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शिव का अघोरी रूप एवं महिमा

श्रावण मास में शिवार्चना पर विशेष आलेख

त्रिदेवों में एक शिव का रूप और महिमा दोनों ही अनुपमेय है। वेदों में शिव को रुद्र के नाम से सम्बोधित क्रिया गया तथा इनकी स्तुति में कई ऋचाएं लिखी गई हैं। सामवेद और यजुर्वेद में शिव-स्तुतियां उपलब्ध हैं। उपनिषदों में भी विशेषकर श्वेताश्वतरोपनिषद में शिव-स्तुति है। वेदों और उपनिषदों के अतिरिक्त शिव की कथा महिमा अन्य कई सनातन ग्रन्थों में मिलती है यथा शिवपुराण, स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि।

शिव एकमात्र देव है जो ‘अघोरी’ है। सामान्य अर्थ में ‘अघोरी’ अर्थात ‘जिसके कृत्य असमान्य हो इसलिए उसे घृणित भाव से देखा जाता है।’ शिव का रूप अघोरी रूप है। भारतीय सनातन ग्रंथो के अनुसार शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप सबसे अलग विलग व तनिक जटिल है।

अर्धनग्न,बाघम्बर धारी, शरीर पर भस्म भभूत मले, जटाजूटधारी, गले में रुद्राक्ष और सर्पमाला लपेटे, कंठ में विष,ललाट पर चंद्रकला और तृतीयं नेत्र,शीश जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकारी ज्वालाए, मतवाले,नाचते गाते, त्याज्य पुष्पों व वनस्पतियों भांग-धतूरे को धारण करते भगवान शंकर को भिक्षुक भोला भंडारी भी कहते हैं।

किन्तु यह अत्यंत विस्मयजन्य तथ्य है कि अघोरी रूप होते हुए भी वे देवो के देव ‘महादेव’ कहलाते है और आदिकाल से ही भारतीयों के सर्वप्रिय देव रहे हैं। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि शिव उत्तर में कैलाश से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक एक जैसे पूजे जाते हैं।

उनमें तमाम विपरीतताओ के बावजूद उनका व्यक्तित्व इतना चुम्बकीय है कि भद्रजनों से लेकर शोषित, वंचित वर्ग तक उन्हें अपना सर्वप्रिय देवता भोलेनाथ मानते हैं। वे प्राचीन काल से ही सर्वहारा वर्ग के देवता रहे हैं उनका दायरा कितना व्यापक है, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है। इसका क्या कारण है?

कारण यह है कि हम ‘अघोर’ शब्द का अर्थ ही ठीक से नही समझ पाए है। वास्तविक अर्थो में अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, सरस् हो, हर परिस्थिति में सहज हो, सम हो जिसमें किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं हो।

अघोर बनने की पहली शर्त ही यही है कि अपने मन से घृणा और बैर भाव को सदा सदा के लिए निकाल फेंकना। अघोर क्रिया व्यक्तित्व को सहज सरल बनाती है। मूलत: अघोरी उसे ही कहते हैं जो शमशान जैसी भयावह और विचित्र जगह पर भी उसी सहजता से रह सके जैसे लोग सामान्यतः संसार मे अपने घरों में रहते हैं।

शिव श्मशानवासी है वे वहां भी उतने ही सरल ,सहज व प्रसन्न है जितने हम अपने आलीशान सुविधायुक्त घरो में भी नही होते। विषम परिस्थितियों में भी अद्भुत सामंजस्य बिठाने वाला उनसे बड़ा कोई दूसरा भगवान नहीं है। वो अर्धनारीश्वर होकर भी काम पर विजय पाते हैं तो गृहस्थ होकर भी परम विरक्त हैं।

नीलकंठ होकर भी विष से अलिप्त हैं। उग्र होते हैं तो रुद्र, नहीं तो सौम्यता से भरे भोला भंडारी। परम क्रोधी पर परम दयालु भी शिव ही हैं। विषधर नाग और शीतल चंद्रमा दोनों उनके आभूषण हैं। यही शिव का विषम किन्तु अद्भुद सामंजस्य हैं।

हिन्दू शास्त्रो में कहीं कहीं शिव के पांच मुख बताए गए हैं जिसमें से एक मुख का नाम ‘अघोर’ है। इसका एक अन्य आध्यात्मिक अर्थ भी है जिसके अनुसार ‘घोर’ का शाब्दिक अर्थ है ‘घना’ जो अंधेरे का प्रतीक है और उसमे ‘अ’ उपसर्ग लगने का अर्थ हुआ ‘नहीं’।

इस तरह ‘अघोर’ का अर्थ हुआ- ‘जहां कोई अंधेरा नहीं है, हर ओर बस प्रकाश ही प्रकाश है’ शिव का यही सबसे तेजोमय प्रकाशस्वरूप रूप ‘अघोरी’ कहलाता है। अघोरी मतलब घने अंधेरे को हटाने वाला ही शिव है। अंधेरे का अर्थ भय भी हो सकता है और भय होता है मूलतः अज्ञान से।

इस तरह शिव का यह भयंकर अघोर रूप उस अज्ञान रूपी अंधकार को काट कर भय से मुक्त कराने वाला भी है । शिव अर्थात अघोरी जो हर घोर अर्थात अंधेरे की तरह दिखने वाले अज्ञान या भय को हटा दे,अतः यही सत्य भी है परम् कल्याणमय भी है और शिव का यह अघोरी रूप सबसे सुंदर भी माना जाता है और इस रूप में शिव अवधूत औघड़ भी कहलाते हैं जो दुनिया से विरक्त, अपनी ही साधना में लीन आत्मा का प्रतीक भी है।

प्रायः ब्रह्मा,अपने ब्रह्मलोक में, विष्णु अपने वैकुंठ में रहते बताए गए है पर आदि शिव का प्रिय निवास स्थल निर्जन शून्य कैलाश है। सभी देव प्रायः अपने रास रंग वैभवपूर्ण लोको के स्वामी है किंतु शिव अपनी गृहस्थी अर्धांगिनी शक्ति के साथ निर्जन बर्फ के शून्य प्रदेश कैलाश में भी सहज सरल प्रसन्नतापूर्वक रहते है।

शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वो आदि भी हैं और अंत भी है। शायद इसीलिए बाकी सब देव हैं किंतु केवल शिव ही देवो के देव ‘महादेव’ कहलाते हैं। शिव अत्यंत उदार, उत्सव- महोत्सव प्रिय हैं। शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की कला मात्र उनके पास है और यही शैव परंपरा भी है।

जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने एकबार कहा था- “उदास परंपरा बीमार समाज बनाती है।” शिव परम्परा अघोर हो कर भी उदास बीमार परम्परा नही है। स्वयं शिव का नृत्य कैलाश पर भी होता है तो शिव का नृत्य श्मशान में भी होता है। श्मशान में उत्सव मनाने वाले भगवान शिव अकेले देवता है। “खेले मसाने में होरी दिगंबर खेले मसाने में होरी, भूत, पिशाच, बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी!”

वास्तव में देखा जाए तो इन्ही विशेषताओं के कारण आदिकाल से ही भारत मे शिव आम आदमी के देवता रहें हैं। वे समाज के उस तबके के भी देवता हैं जिन्हें समाज ने अलग-थलग कर रखा है। वह इतने सरल ,सहज व सौम्य है कि केवल भाव देखते है अपने उपासकों के गुण या दोष नही। सभी को सम्यक दृष्टि से देखने की यह कला केवल अघोरी शिव के पास है इसलिए केवल मनुष्य और देव ही नही असुरो में भी वह समान रूप से पूजित है और भूत प्रेतों व पशुओ के भी अधिपति है।

शिव इतने गुट निरपेक्ष हैं कि सुर और असुर, देव और दानव सबका उनमें विश्वास है और सब पर उनकी सम्यक दृष्टि और कृपावृष्टि होती है। इसका प्रमाण है कि राम और रावण दोनों उनके उपासक हैं। दोनों गुटों पर उनकी समान कृपा है। आपस में युद्ध से पहले दोनों पक्ष उन्हीं को पूजते हैं।

शिव का विराट व्यक्तित्व और कृतित्व हर समय समाज की सड़ी गली बीमार सामाजिक बंदिशों से स्वतन्त्र होने, स्वयं की राह स्वयं बनाने और जीवन के नवीन और सार्थक अर्थ खोजने की चाह में स्वयं भी रहते हैं और हम सभी को भी प्रेरित करते है इसलिए शिव अघोरी हो कर भी भारतीय समाज मे सर्वदा सर्वकालिक सर्वप्रिय और परम् पूज्य देव रहे हैं।

‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिंडे ‘का उदघोष करने वाले उपनिषद भी मानते है कि मनुष्य स्वभावतः पशु है। इसिलए वैदिक वांग्मय में आह्वान किया गया- “मनुर्भव मनुर्भव!”दरसल मनुष्य होना एक सम्भावना है, सम्भावना जो नवीन क्रांति का आगाज़ करती है।

यह वह निर्णायक मोड़ है जहां से जीव पशुत्व की और भी जा सकता है और देवत्व की और भी। इसिलए मानव देह को दुर्लभ कहा गया। आदिदेव महादेव ‘शिव’-देवत्व के पूर्णत्व का वह प्रतीक रूप है जिसका नियंत्रण दोनो पर है-पशुत्व और देवत्व क्योंकि वह आदियोगी है।

योग ही वह पथ है जिस पर चलकर स्वभावतः पशु हुआ जीव मनुष्यत्व से गुजरता हुआ देवत्व के पूर्णत्व को प्राप्त हो सकता है। पर इस हेतु सर्वप्रथम पशुता को समझना जरूरी है। यह बोध होते ही आरम्भ होता है तंत्र और योग का। तंत्र का एक अर्थ है स्व का स्व पर शासन अर्थात स्वानुशासन स्थापित करना जो परम सिद्धि का मार्ग है।

स्वयं को अनुशासित किये बिना योग सम्भव नही क्योंकि योग का अर्थ है व्यष्टि से ऊपर उठ कर समष्टि की चेतना से जुड़ना ।यही है शिव होना। इसिलए योग और तंत्र के अधिष्ठाता देव शिव है। वैसे प्रत्येक जीव में ही शिव समाहित है पर वह उसे भूल चुका है,आवरण पड़ा है।योग उस आवरण को हटा कर एकत्व का रास्ता दिखाता है जिसके प्रवर्तक शिव कहे गए है।

आदिशक्ति को दीक्षित करते शिव प्रथम गुरु है और जगतजननी प्रथम शिष्य! इसी दीक्षा ज्ञान वार्तालाप को गुप्तज्ञान कहा गया जो अमरनाथ की गुफा में घटित हुई। शिव को ‘स्वयंभू ‘इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वे आदिदेव हैं, जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी वह थे, उन्हीं से धरती पर संसृति का संचार हुआ।

सनातन शास्त्रानुसार ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत शिव का आरम्भिक निवास है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत पृथ्वी की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। बिग बैंग थ्योरी के अनुसार जब समुद्र दूर हटे तो धरती के छोरो का प्रकटन हुआ।

परन्तु नवीनतम खोजो के अनुसार आज भी कैलाश का एक स्थल ऐसा है जिसे सम्पूर्ण पृथ्वी का केंद्रीय तत्व कहा जा सकता है। कैलाश के निवासी शिव ध्यान और योग की पराकाष्ठा है। कैलाश के निर्जन एकांत में रहते हुए शिव अवधूत हो जाते है। ध्यान में सहज स्थित शिव का परम धाम समस्त सृष्टि का मूल हो यह सहज सम्भाव्य है।

भारतीय वांग्मय में जीवत्व से शिवत्व को पाना ही जीवन का परम् लक्ष्य कहा गया है। जीव से शिवत्व के इस मार्ग को ही योग कहा गया है जिसकी निसृति आदियोगी शिव के श्रीमुख से हुई। यह गूढ़ गम्भीर रहस्यात्मक ज्ञान जो शिव ने पार्वती को दिया कालांतर में उस ज्ञान की अनेकानेक शाखाएँ हो चली है। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल ग्रँथों में सम्मिलीत है।

‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन किया गया है। योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव का योग तंत्र ‘‍विज्ञान भैरव तंत्र’ और ‘शिव संहिता’आदि में समाहित है। मेरुतंत्र आदि अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षाओ का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं।

आदियोगी शिव ही योग का मूल स्रोत है इसलिए उन्हें अवधूत रूप में व्यक्त किया गया। योग तंत्र में साधना में तीन नाड़ियों का विवेचन होता है–ललना, रसना और अवधूती, जिनमे से अवधूती सुषुम्ना स्थान में स्थित होती है है। यह मध्यदेशीया एवं मध्य ग्राह्य-ग्राहक-विवर्जिता होती है।-“ललना पज्ञा स्वभावेन रसनोपायसंस्थिता।अवधूती मध्यदेशे तु ग्राह्यग्राहकवर्जता अद्वयवज्रसंगह!”

इस तरह जो धर्ममुद्रा तथा महामुद्रा की अभेदता की हेतु अवधूती, नाड़ी में रमण करते है वह ‘शिव’ है। महानिर्वाण तंत्र में जगत में चार तरह के अवधूत कहे गए है–ब्रह्मावधूत” जो किसी भी वर्णाश्रम का ब्रह्मेपासक हो,”शैवावधूत”जो सविधिपूर्वक सन्यस्त हो,”बीरावधूत” अर्थात औघड़ वेशधारी जैसे बंगाल के बाउल और “कुलावधूत”अर्थात कुलानुशासन में रत गृहस्थ अवधूत।

वस्तुतः ध्यान देने पर ज्ञात होगा कि शिव महावधूत है जिनमे ये चारों रूप समाहित है। अतः वह महा सुखाश्रय,सहज आनंदप्रदायक है और अद्वय स्वभावा है। जो स्थाई रूप से अवधूती में रमण करते है इसलिए वह रत रह कर भी विरत, विरक्त -सन्यस्त है।

वस्तुतः ‘सन्यास’का शाब्दिक अर्थ – सम+न्यास अर्थात जिसमे समत्व स्थापित हो चुका वही सच्चा सन्यासी है,अवधूत है। अवधूत होना अर्थात मन की वह अवस्था जहां समत्व ठहर गया हो,सहजता, सरलता,तरलता हो, द्रवण हो प्रेम, आल्हाद का। इतना सहज ज्यो कि शिशु हो।

शिव भी वही है। क्योंकि अवधूत हुए बगैर महायोगी होना असंभव है अतः गृहस्थ हो जाने के बाद भी वह अवधूत हुए ही रहते है,आसक्ति और विकारों से दूर सम्यक दृष्टि को प्राप्त शिव तमाम मलिनताओं को धारण कर भी उनसे परे ही रहते है ,तनिक भी प्रभावित नही होते।वह इतने सम्यक है कि अन्य देवो से इतर उन्हें अमृत की कोई लालसा नही और न ही कालकूट से कोई परहेज या भय है।

चिदाकाश में व्याप्त परम् तत्व में सदालीन शिव सम्यकत्व की सभी सीमाओं को लांघते दृष्टव्य होते है। सूर और असुर का भेद किये बगैर सभी के लिए समान रूप से वरदाई होते है। यथार्थ में जीते हुए अपनी चित्तवृत्तियों से निर्भय हुए शिवत्व को अवधूत कहना समुचित ही है।

जीव से शिव की अवस्था को पाने में मुमुक्षु हुए बैगेर शिवत्व सम्भव नही यही समझाते है शिव। तंत्र भी योग की भांति ही समर्पण का मार्ग है। आदियोगी शिव का स्वरूप यही सिखलाता समझाता है कि संसार मे रह कर सभी कर्तव्य कर्मो को करते हुए चेतना के स्तर पर कैसे ऊपर उठा जाए।

उनके द्वारा बताए गए एक सौ बारह उपायों के माध्यम से मनुष्य अपनी सीमाओं से परे जा कर अपनी उच्चतम संभावना तक पहुँच सकता हैं। यही योग के एक सौ बारह उपाय व्यक्तिगत रूपांतरण के वे साधन है जो न केवल पशु हुए मनुज को बदल कर शिवत्व तक ले जा सकते है बल्कि यही संसार के रूपांतरण का एकमात्र उपाय भी है।

शिव की भांति बाहरी चक्षुओं को मूँद कर भीतरी दिव्य चक्षु की ओर उन्मुख होना ही शिवार्चन का अभीष्ट है। जिसे शिव की भांति अंदर की ओर मुड़ने की कला आ जाती है वह अवधूत हो जाता है और ऐहिक जगत में रहते हुए भी सभी कठिनाइयों से जूझते हुए भी नवीन सम्भावनाओ के वातायन खोल लेता है।

यही मनुष्यता के कल्याण और मुक्ति का उपर्युक्त साधन भी है।अतःआइए हम मनुष्यता के कल्याण के लिए अवधूत हुए महायोगी शिव की अर्चना कर अपनी चेतना के नवीन स्तरों का नया आयाम खोल शिवार्चन को सार्थक करे। यही सच्ची शिव पूजा होगी।

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