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रींवा उत्खनन से प्रकाशित मृतिका स्तूप

दक्षिण कोसल/छत्तीसगढ़ प्रदेश के पूर्व में झारखण्ड और उड़ीसा, उत्तर में उत्तरप्रदेश, पश्चिम में महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश और दक्षिण में आन्ध्रप्रदेश तथा तेलंगाना की सीमाएं हैं। रींवा ( 21*21’ उत्तरी अक्षाश एवं 81*83’ पूर्वी देशांश ) के मध्य छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले से 25 कि. मी. दूरी पर पूर्वी दिशा में स्थित है।

रीवागढ़ कोलहान नाला के तट पर स्थित है। यह गढ़ ‘‘ लोरिक चंदा’’ नाम से अभिहित है।1 मृतिकागढ़ के मध्य 15 से 20 फीट तक ऊँचे टीले है। जिसका क्षेत्रफल लगभग 80 एकड़ में विस्तृत है। रीवागढ़ के चारो दिशा में बसाहट के अवशेष है। संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग द्वारा सत्र 2018-19 में उत्खनन कार्य किया गया। उत्खनन से स्तरीकरण का सांस्कृतिक कालक्रम निम्नानुसार है।

  1. प्रथम – पूर्व मौर्यकाल ( 6 वीं सदी ई.पू. )
  2. द्वितीय – मौर्यकाल ( 3 री सदी ई.पू. )
  3. तृतीय – मध्यकाल ( 3 री सदी ई.पू. से 3 री सदी ई. तक )
  4. चतुर्थ – कुषाण काल ( प्रथम/द्वितीय सदी ई. )
  5. पंचम – शरभपुरीय वंश ( 6 वीं/7 वीं सदी. )
  6. षष्टम – कलचुरिवंश ( 11 वीं सदी से 13 वीं सदी तक )
  7. सप्तम – मराठा/रियासत काल ( 18 वीं/19 वीं सदी ई.)

संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन से ‘‘स्तूप’’ प्रकाशित हुआ है। ऋग्वेद में दो बार ‘स्तूप’ का जिक्र किया गया है। स्तूप, समाधि स्थल को यादगार के लिए निर्मित किया जाता है। स्तूप वर्गाकार रूप में गोलाकार होते हैं। बौद्ध-धर्म की उत्पत्ति व विकास का महत्व, इतिहास तथा धर्म से संबंधित स्थलों में है।

छत्तीसगढ़ के रीवा उत्खनन से प्राप्त स्तूप (मृदा निर्मित) 36 मीटर वर्गाकार क्षेत्रफल में विस्तृत हैं। पूर्णतः मिट्टी से ढका हुआ है, भीतरी भाग 18 मीटर पर ईंट की दीवारें हैं। इस स्तूप के पूर्वी-पश्चिमी भार पर दोनों ओर सोपान (सीढ़िया) बने हुए हैं। स्तूप की वेदिका 1.25 मीटर लगभग सतह से हैं। रींवा उत्खनन से प्राप्त स्तूप के ऊपरी भाग पर 2.23 मीटर के स्तरीकरण से नौ स्तरों की जानकारी प्राप्त होती है। इनमें से पीली, काली, भूरी, मुरूम मिश्रित, राखयुक्त, पीली मिट्टी मिश्रित, कड़ा मुरूम, शुद्ध पीली मिट्टी एवं कंकरीट युक्त मिट्टी से निर्मित मृदा स्तूप, नवग्रह के रंगों से आमरण से गर्भस्थ हैं। बौद्ध धर्म से संबंधित यह महत्वपूर्ण पुरावशेष छत्तीसगढ़ के लिए महत्वपूर्ण है। इसका काल लगभग द्वितीय सदी ईसा पूर्व माना जाता है।

स्तूप निर्माण गौतम बुद्ध के बाद होने लगे। मौर्य सम्राट अशोक (272-232 ई.पू.) में देश भर में बौद्ध स्तूप बनवाये। स्तूप निर्माण की परम्परा अधिक बढ़ी जैसे- भरहुत, सांची, अमरावती, सारनाथ, तक्षशिला आदि प्राचीन स्तूप उल्लेखनीय हैं। गुप्त काल तथा मध्यकाल में भारत के विभिन्न भागों में जैन और बौद्ध स्तूपां, चैत्यों तथा विहारों का निर्माण हुआ।

वास्तुशास्त्र के उदभावको में विश्वकर्मा तथा मय के नाम अधिक प्रसिद्ध हैं। बौद्ध ग्रंथ, आगम, तंत्र, पुराण एवं वृहत्संहिता आदि ग्रंथों में वास्तु-विषयक प्रभूत सामग्री उपलब्ध है। बौद्ध जातकों तथा अन्य कतिपय पालि ग्रंथों में स्थापत्य विषयक रोचक विवरण मिलते हैं। ‘दीघ-निकाय’ ग्रंथ में 25 मुख्य शिल्पों की चर्चा है। ब्रम्हपाल सुत्त, वत्थु-विज्जा, वत्थुकम्म, वत्थु-परिकम्म थे।

स्तूप (पालि ‘थूभ’) वस्तुतः चितास्थल पर निर्मित टीला होता था, जो प्रारंभ में मिट्टी का बनाया जाता था। स्तूप की दूसरी संज्ञा इसीलिए ‘चैत्य’ हुई। मिट्टी के टीले को धीरे-धीरे ईंटो या पत्थरों से आच्छादित किया जाने लगा। बुद्ध के पूर्व वैदिक साहित्य के अनुसार ‘स्तूप’ शब्द किसी महापुरूष के स्मारक का द्योतक है। बौद्ध साहित्यों में स्तूप शब्द का प्रयोग मृत व्यक्ति की अस्थियों पर बनायी गई समाधि से है, जिसका आकार औधे कटोरेनुमा टीले जैसा हो। स्तूप शब्द स्मारकों के लिए प्रयुक्त होने लगा।

विद्वानो द्वारा ‘थूभ’ या ‘तुम्ब’ को स्तूप का प्राचीन स्वरूप माना है।6 शवों को बिना जलाये दफनाया जाता था। विकास की दूसरी अवस्था में स्तूप ‘शवागार’ (शमशान) का स्वरूप ग्रहण करता है। श्मशान का प्रारम्भिक आकार,थूहों जैसा ही था किन्तु उसके अंदर शव की जली हुई अस्थियों को विधिवत सहेजकर रखा जाता था। तीसरी स्थिति का विवरण ‘‘आश्वलायन गृहमासूत्र’’ में मिलता है। उसके अनुसार शव को जलाने के बाद अस्थियों को एक पात्र में एकत्रित कर पात्र के अन्दर रखा जाता था। चौथी स्थिति -‘महापरि निब्बान सूत्त’ के अनुसार शवों के जलाने से बची हुइ्र्र अस्थियों में से कुछ को ही स्तूप में दफनाया जाता था, सबको नहीं।

विकास की अन्तिम अवस्था में स्तूप केवल समाधि ही नहीं रह गया, वरन वह एक स्मारक भी बन गया, विकास का यह क्रम मौर्य काल तक पूर्ण हो गया प्राक मौर्य कालीन स्मारक-कौशाम्बी, राजघाट, एरण, विदिशा आदि स्थानां में जानकारी प्राप्त हुई है।7 वैदिक काल में समाधि रूप थुहों के बनाने की परंपरा चल चुकी थी। उसी परम्परा से कालान्तर में स्तूपों का आविर्भाव हुआ। बौद्ध स्तूपों का निर्माण निम्नलिखित उद्देश्यों से किया जाने लगा।

  1. महात्मा बुद्ध तथा उनके अनुनायियों के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिए।
  2. बुद्ध की पुरानी भवन, मूर्तियों या चिन्हों के ऊपर, मूर्ति के प्रति स्म्मान प्रकट करने हेतु।
  3. बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं अथवा पवित्र स्थानों को पूजनीय बनाने की दृष्टि से।
  4. संकल्पित स्तूप, जिनका निर्माण दानार्थ होता था। ये प्रायः आकार में छोटे होते थे। सम्राट अशोक ने स्तूपों के निर्माण में बड़ी रूची ली। जनश्रुतियों के अनुसार उसने भारत तथा अफगानिस्तान में 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया। तक्षशिला के धर्मराजिका स्तूप का निर्माता अशोक ही माना जाता है।
    ‘महापरिनिब्बान सुत्त’ में चार प्रकार के स्तूप वर्णित है।
  5. तथागत गौतम बुद्ध के स्मारक। 02. प्रत्येक बुद्धों के स्मारक। 03. मुख्य बौद्ध श्रावकों के स्मारक। 04. चक्रवर्ती राजाओं के स्मारक।
    बौद्ध साहित्य में ‘महास्तूप’ की निर्माण विधि के उल्लेख मिलतें है। महावंश में उसे ‘महाथूप’ या ‘चेतिस’ थी। स्तूपों का निर्माण दृढ़नीव के ऊपर किया जाता था। इस नींव को ‘पाषाणकुट्टिम’ कहते थे। ऊपर एक गोला बनाया जाता था, जिसे ‘अण्ड’ कहते थे। प्रारम्भिक स्तूपों का यह भाग प्रायः घण्टाकार होता था। अण्ड के ऊपरी भाग को समतल रखा जाता था। उसके ऊपर एक छोटा चबूतरा बनाकर उसे भी वेदिका से आवेष्ठित किया जाता था। इस अंश को ‘हर्मिका’ कहा जाता था जो देवता का निवास माना जाता था। हर्मिका के मध्य में दण्ड या यष्टि लगायी जाती थी। उसके ऊपर तीन छत्रों की छत्रावली होती थी। इन छत्रों की संख्या बाद में बढ़कर सात हो गयी।9 वेदिका की चारो दिशाओं में प्रत्येक ओर एक प्रवेशद्वार होता था, जो तोरण कहलाता था। स्तूप तथा महावेदिका के बीच खुले हुए स्थान को प्रदक्षिणा पथ कहते थे। मुख्य प्रदक्षिणा-पथ के अतिरिक्त ऐसा दूसरा पथ भी अण्ड के प्रायः मध्य भाग में बनाया जाता था। उसके चारों ओर लघु वेदिका रहती थी। तीसरा प्रदक्षिणा-पथ हर्मिका के चारों ओर रहता था, जिसकी वेदिका सबसे छोटी होती थी।
    निष्कर्ष- भारतवर्ष में उत्खनन से प्राप्त मृदा स्तूपो की भांति रींवा उत्खनन (छत्तीसगढ़) से प्राप्त यह मृदा स्तूप, बौद्ध स्मारक अत्यंत महत्वपूर्ण है। व्हेनसांग दक्षिण कोसल की यात्रा वृतान्त में रीवा के स्तूप का जिक्र किया है। सिरपुर से 16 मील दक्षिण में एक स्तूप, अशोक कालीन निर्मित था। उक्तानुसार यह पुरावशेष स्वमेव सिद्ध होता है। दक्षिण कोसल से प्राप्त अन्य बौद्ध स्मारकों से इसका तादाम्य समीकृत होता है। इस प्रदेश में उत्खनन से प्राप्त यह मृतिका स्तूप अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

संदर्भग्रंथ –

1- श्री ए.के.शर्मा/डॉ वृषोत्तम साहू, रीवा उत्खनन 2018-19 संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व रायपुर।

2- कृष्णादत्त बाजपेयी-भारतीय वास्तुकला का इतिहास, पृ.04.

3- पूर्वोक्त,- पृ.05.

4- आदि पर्व,1-207-30.

5- वासुदेव शरण अग्रवाल, इंडियन आर्ट, पृ.120.

6- दे. वद्आ, भरहुत, मिल्द-3, पृ.11.

7- डब्ल्यू. सी. पेप्सी तथा बी.ए. स्मिथ ‘‘ दि पिपरवा स्तूप जर्नल ऑफ दि रॉयल एशियाटिक सोसाइटी,1918, पृ.73 तथा आगे।

8- कृष्णदत्त बाजपेयी, उत्तरप्रदेश में बौद्ध धर्म का निवास-अध्याय-17.

9- दे. अग्रवाल-‘‘इडियन आर्ट’’ पृ./24-28.

सह लेखक – चेतन कुमार मनहरे

आलेख

डॉ. वृषोत्तम साहू
पुरातत्व विभाग, रायपुर छत्तीसगढ़

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