जाने का रिवाज है, परन्तु वनवासी समाज जब तक नाल नहीं झड़ता तब तक जच्चा बच्चा का शुद्धिकरण नहीं किया जाता न ही छटी मनायी जाती है। नाल झड़ते ही सभी सगा-सम्बन्धी को सूचना दी जाती है। सगा विषम गोत्रीय रिश्तेदार और बन्धु-बाँधव सम गोत्रीय लोग होते हैं। विषम गोत्रीय सगा अपने साथ चावल दाल और शराब लेकर आते है। बच्चे के मामा परिवार से माँ और बच्चे के लिये नया कपड़ा भी लाया जाता है। विषम गोत्रीय परिवार की महिलायें हल्दी चूनमाटी का उबटन लगाकर जच्चा-बच्चा को नहलाती है, इसे “बिच्छर छियाना” कहते है। इस बीच बाकी महिलायें दोना पत्तल बनाते हुये एक कमरे में गीत गा रही होती हैं, इस अवसर पर गाये जाने वाले गीत को सटींग पाटा (छटी गीत) कहा जाता है। बच्चे को नहलाने के बाद महिलाओं के बीच बैठी दादी की गोद में बच्चे को दिया जाता है। इस समय सभी बुजुर्ग महिलायें बच्चे के रूप रंग उस खानदान के लोगों से मिलाती हैं तथा सियांड़ी पत्ते में पका चावल (भात) की एक छोटी सी पोटली बनायी जाती है जिसका डन्ठल निकला रहता है उसे बच्चे को पकड़ाया जाता है।

इसके बाद उस बच्चे के सामने दादा परिवार के लोगों का नाम लिया जाता है, वह बच्चा उस पोटली को जैसे ही अपने कन्धे के पास तक ले जाता है, तब ऐसा माना जाता है कि वह उस व्यक्ति का दूसरा जन्म है। यह प्रक्रिया तीन बार दुहराई जाती है तीनो बार यदि वह बच्चा उस पोटली को अपने कन्धे तक लेकर जाता है तब निश्चित हो जाता है कि वह उस नाम वाले व्यक्ति का पुनर्जन्म है। जब तक वह बच्चा किसी नाम पर पोटली को कन्धे के पास नहीं ले जाता तब तक नाम ले ले कर बार-बार इस क्रिया को दुहराया जाता है। इसके अलावा भी और अन्य तरीका से मिलान किया जाता है, रूप रंग जन्म चिह्न शरीर के तिल आदि से भी मिलाया जाता है। यदि बच्चे के दादा के खानदान के नामों से कोई संकेत नहीं मिलता तब नाना-नानी के खानदान के नामों से पूरी प्रक्रिया को दुहराया जाता है। जब दादा के या नाना के खानदान के किसी व्यक्ति से उस बच्चे जन्म सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तब उस व्यक्ति का नाम बच्चे को दिया जाता है। इस तरह नवजात का अपने कुल से सम्बन्ध बनाने के बाद उसका नामकरण किया जाता है। इस तरह ही पहचान कार्यवाही के समय नवजात के दूध पीने के समय उस व्यक्ति का नाम लेकर पुकारा जाता है, वह दूध पीना छोड़ देता है, तो माना जाता है कि वह उस नाम का व्यक्ति है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि वनवासी समाज का व्यक्ति मृत्यु के बाद फिर से उसके ही कुल में जन्म लेता है और वनवासी समाज उस मृतक की पहचान भी कर लेता है। इसीलिये वनवासी समाज मृत्यु स्तम्भ बनाता है, जो बस्तर के प्रत्येक भाग में दिखलाई देता है। इन मृत्यु स्तम्भों को कलात्मक ढंग से सजाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं से अलग वनवासी समाज में यह प्रथा आज भी जीवित है।

(लेखक आदिवासी संस्कृति के जानकार हैं एवं विशेषकर गोंडी संस्कृति के विशेषज्ञ माने जाते हैं।)

सभी फ़ोटो – ललित शर्मा

आलेख

शिवकुमार पाण्डेय
नारायणपुर

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