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बाणासुर की नगरी बारसूर

पर्यटन अथवा देशाटन प्रत्येक व्यक्ति को आकर्षित करता है। पर्यटन अथवा देशाटन के बिना जीवन को अधूरा कहा जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में अगर छत्तीसगढ़ को देखा जाए तो यहाँ की नैसर्गिक छटा अपने आप में अद्भुत है, उसमें भी बस्तर क्षेत्र की बात ही कुछ और है। जिनको पर्यटन दृष्टि से विशेष स्थान प्राप्त है। जगदलपुर से यात्रा एक करने वाले पर्यटक चित्रकोट होते हुए हैं। क्योंकि यह एक ही पथ पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसी मार्ग पर पड़ने वाला एक महत्वपूर्ण धार्मिक, सांस्कृतिक एवं पर्यटन स्थल बारसूर है जो विशेष महत्वपूर्ण है।

जगदलपुर से 75 किमी दूर राष्ट्रीय राजमार्ग क्रं.16 स्थित गीदम से 20 किमी उत्तर दिशा में इंद्रावती नदी के तट पर स्थित बारसूर (19°65’ अक्षांश, 81°55’ पूर्वी देशांतर) को नागवंशीय शासकों को राजधानी रहने का गौरव प्राप्त रहा है। छत्तीसगढ़ के विकास के साथ बारसूर एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक स्थल के रूप में विकसित हो रही है।

पौराणिक आख्यानों के नायक के रूप में विख्यात बाणासुर की राजधानी के रूप में बारसूर के नामकरण को भी प्रायः बाणासुर से समीकृत करने का प्रयास किया जाता रहा है। पूर्व मध्यकालीन राजधानी नगर के रूप में बारसूर का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है, जिसके प्रमाण के रूप में ग्यारहवीं सदी ई. में प्राप्त नाग शासक सोमेश्वरदेव की महारानी गंग महादेवी के अभिलेख को प्रस्तुत किया जा सकता है।

यहां पर प्रतिष्ठित विश्वविख्यात एवं दुनिया की तीसरे सबसे बड़े गणेश की प्रतिमाएं, दो गर्भगृह युक्त एवं अपने स्तंभ स्थापत्य से चमत्कृत कर देने वाला बत्तीसी मंदिर, मामा-भांजा मंदिर एवं चंद्रादित्य मंदिर के साथ-साथ सरोवरों एवं सतधारा जैसे नैसर्गिक जल क्रीड़ा स्थलों के कारण यह पुरास्थल कला एवं इतिहास के अध्येताओं के साथ-साथ सामान्य पर्यटकों को भी अपनी ओर आकर्षित करता है।

गणेश प्रतिमा

बत्तीसा मंदिर के समीप स्थित युगल गणेश प्रतिमा न केवल अपने आकार-प्रकार एवं स्थापत्य बल्कि मनोसिद्धि पूर्ण करने जैसी धाराणओं के कारण छत्तीसगढ़ के साथ-साथ संपूर्ण भारत में विख्यात है। ग्रेनाइट पत्थर को तराश कर बनाई गई उक्त प्रतिमाएं अपने आप में अद्वितीय प्रतिमा हैं। बड़ी प्रतिमा की लंबाई लगभग 7 फीट जबकि द्वितीय प्रतिमा 5.5 फीट की है। बड़ी प्रतिमा में गणेश को एक चैकी पर बैठे दिखाया गया है। जिनके बाएं हाथ में मोदक पात्र तथा दाहिने हाथ में अक्षमाला है। उन्हें लम्बे कान, खुली आंखें, बाहर निकले हुए दो दांत, हाथों में कंगन, पांवों में पैंजनी तथा शरीर पर यज्ञोपवीत धारण किए हुए दिखाया गया है।

गणेश की द्वितीय प्रतिमा आकार में छोटी है। यह एकदंत प्रतिमा है, जिसके दाहिने हाथ में परशु है। अन्य विशेशताएं बड़ी प्रतिमा के समान ही है। उक्त दोनों प्रतिमाएं मंदिर के मलबे की सफाई से प्राप्त हुई थी, जिनकी तिथि लगभग 11वीं 12वीं शताब्दी मानी जाती है। प्राचीनता के दृष्टिकोण से संभवतः यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी प्रतिमा है। इससे बड़ी दो प्रतिमाएं हम्पी (कर्नाटक) में स्थित है।

मामा भांजा मंदिर

भगवान शिव को समर्पित पूवाभिमुख यह मंदिर भूमिज शैली में निर्मित है। इस मंदिर का निर्माण गंगवंशी राजकुमार ने करवाया था। मंदिर के मुख्य भागों में गर्भगृह एवं अंतराल हैं। मंदिर का शिखर जो कि उड़ीसा शैली में निर्मित है, पूर्णतः सुरक्षित अवस्था में है। मंदिर के ललाटबिम्ब पर गणेश की प्रतिमा निर्मित है। मंदिर की प्रसाद पीठिका अथवा वेदिबन्ध पत्रावली एवं कमल पुष्पों से अंलकृत है। मंदिर के बाह्य जंघा भाग एवं बाह्य भित्ति भाग पर रथिकाएं हैं। इन पर पहले कभी विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ शोभायमान थीं। अब यह रथिकाएं खाली हैं। मंदिर से एक अभिलेख प्राप्त हुआ है, जिस पर तेलुगु शैली की ब्राहृी लिपि में उत्कीर्ण लेख हैं ऐसा माना जाता है कि इस अभिलेख की तिथि 13वीं शताब्दी की होगी।

बत्तीसा मंदिर

मूलतः इस मंदिर का नाम शिववीर सोमेश्वर मंदिर था। जिसका निर्माण नागवंशीय शासक सोमेश्वर की रानी गंग महादेवी ने 1209ई. में संभवतः सोमेश्वर की स्मृति में करवाया था। बारसूर में प्रवेश करते ही बायीं ओर यह मंदिर स्थित है। वस्तुतः यह युगल मंदिर है। जिसमें गर्भगृह एवं सामने स्तम्भों पर आधारित मंडप है। बत्तीसा पाषाण स्तम्भों पर आधारित होने के कारण इसे स्थानिय लोग बत्तीसा मंदिर के नाम से ही जानते हैं। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर में दो मंडप हैं। गर्भगृह उत्तरी एवं दक्षिणी छोर पर मंदिर में प्रवेश हेतु तीन दिशाओं-पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण में सोपान निर्मित है।

मंदिर का मंडप, स्थापत्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण लगता है। मंडप का निर्माण अर्ध दीवार के ऊपर अधस्तंभों द्वारा किया गया है। इसे देख कर ऐसा लगता है कि इस प्रकार के मंदिरों की दक्षिण कोशल में अधिक लोकप्रियता थी, क्योंकि दुर्ग जिले में स्थित देव बलोदा, रायपुर जिले में स्थित खल्लारी तथा कोरबा जिले में स्थित लाफागढ़ मंदिर इसी श्रेणी के मंदिर है। बत्तीसा मंदिर के स्तम्भों की संयोजना चार पंक्तियों में संरक्षित है तथा प्रत्येक पंक्ति में आठ स्तम्भ हैं। गर्भगृह में शिवलिंग प्रतिष्ठित हैं एवं उनके सम्मुख मंडप में नंदी विराजमान है।

चन्द्रादित्य मंदिर 

बारसूर के अन्य मंदिरों की भांति यह मंदिर भी शिव को समर्पित है इस मंदिर का निर्माण जगदेक भूषण के सामंत चन्द्रादित्य ने करवाया था। बारसूर से उपलब्ध एक अभिलेख में इस बात का उल्लेख मिलता है। यह अभिलेख तेलुगु लिपि में है। अभिलेख शक संवत 983(1061ई) का है।

यह मंदिर एक प्राचीन सरोवर के किनारे अवस्थित है। संभवतः यह मंदिर का ही सरोवर था। मंदिर की योजना में गर्भगृह एवं मंडप है। मंदिर की बाह्य भित्तियों में विभिन्न देवी-देवताओं यथा ब्रम्हृा, विष्णु की दशावतार प्रतिमाएं, प्रजापति दक्ष तथा उमा-माहेश्वर के साथ-साथ मिथुन एवं रतिक्रिया में संलग्न युगल प्रतिमाओं का अंकन दर्शनीय है।

मूर्तिशाला

चन्द्रादित्य मंदिर के प्रांगण में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा नवनिर्मित मूर्तिशाला है, जिसमें लगभग नौवी-दसवीं शताब्दी के मध्य की ब्राम्हृण एवं जैन धर्म से संबंधित प्रतिमाएं संग्रहीत हैं। ये प्रतिमाएं कला मर्मज्ञों एवं अध्येताओं के साथ ही सामान्य जनमानस को भी अपनी ओर आकर्षित करती हैं।

पिछले कुछ वर्षो से बारसूर में पर्यटकों की आवाजाही निश्चित रूप से बढ़ी है। जहाँ अब छत्तीसगढ़ से बाहर के लोग भी भ्रमण के लिए आते है। पर्यटकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेंक्षण, इन स्मारकों को पर्यटन के दृष्टिकोण से विकसित कर रहा है। जिसमें स्मारक से लगे सुन्दर बगीचों का निर्माण, पर्यटकों के बैठने की व्यवस्था, स्वच्छ शीतल जल का प्रबन्ध होने की संभावना है। इन सुविधाओं की उपलब्धता के बाद निश्वित रूप से पर्यटक बारसूर की ओर अधिक आकर्षित होंगे।

आलेख – आर के पटेल

फ़ोटो – ललित शर्मा

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