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दक्षिण कोसल में गाणपत्य सम्प्रदाय एवं प्राचीन गणपति प्रतिमाएँ

भारतीय धार्मिक परंपरा में गाणपत्य सम्प्रदाय का प्रमुख स्थान माना गया है। वैदिक काल से देव के रूप में गणपति की प्रतिष्ठा हो गई थी। ऋग्वेद में रूद्र के गण मस्तों का वर्णन किया गया है।1 इन गणों के नायक को गणपति कहा गया है। पौराणिक देवमण्डल में गणपति का महत्वपूर्ण स्थान है। गणपति और गणेश के नाम से ज्ञात इस देवता को शिव और पार्वती के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है।2

ऋग्वेद में ‘‘गणानां त्वा गणपतिम्’’ मंत्र संभवतः गणेश के लिए ही प्रचलित माना जाता है। गणपति का शाब्दिक अर्थ है गण अर्थात् समुदायों का नायक।3 इसका दूसरा नाम विनायक भी प्रयोग में आ गया था, जो विचरण करने वाली आत्माओं के लिए प्रयुक्त होता था। विनायकों का वर्णन मानव गृहसूत्र में भी मिलता है, जिसके अनुसार इसकी संख्या चार है – 1. शालकटंक, 2.कुष्माण्डराजपुत्र, 3.उस्मित तथा 4.देवयजन।4

गणपति का स्पष्ट उल्लेख मैत्रायणी संहिता की गणेश-गायत्री एकदन्ताय-विद्महे तथा गणपत्यर्थर्वशीर्ष, जिसे ‘गणेशोपनिषद्’ भी कहते हैं, में हुआ है।5 ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेखित गणपति शब्द का विश्लेषण करने पर ‘‘ग’’ शब्द से ज्ञान, ‘‘ण’’ शब्द से मोक्ष और ‘‘पति’’ शब्द का अर्थ परब्रह्म से माना गया है।

गणेश का विनायक के नाम में निरूपण सर्वप्रथम विष्णुधर्मेत्तर पुराण से ज्ञात होता है।6 इस पुराण में चतुर्भुज विनायक के गजमुख होने का वर्णन किया गया है। उनके दाहिने हाथों में शूल और अक्षमाला तथा बायें हाथों में मोदक-पात्र और परशु धारण करने का उल्लेख मिलता है। महाभारत में गणेश्वरों और विनायकों का देवताओं के साथ उल्लेख किया गया है। जिसके अनुसार वह मनुष्यों के कार्यों को देखते हैं तथा सर्वत्र विद्ययमान रहते हैं।7

बारसूर की विशाल गणेश प्रतिमाएँ

वराहपुराण8 में गणेश के जन्म के संबंध में एक कथा का वर्णन हुआ है कि देवगण तथा ऋषिगण जब भी कोई उत्तम (सत) कार्य करते थे तो उनमें अनेक विघ्न उत्पन्न हो जाया करते थे, जबकि असत् कार्य का संपादन बिना किसी रूकावट के ही पूरा हो जाया करता था। इस चिन्तन मग्न स्थिति के फलस्वरूप समस्त देवताओं ने मिलकर इसे दूर करने हेतु महादेव से प्रार्थना की।

महादेव ने देवताओं की इस समस्या को सुनकर उमा की तरफ दृष्टि कर भीषण अट्टाहस किया। जिसके परिणाम स्वरूप अट्टाहस से परमश्रेष्ठी गुणों से युक्त एक सुंदर मनमोहक कुमार गणेश का जन्म हुआ, जिसके अद्भुत रूप को अपलक नेत्रों से उमा निहारने लगी। उमा के इस चंचल भाव को देखकर शिव कूपित हो गए तथा गणेश को श्राप दिया कि उसका मुख गज का, उदर बड़ा तथा वाहन मूषक होगा। ब्रह्मा ने उसे सभी विनायको का अधिपति नियुक्त कर दिया तथा यह वरदान दिया कि संसार के प्रत्येक शुभ कार्य का प्रारंभ, यज्ञों में तथा धार्मिक कार्यों में पूजा – अर्चना का प्रारंभ गणेश की पूजा के पश्चात् ही होगी। ऐसा न होने पर कार्य सिद्धि असफल हो जायेगी।

गणेश की एक दन्ती की कथा का वर्णन ब्राह्मण पुराण9 से ज्ञात होता है जिसके अनुसार एक बार क्षत्रियों का संहार करके परशुराम शिव के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए परन्तु उस समय शिव – पार्वती एकांत में वार्तालाप कर रहे थे और उन्होंने किसी के भी प्रवेश में प्रतिबंध लगाया था, जिसकी सुरक्षा गणेश कर रहे थे। उसी समय द्वार पर परशुराम के आते ही गणेश ने उन्हें प्रवेश करने से मना कर दिया, जिससे परशुराम क्रोधित हो गए, फलतः परशुराम और गणेश के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया, परशुराम ने अपने परशु (फरसा) से प्रहार कर गणेश का एक दांत तोड़ दिया, तब से गणेश एकदंती हो गए।

गणेश के आठ द्वारपाल है जो कि कद में सभी वामनाकार है तथा दो-दो की संख्या में चारों द्वारों पर नियुक्त रहते हैं ये हैं अविघ्न एवं विघ्नराज, सुवत और बलवान, गजकर्ण तथा गोकर्ण एवं सुसम्य और शुभदायक जो कि स्वभाव से सौम्य है और इनका मुख कठोर है। गणेश की प्रतिमा लक्षणों से संबंधित अधिकांश ग्रंथ उसके चतुर्भुज, षडभुज, दशभुज, अष्टादशभुज होने का वर्णन करते हैं। गणपति प्रतिमा-विधान का सबसे प्राचीन विवरण हमें वराहमिहिर की वृहत्संहिता से ज्ञात होता है। जिसमें एकदन्ती गजमुख तथा लम्बोदर गणपति को परशु तथा कंदमूलधारी प्रदर्शित करना चाहिए।10

बारसूर संग्रहालय की गणेश प्रतिमा

गणपति प्रतिमाओं का निर्माण ईसा पूर्व द्वितीय शती से होने लगा था। गणेश की अब तक की प्राप्त प्राचीनतम मूर्तियां मथुरा के लाल चित्तेदार पत्थर की बनी हुई मिली है, जिसमें संकिसा से गणेश की द्विभुजी प्रतिमा स्थानक मुद्रा में प्राप्त हुई है। जिसके बाएं हाथ में मोदक पात्र तथा पात्र की ओर घूमी हुई सूड़ है तथा दाहिने हाथ की वस्तु की पहचान नहीं हो सकी है।11

गाणपत्य पूजा का विधान अत्यंत प्राचीन काल से प्रचलित रहा है। जिसका प्रभाव भारतवर्ष के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में भी सभी जगह दिखाई देता है। गुप्तोत्तर काल में गणेश की प्रतिमाएं सम्पूर्ण भारतवर्ष में अंकित की जाने लगी। गणेश का अंकन शैव परिवारों में तथा नवग्रहों के साथ मंदिरों के सिरदल में बनाई जाने लगी। शिवगणेश पुराण, मुद्गलपुराण, गणेशगायत्री, प्राण तोषिणि, गणपति अथर्वशीर्ष, गणपति उपनिषद, ईशानशिव, गुरूदेव पद्धति, आदिग्रंथ गणेश की महिमा के लिए समर्पित है। गणेश की प्रतिमा का निर्माण एकमुखी, द्विमुखी तथा पंचमुखी रूप में भी निर्मित किया गया है तथा भुजाओं को द्विभुजी से षोडसभुजी तक निर्मित किये जाने का विधान है। भुजाओं में वृद्धि होने के साथ आयुधों में भी वृद्धि होने लगती है। गणेश की एकदंती प्रतिमा भी प्राप्त होती है।

छत्तीसगढ़ में गणेश की प्रतिमाएं आसनस्थ, स्थानक, नृत्यरत, दम्पत्ति (सपत्निक) एवं अन्य देवी-देवताओं के साथ प्राप्त होती है। छत्तीसगढ़ में पांचवी शताब्दी ईसवी से पंद्रहवी शताब्दी ईसवी तक गणेश प्रतिमा का निर्माण तथा गाणपत्य धर्म के विकास का अनवरत् क्रम दिखाई देता है। इस क्षेत्र में उत्खनन के पश्चात् भी अनेक गणेश की प्रतिमाएं प्रकाश में आई हैं। बिलासपुर जिले में देवरानी मंदिर ताला, (अमेरीकापा) मंदिर के सम्मुख बाईं तरफ एक गड्ढे में गणेश की प्रतिमा स्थापित है। गणेश अपने दाएं हाथ से अपने दातों को पकड़े हैं तथा बाएं हाथ में मोदक पात्र स्थित है। प्रतिमा का सूंड़ वामावर्त है। इसका काल पांचवी- छठवी शताब्दी ईसवी माना गया है।

गढ़धनोरा में विष्णु मंदिर समूह से दक्षिण दिशा की ओर आधा किलो मीटर की दूरी पर जंगल के बीच बंजारिन मंदिर समूह स्थित है। इस मंदिर समूह के प्रांगण में पेड़ के नीचे द्विभुजी गणेश की प्रतिमा प्राप्त हुई है। जिसका निर्माण काल पांचवी-छठवी शताब्दी ईसवी माना गया है।12 जिला बलौदाबाजार के अंतर्गत पुरातात्विक स्थल पलारी में सिद्धेश्वरी मंदिर स्थित है। इस मंदिर के मध्यरथ के निचले तल में गणेश की नृत्यरत चतुर्भुजी प्रतिमा का अंकन हुआ है। जिनके हाथो में चक्र, मोदक पात्र, परशु आदि आयुध स्थित है।13 इस प्रतिमा का निर्माण काल सातवी-आठवी शताब्दी ईसवी माना गया है।

गणेश प्रतिमा प्रतापपुर, सरगुजा

मल्हार में केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के स्थल संग्रहालय में सातवी-आठवी शताब्दी ईसवी की गणेश की द्विभुजी स्थानक प्रतिमा तथा इसी काल की दस भुजी, नृत्यरत प्रतिमा अवस्थित है। इस प्रतिमा के कुछ हाथ खण्डित अवस्था में है। बाएं हाथ की पांच भुंजाओं में धनुष, मोदक, स्वदन्त तथा एक हाथ नृत्य मुद्रा में दर्शित है।

राजनांदगांव जिला में घटियारी नामक पुरास्थल पर एक नवमी-दसवी शताब्दी ईसवी का शिव मंदिर स्थित है। मंदिर के गर्भगृह के पश्चिमी भित्ति में गणेश की प्रतिमा अंकित है। राजिम के रामचन्द्र मंदिर के तीसरे स्तंभ पर अष्टभुजी गणेश का अंकन हुआ है।14 इस मंदिर का निर्माण ईष्टिका से हुआ है। इसका काल दसवी- ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी माना गया है। मदकूद्वीप उत्खनन से नृत्य गणपति की दसवीं-ग्यारहवी सदी ईसवी प्रतिमा प्राप्त हुई है।

छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग सरगुजा क्षेत्र में गाणपत्य धर्म का अभूतपूर्व विकास हुआ है। इस क्षेत्र से सोमवंशी व कलचुरि कालीन अनेक गाणपत्य धर्म से संबंधित प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसमें आसनस्थ गणेश व नृत्य गणेश की प्रतिमाएं प्रमुख है। महेशपुर में निशानपखना नामक पुरास्थल से नवमी-दसवी शताब्दी ईसवी में निर्मित नृत्य गणेश की प्रतिमा प्रकाश में आयी, यह प्रतिमा चतुर्भुजी है। इसके वाम हस्त में परशु एवं मोदक पात्र का अंकन हुआ है। दक्षिण हस्त में स्वतंत्र तथा निचला हस्त अभय मुद्रा में स्थित है। उनका सूंड़ मोदक पात्र में स्थित है।15

महेशपुर में आदिनाथ टिले से दसवी शताब्दी ईसवी में निर्मित नृत्य गणेश की प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह नृत्य प्रतिमा अष्टभुजी है जो कि विभिन्न प्रकार के आयुधों व आभूषणों से सुसज्जित है।16 नवमी शताब्दी ईसवी की नृत्य गणेश की एक अष्टभुजी प्रतिमा सामतसरना डिपाडीह से प्राप्त हुई है। इस अष्टभुजी प्रतिमा में दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है। इसके अलावा शेष हस्त भग्न है। यह प्रतिमा विभिन्न आभूषणों से सुसज्जित है। नीचे वाहन मूषक का अंकन हुआ है।17

गणपति प्रतिमा मल्हार

बलौदाबाजार जिले में स्थित तुरतुरिया नामक पुरा स्थल से दसवी-ग्यारहवी शताब्दी ईसवी में निर्मित गणेश की प्रतिमा प्राप्त हुई है। छत्तीसगढ़ के दक्षिणी भाग बस्तर संभाग में स्थित बारसूर नामक पुरा स्थल पर छिन्दक नागवंशी कालीन मामा-भांजा का मंदिर स्थित है। इस मंदिर के गर्भगृह के पश्चिमी भित्ति के सहारे द्विभुजी गणेश की प्रतिमा पादपीठ के ऊपर स्थित है। गणेश दाएं हाथ में परशु एवं बाएं हाथ में मोदक पात्र लिए हुए ललितासन मुद्रा पर बैठे हुए प्रदर्शित है।

बारसूर में एक गणेश मंदिर भी अवस्थित है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। वर्तमान में यह मंदिर ध्वंसावस्था में स्थित है। मंदिर के भग्नावशेष इस स्थल पर बिखरे पड़े है। इस मंदिर परिसर में दक्षिणाभिमुखी चतुर्भुजी गणेश की दो विशाल प्रतिमाएं स्थित है। इसलिए इसे गणेश मंदिर कहा जाता है। नारायणपाल में स्थित नारायण मंदिर के ललाट बिम्ब पर द्विभुजी गणेश की प्रतिमा अंकित है। जिसमें गणेश मोदक पात्र तथा परशु लिए प्रदर्शित है। गणपति के दोनो पार्श्वों में क्रमशः ऋद्धि तथा बुद्धि का अंकन हुआ है। इस प्रतिमा का निर्माण काल बारहवी शताब्दी ईसवी माना गया है।18

कबीरधाम जिले में स्थित भोरमदेव मंदिर में भी कई जगह गणेश प्रतिमाओं का अंकन हुआ है। इस मंदिर के पश्चिम दिशा के मध्यरथ के जंघा भाग पर अष्टभुजी गणेश का अंकन हुआ है।
कबीरधाम जिला के अंतर्गत एक अन्य पुरास्थल सिलीपचराही स्थित है। जिला पुरातत्त्व रायपुर के तत्वाधान में इस स्थल पर सन् 2007 से 2011 तक उत्खनन कार्य हुआ है। जिसमे अनेक प्रतिमाओं की प्राप्ति हुई है। इस पुरास्थल के परिक्षेत्र क्रमांक-3 से गणेश की प्रतिमा प्राप्त हुई है। जिसे विद्वानों ने आठवी-नवमी शताब्दी ईसवी का माना है। राजनांदगांव जिले में कटंगी नामक पुरास्थल से गणेश की प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी ईसवी की है।

बेमेतरा जिले के देऊरबीजा में एक सीतादेवी नामक मंदिर स्थित है। इस मंदिर के अधिष्ठान के ऊर्ध्व विन्यास में नृत्यरत अष्टभुजी गणेश का अंकन हुआ है। इस मंदिर को बारहवी-तेरहवी शताब्दी ईसवी में निर्मित माना गया है। जांजगीर में स्थित विष्णु मंदिर के जंघा भाग पर चतुर्भुजी गणेश की नृत्यरत प्रतिमा स्थित है। इस मंदिर का निर्माण काल ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी ईसवी माना गया है। संवभवतः गणेश की पूजा संबंधित पूर्व काल की प्राचीन परम्पराएं छत्तीसगढ़ क्षेत्र के कलचुरि कालीन समाज में भी व्याप्त थे जिसकी पुष्टि यहां से प्राप्त अभिलेख एवं शिल्पकृतियों से होती है।

गणेश प्रतिमा महेशपुर

पृथ्वीदेव द्वितीय के रतनपुर शिलालेख में शिव के साथ गजमुख गणेश की वंदना की गई है। जिसमें उनके हरिद्र रूप की झलक दिखाई देती है। इस अभिलेख में गण समूह के श्रेष्ठ गणपति आपकी विभूति के लिए हो का उल्लेख हुआ है।19 इसी तरह जाजल्लदेव द्वितीय के समय का मल्हार शिलालेख में (कलचुरि संवत् 919) गणेश के गजानंद रूप की वंदना की गई है तथा दूसरी पंक्ति में ‘‘गणपति की उद्दंड, सुन्दर सूंड़ आपकी सदा रक्षा करें‘‘ इस तरह वर्णन प्राप्त होता है।20

दन्तेवाड़ा जिला मुख्यालय से कम से कम 30 कि.मी. की दूरी पर ढोलकल स्थित है। ढोलकल के 300 मीटर ऊंचे पहाड़ी पर एक गणेश की चतुर्भुजी प्रतिमा स्थित है। इस प्रतिमा के ऊपरी दाएं हाथ में परशु नीचे का हाथ अभय मुद्रा में है। प्रतिमा के ऊपरी बाएं हाथ में टूटा हुआ दांत तथा नीचे के हाथ में मोदक पात्र धारण किये है। यह प्रतिमा पर्यक आसन मुद्रा में स्थित है। इस प्रतिमा का निर्माण काल ग्यारहवी शताब्दी ईसवी माना गया है।21

इसी तरह जिला पुरातत्त्व संग्रहालय जगदलपुर में बारहवी शताब्दी ईसवी की गणेश की प्रतिमा संरक्षित है। इस प्रतिमा की प्राप्ति केशरपाल से हुई थी। इसी संग्रहालय में चित्रकोट से प्राप्त गणेश की प्रतिमा स्थित है। जिला पुरातत्त्व संग्रहालय राजनांदगांव में चतुर्भुजी गणेश की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इस काल की एक और प्रतिमा इन्दिरा कला संगीत विश्व विद्यालय, खैरागढ़ के संग्रहालय में भी स्थित है।

गणेश प्रतिमा जगदलपुर संग्रहालय

गणेश की प्रतिमाओं की प्राप्ति सिरपुर संग्रहालय से भी हुई है। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में गाणपत्य धर्म के अंतर्गत गणेश की स्वतंत्र प्रतिमाओं के साथ-साथ उनका अंकन, सिरदल, अन्य देवताओं के साथ संयुक्त रूप में व अन्य स्थापत्य खंडों में हुआ है। जिसके साक्ष्य हमे सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ से प्राप्त होते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि पूर्व-मध्य काल में छत्तीसगढ़ में गाणपत्य धर्म का प्रभूत विकास हुआ।

संदर्भ ग्रंथ

  1. मनुस्मृति 1/8.
  2. श्रीवास्तव, बृजभूषण, प्राचीन भारतीय प्रतिमा विज्ञान एवं मूर्ति कला, 2007, पृ. 134.
  3. पुराणों में रूद्र के गणों की संख्या, 36,0000000 तक बतायी गयी है। मत्स्य पुराण 4/5, वायु पुराण, 3/142-43.
  4. मानव गृहसूत्र, 20.4.
  5. जोशी, नीलकण्ठ पुरूषोत्तम, प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान, पृ. 167.
  6. विष्णुधर्मेत्तर पुराण, 71, 13 – 16.
  7. महाभारत – अनुपर्व, 15/26.
  8. वराहपुराण, 23, 38.
  9. ब्रह्माण्ड पुराण, अ. 41.
  10. वृहत्संहिता, 58, 58.
  11. जोशी, नीलकण्ठ, पूर्वोक्त, पृ. 169.
  12. वर्मा, कामता प्रसाद, बस्तर की स्थापत्य कला, 5 वी शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक), शताक्षी प्रकाशन, रायपुर, 2008, पृ. 59.
  13. वर्मा, कामता प्रसाद, छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला (मध्य छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में, भाग-1) प्रकाशन संस्कृति एवं पुरातत्व, रायपुर, छत्तीसगढ़, 2014, पृ. 84.
  14. ठाकुर, विष्णु सिंह, राजिम, मध्य प्रदेश, हिन्दूग्रंथ अकादमी, भोपाल, 1972, पृ. 101.
  15. वर्मा, के. पी., महेशपुर की कला, पृ. 31.
  16. उपर्युक्त, पृ. 51.
  17. वर्मा, के. पी., छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला, (सरगुजा जिले के विशेष संदर्भ में) पृ. 52.
  18. वर्मा, कामता प्रसाद, बस्तर की स्थापत्य कला, पूर्वोक्त, पृ. 115.
  19. जैन, बालचंद्र, उत्कीर्ण लेख, रायपुर, 1961, पृ. 102.
  20. जैन, बालचंद्र, उपर्युक्त, पृ. 122.
  21. वर्मा, कामता प्रसाद, छत्तीसगढ़ का पुरातत्व एवं प्रतिमाएं, संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़, 2019, पृ.20.

फ़ोटो – ललित शर्मा

शोध आलेख

कु0 शुभ्रा रजक (शोध छात्रा)
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

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