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नील की गोदी में सोये मिश्र का भारत से प्राचीन सम्बन्ध

नील का वरदान प्राचीन मिस्र की सभ्यता की वैज्ञानिक पड़ताल और उसकी सांस्कृतिक विरासत अपेक्षाकृत कई आयामो पर स्तुत्य है। प्राचीन मिस्रवासियों की अनेक उपलब्धियों में उत्खनन, सर्वेक्षण और निर्माण की तकनीक जिसने विशालकाय पिरामिड, मंदिर और ओबिलिस्क के निर्माण, सुनियन्त्रित सिचाई, स्वतंत्र लेखन प्रणाली, गणना विधि, एक व्यावहारिक और कारगर चिकित्सा प्रणाली,निराशा में भी आशा का संचार करती कृषि उत्पादन तकनीक, प्रथम ज्ञात पोत विज्ञान आदि सचमुच श्लाघनीय है।

मिस्र ने एक ऐसी स्थायी विरासत छोड़ी.जिसकी कला और स्थापत्य को व्यापक रूप से अपनाया गया और कालांतर में भी कालजयी स्मारकों के रूप में शोध और उत्खनन हेतु लोगो का ध्यान आर्कषित किया। प्राचीन मिस्र के इन विशाल खंडहरों ने यात्रियों और लेखकों की कल्पना को सदियों तक प्रेरित किया है। प्राचीन मिश्रवासियों की कई तकनीके अत्यंत रोचक व उम्दा है जिन पर विचार होना ही चाहिए।

वैसे तो किसी भी देश की धार्मिक परम्पराए व दर्शन वहां की मौलिक थाती है जो प्रदेश विशेष की भौगोलिक दशाओ के साथ ही वहां के आदर्शों, मूल्यों से बहुत कुछ प्रभावित होती है। फिर भी पारस्परिक सम्पर्को द्वारा इनका आदान प्रदान भी प्राचीन समय से ही होता रहा है।

यह बात अलग है कि विपरीत एव दुर्गम परिस्थियतियो आवागमन की सहज सुलभता न होने से यह प्रभाव प्राचीन सभ्यताओं में प्रत्यक्ष न ही कर परोक्ष ही नज़र आता है। फिर भी प्राचीन भारत में सिंधु नदी का बंदरगाह अरब और भारतीय संस्कृति का मेल्टिंग पॉइंट या मिलन केंद्र था।

यहां से जहाज द्वारा बहुत कम समय में मिश्र या सऊदी अरब पहुंचा जा सकता था। यदि सड़क मार्ग से जाना होता तो यह क्रमश बलूचिस्तान से ईरान, इराक, जॉर्डन और इसराइल होते हुए ही इजिप्ट पहुंचा जा सकता था। हालांकि मिश्र पहुंचने के लिए ईरान से सऊदी अरब और फिर इजिप्ट जाया जा सकता है।

यहाँ जाने के लिए समुद्र के दो छोटे-छोटे हिस्सों को पार करना होता था। क्योंकि भौतिक जीवन की सुविधाओं की प्राप्ति मनुष्य मात्र का प्रथम अभीष्ट रहा है, यही कारण था कि सांस्कृतिक आदान प्रदान में भी व्यापार वाणिज्य ने ही प्राचीन मिश्र और भारत के बीच भी सुदृढ़ माध्यम या सेतु का काम किया।

शहर इजिप्ट प्राचीन सभ्यताओं और अफ्रीका, अरब, रोमन आदि लोगों का मिलन स्थल था। यह प्राचीन विश्‍व का प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केंद्र था। मिस्र के भारत से गहरे संबंध रहे हैं। नवीनतम शोधों के आधार पर यादवों के गजपत, भूपद, अधिपद नाम के तीन भाई मिस्र में ही रहते थे।

गजपद के अपने भाइयों से झगड़े के कारण उसने मिस्र छोड़कर अफगानिस्तान के पास एक गजपद नगर बसाया था। गजपद बहुत शक्तिशाली था। प्राचीन मिस्र सभ्यता के प्रमुख देवता एमन रे थे। एमन रे अर्थात सूर्य को वे सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा देवता के रूप में पूजते थे।

प्राचीन मिस्र में राज्य युग का प्रतीक चिन्ह पक्षयुक्त सूर्यचक्र था जो भारतीयों के- “आरोग्यं भास्करादिच्छेत।” काफी सयुंक्त है। प्राचीन मिस्र की अनेक औषधियां उस काल मे भारत से मंगाई जाती थीं। इसी औषधियों के साथ सूर्य पूजा भी मिश्र समाज का अनन्य हिस्सा हो गई।

प्राचीन मिस्र के ओसिरिस आख्यान का सीधा सम्बन्ध मृत्यु और उसके बाद पुनर्जीवन के तथ्य को इंगित करता है।ओसिरिस का मर कर जीवित्त होना भारतीय आत्मा की अमरत्व के सिद्धांत के समक्ष है। क्योंकि ग्रीष्म में नील और वनस्पतियों का शुष्क होना और बाढ आने पर पुनजीवन मिस्रवासियों की नियति थी अतः ओसिरिस सत्य पर विजय और अमरत्व का संदेश देती थी।

क्योंकि प्राचीन मिस्र में भूमध्य सागरीय जाति की एक शाखा बसती थी इसलिए मिश्री और भारतीय सैन्धव सभ्यताओं में भी बहुत सादृश्यता दृष्टव्य होती है। मिश्र के प्राचीन आख्यानों में ओसिरिस व आइसिस के भाई बहिन होते हुए भी विवाह की प्रथा का प्रचलन की साम्यता सैन्धव समाज मे भी प्रचलित थी जिसका निहितार्थ ऋग्वेद के दशम मंडल में वर्णित यम यमी संवाद के आलोचना में वर्णित है।

क्योंकि दशम मंडल की रचना उस समन्वय काल मे हुई है जब सैन्धव सभ्यता के खंडहरों पर वैदिक सभ्यता का उद्भव हुआ। भारतीयों के बहुदेववाद की भांति ही मिश्रियो में भी दो सहस्त्र से भी अधिक अत्यधिक विशाल देवसमूह की कल्पना की गई है। मिस्रवासियों के देवताओ की कल्पना भी प्रायः प्राचीन सिन्धुवासियों की भांति ही मनुष्यो और पशु पक्षियों से संयुक्त रूपो में की गई है।

बहुत से पशु पक्षियों को भारतीयों की भांति ही प्राचीन मिस्रवासी भी विविध देवताओ के प्रतीक मानते थे। सैन्धव समाज मे रुद्र की मुद्राओ पर प्रायः श्रृंग मुकुट धारण किये हुए दिखाया गया है। ठीक वैसा ही वृषभ श्रृंग मुकुट प्रारम्भिक वंशीय युग के मिश्र नरेश नारामेर की सलेट पट्टिका के ऊपर भी अंकित मिलता है।

मिस्र की भाषाओं में बहुत से शब्द और उनके अर्थ समान हैं, जैसे हरी (सूर्य)- होरस, ईश्वरी- ईसिस, शिव- सेव, श्वेत- सेत, क्षत्रिय- खेत, शरद- सरदी आदि। मिस्र के पुरोहितों की वेशभूषा भारतीय पुरोहितों व पंडितों की तरह थी। यह सुखद आश्चर्य है कि उनकी मूर्तियों पर भी वैष्णवी तिलक लगा हुआ मिलता है। एलोरा की गुफा और इजिप्ट की एक गुफा में पाई गई नक्काशी और गुफा के प्रकार में आश्चर्यजनक रूप से समानता मिलती है।

मिस्र के प्रसिद्ध पिरामिड वहां के राजाओं की एक प्रकार की कब्रें हैं जिसके प्रमाण सिन्धवकालीन कब्रो में देखा जा सकता है जहां कुत्तों और कुछ अन्य सामग्री को साथ दफनाया गया है। कालांतर में भारतीयों को इस विद्या की उत्तम जानकारी का प्रमाण महाकाव्यकालींन संस्कृति में राजा दशरथ का शव उनके पुत्र भरत के कैकेय प्रदेश से अयोध्या आने तक सुरक्षित रखने के उदाहरण में देखा जा सकता है।

मिश्र के पिरामिडों से पता चलता है कि स्वर्ग से आए उनके देवता और उन्होंने ही धरती पर जीवों की रचना की। मिश्र के राजा उन्हें अपना पूर्वज मानते थे। उन्होंने मिश्रवासियों को कई तरह का ज्ञान दिया। उनकी कई पीढ़ियों ने यहां शासन किया। प्राचीनकाल में स्वर्ग उस स्थान को कहा जाता था, जहां हरे-भरे जंगल थे, कल-कल करती कई नदियां हों, खासकर जहां सेबफल के बहुतायत पेड़ हो और जहां बर्फ से लदे पहाड़ हो।

गौरवर्ण के उन देवदूतों को स्वर्ग से निकाला गया था। उन्हें स्वर्ग से बहिष्कृत स्वर्गदूत कहा जाने लगा। वे आकाश से उतरे थे इसलिए सर्वप्रथम उन्हें आकाशदेव कहा गया। जानकारों ने उन्हें स्वर्गदूत कहा और धर्मवेत्ताओं ने उन्हें ईश्वर का दूत कहा। लेकिन वे लोग जो उन्हें ‘धरती को बिगाड़ने का दोषी’ मानते थे उन्होंने उन्हें राक्षस या शैतान कहना शुरू कर दिया। विरोधी लोग रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए उनका विरोध करते थे।

इस तरह मिस्र में इन विदेशियों के कारण एक नई सभ्यता और संघर्ष का जन्म शुरू हुआ। मिश्र वासियो की जगत की उत्पत्तिमुलक कल्पनाएं भारतीयों की भांति स्पष्ट तो नही थी पर उनके मेम्फाइट ड्रामा के अनुसार उनके जगत की उत्पत्ति डिवाइन इंटेलिजेंस अर्थात दैवीय प्रज्ञा से हुई।

कई सादृश्यताओ और साम्यताओ के बावजूद यह सोचने का विषय है कि क्यो नही भारतीयों की भांति मिश्र वासी जैसा की अधिकांश लोग प्रश्न करते है कि मिस्रवासी भारतीयों की भांति औपनिषेदिक आत्मनवेशन की ओर क्यो नही अभिमुख हुए??,

तो मेरे विचार में जिस समाज के पास रोजमर्रा के जीवन यापन की समस्याए इतनी प्रबल और अस्थिर हो वहां उन्हें आत्मान्वेषण का अवकाश कैसे हो सकता है? भारत की समृद्ध परिस्थितियों से विलग मिश्र की भौगोलिक परिस्थियां थी अतः मिस्रवासी प्रज्ञा के उस स्तर पर नही जा सके,जहाँ प्राचीन भारतवासी खड़े थे,परन्तु उनकी अनुपमेय योगदान को अनदेखा नही किया जा सकता है।

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