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वासंती नवसस्येष्टि पर्व : होलिकोत्सव

हमारा भारत देश उत्सवों एवं पर्वों का देश है, यहाँ की संस्कृति में बारहों मास उल्लास की व्यवस्था है। ॠतुओं के अनुसार एवं ॠतु परिवर्तन पर त्यौहार मनाए जाते हैं, जो समाज को सांस्कृतिक शिक्षा देते हैं तथा संस्कृति को समृद्ध करते हैं। फ़ाल्गुन मास की पूर्णिमा को होली मनाई जाती है, जिसे वैदिक काल में वासंती नवसस्येष्टि पर्व कहा जाता था। वासंती नवसस्येष्टि पर्व को शारदेय नवसस्येष्टि पर्व भी कहा जाता था, जिसे वर्तमान में नवाखानी, नवाखाई या नवान्न ग्रहण भी कहते हैं।

यह पर्व अन्य पर्वों से अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, बसंत पंचमी से ही होली पर्व का आरम्भ हो जाता है तथा नगाड़ों के ध्वनि के साथ फ़ाग के राग भी दूर तक सुनाई देते हैं, जो आमजन के उल्लास को व्यक्त करते हैं। कहा जाए तो होली मनाने के कई कारण दिखाई देते हैं, जिसमें प्रमुख नवान्न ग्रहण है। जब रबी की फ़सल खलिहान में आ जाती है तब नवान्न ग्रहण किया जाता है।

होली के बाद जौं व गेहूं आदि की फसल का कटना आरम्भ होने को होता है। अतः किसान अपनी मेहनत व उससे उत्पन्न फसल को देखकर प्रसन्न होता है जिसे वह ईश्वर का धन्यवाद करते हुए उत्सव के रूप में मनाकर अपने परिवार व इष्ट मित्रों को भी प्रसन्नता प्रदान करने का प्रयास करता है। प्राचीन समय से इस अवसर पर गेहूं के नये दानों को अग्नि में तपा कर उनसे वृहद-यज्ञों में आहुतियां देकर यज्ञ किया जाता है जिससे ईश्वर का धन्यवाद होता है और इसके बाद अन्न का उपभोग करने में सुख व सन्न्तोष का अनुभव होता है।

होली नवसस्येष्टि है (नव = नई, सस्य = फसल, इष्टि = यज्ञ) अर्थात् नई फसल के आगमन पर किया जाने वाला यज्ञ है। इस समय फाल्गुन की फसल में गेहूँ, जौ, चना आदि का आगमन होता है। इनके अधभुने दाने को संस्कृत में “होलक” और हिन्दी में “होला” कहते हैं।

वैदिक नवसस्येष्टि का प्रचलित नाम “होली’ पड़ने का कारण तो स्पष्ट ही है। इस अवसर पर (फाल्गुन पूर्णिमा) अन्न (चना, गेहूँ, यव आदि) अर्ध परिपक्व अवस्था में होता है और उसकी बालों, टहनियों को जब आग में भुनते हैं, तो उसकी संज्ञा लोक में “होला’ होती है, जैसा कि हमारे साहित्य में लिखा मिलता है-

तृणाग्निभ्रष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलकः। होला इति हिन्दी भाषा। (शब्दकल्पद्रुमकोश)
अर्थात्‌ जो अर्धपका अन्न आग में भूना जाता है, उसे संस्कृत में होलक कहते हैं और यही शब्द हिन्दी भाषा में “होला’ कहलाने लगा।

अर्द्धपक्वशमीधान्यैस्तृणभ्रष्टैश्च होलकः होलकोऽल्पानिलो मेदकफदोषश्रमापहः।

अर्थात् तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके शमीधान्य (फली वाले अन्न) को होलक या होला कहते हैं। होला अल्पवात है और चर्बी, कफ एवं थकान के दोषों का शमन करता है।

होली के अवसर पर हमारे सब वन-उपवन भी नये पत्तां व पुष्पों से आंखों को अत्यन्त प्रिय लगते हैं और उपवनों में सुगन्ध आदि का वातावरण मन को सुख व आनन्द देता है। अतः यह समय हर दृष्टि से उत्सव के अनुकूल होता है। इस अवसर पर वातावरण में न अधिक शीत होता है न उष्णता।

वनस्पति जगत अपने यौवन पर होता है एवं मनभावन होता है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि रंग-बिरंगे पुष्पों की तरह परमात्मा ने मनुष्यों को गोरा, काला, सावंला, गेहूंवा आदि अनेक रंगों व आकृति वाला बनाया है। किसी को परमात्मा ने लम्बा तो किसी को नाटा, किसी को मोटा तो किसी को पतला तथा किसी को गांठा तो किसी को पतला बनाया है। शरीर का बाह्य रूप गोरा व काला आदि है तो अन्दर धमनियों में लोहित या लाल रंग का रक्त बहता है।

पुष्पों के रंग भी हमें ईश्वर की महिमा का परिचय देते हैं जो मिट्टी से नाना रंगों व मनमोहन आकृतियों के पुष्पों को उगाता, बनाता व संवारता है। पुष्पों में उसकी सवोत्तम निर्माण कला के दर्शन होते हैं। ऋषि कहते हैं कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। फूलों को देखकर भी ईश्वर का साक्षात किया जा सकता है। ईश्वर गुणी है और फूल उसका गुण वा रचना, अस्तु।

होली पर्व के अवसर पर फलों के रंगों के अनुरूप हम स्वयं भी एक दूसरे के चेहरों पर रंग लगा कर उन्हें पुष्पों के समान आकर्षक व मनमोहक रूप देना चाहते हैं। खिले पुष्प की हम खुशियों व सुख से उपमा देते हैं और कामना करते हैं कि हमारे सभी इष्ट-मित्र सदैव पुष्पों की तरह हंसते मुस्कराते व खिले-खिले से रहे। यही काम हम अपने मित्रों व कुटुम्बियों के चेहरे पर रंग लगाकर उन्हें शुभकामनायें देते हुए मिष्ठान्न आदि खिला कर करने का प्रयास करते हैं।

होली का पौराणिक रूप भी बड़ा शिक्षाप्रद है। हमारे त्यौहारों के साथ कुछ महापुरुषों से सम्बन्धित घटनाएँ भी कालान्तर में जुड़ गई हैं। इसी प्रकार इस पर्व से सम्बन्धित एक आख्यायिका श्रीमद्‌भागवत में कुछ इस प्रकार आती है-

हिरण्यकशिपु एक बड़ा अन्यायी तथा ईश्वर की सत्ता को न मानने वाला राजा था। प्रह्लाद नाम का उस अत्याचारी राजा का पुत्र बड़ा ही आस्तिक और ईश्वरभक्त था। क्योंकि ईश्वरभक्त प्रह्लाद अपने अन्यायी नास्तिक पिता की बात नहीं मानता और उसकी सत्ता से भी इन्कार करता है।

अतः हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र की गतिविधियों को पसन्द नहीं करता और उसे रोकने के लिए वह उसे तरह-तरह के कष्ट देता है। परन्तु वह ईश्वरभक्त प्रह्लाद इन कष्टों की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं करता। अन्त में नृसिंह नाम का एक अवतार होता है, जो हिरण्यकश्यपु का संहार कर देता है।

वसंत में रम्य से रम्यतर होता हुआ नयनाभिराम जगत् जनता और अन्नदाता कृषक समूह के मन में मोद भर देता है। इस अवसर पर होलक अर्थात् अग्नि में भूने हुए अर्द्धपक्व अन्न की आहुतियां दी जातीं हैं। इसे ही नवसस्येष्टि, होलकेष्टि व होलकोत्सव कहते हैं।

यह होलकोत्सव जहां घर की अग्नि में आहुतियां देकर किया जाता है वहां सभ्याग्नि में सब की साझी आहुतियां देकर भी किया जाता है। जो अग्नि सभा की अर्थात् सबकी साझी होती है उसे सभ्याग्नि कहते हैं। इस यज्ञ के बाद घर में आने वाला अन्न ही हमारा खाद्य है।

मनुष्य का अधिकार यज्ञशेष पर ही है , यज्ञवस्तु पर नहीं। श्रुतिवचन है – केवलाघो भवति केवलादी अर्थात् अकेला खाने वाला केवल पाप खाता है। इसलिये हम जहां नवागत अन्न को होम के द्वारा खाद्य बनाते हैं वहां पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ व बलिवैश्वदेव द्वारा पहले खिलाकर तब खाते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझते हैं।

वर्तमान काल में फ़ाल्गुन पूर्णिमा को होलिका दहन के पश्चात नवान्न ग्रहण कर रंग खेला जाता है। पिचकारियों से रंग बिरंगा रंग खेलकर हर्ष प्रकट किया जाता है तथा घरों में पकवान बनाए जाते हैं। लोग फ़ाग गाकर मनोरंजन करते हैं तथा इस पर्व में उल्लास भर देते हैं। प्रकृति के उल्लास के साथ मनुष्य का उल्लास मिलकर विराट हो जाता है। आइए नव वासंती सस्येष्टि पर्व मनाएं।

आलेख एवं फ़ोटो

ललित शर्मा,
इण्डोलॉजिस्ट
रायपुर, छत्तीसगढ़

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