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राष्ट्रीय एकात्मता का प्रतीक : विवेकानन्द शिला स्मारक

स्वामी विवेकानन्द ने 19 मार्च, 1894 को स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखे पत्र में कहा था – “भारत के अंतिम छोर पर स्थित शिला पर बैठकर मेरे मन में एक योजना का उदय हुआ- मान लें कि कुछ निःस्वार्थ सन्यासी, जो दूसरों के लिए कुछ अच्छा करने की इच्छा रखते हैं, गाँव-गाँव जाएं, शिक्षा का प्रसार करें और सभी की, अंतिम व्यक्ति की भी दशा को सुधारने के लिए विविध उपाय खोजें – तो क्या अच्छा समय नहीं लाया जा सकेगा.?……. . एक राष्ट्र के रूप में हम अपना स्वत्व खो चुके हैं और यही भारत में व्याप्त सारी बुराइयों की जड़ है। हमें भारत को उसका खोया हुआ स्वत्व लौटाना होगा और जनसामान्य को ऊपर उठाना होगा।”

अंग्रेजों की गुलामी के उस विकट काल में भारतवासियों का आत्मविश्वास खो गया था, गरीबी और अभावों में जी रहे भारत के लोग अपना गौरव, अभिमान और आत्मविश्वास खो चुके थे, ऐसे में सबके स्वत्व को जाग्रत कर भारत के पुनरूत्थान के लिए स्वामी विवेकानन्द ने उक्त पत्र में वर्णित जिस कार्ययोजना के साथ कार्य आरंभ किया इसका वह उन्होंने जिस अंतिम छोर पर स्थित शिला पर बैठकर बनाई थी, वह थी कन्याकुमारी के समुद्र के मध्य में स्थित ‘श्रीपाद शिला’ और उसी शिला पर आज भारत के आध्यात्मिक गौरव को विश्वपटल पर उद्घोषित करता भव्य-दिव्य सेवातीर्थ विवेकानन्द शिला स्मारक स्थित है।

दिसम्बर 1892 का प्रसंग है । एक परिव्राजक सन्यासी के रूप में सम्पूर्ण भारत में लगभग दो वर्ष परिभ्रमण करने के उपरान्त जब स्वामी विवेकानन्द कन्याकुमारी पहुँच, तब वे गरीबी व अज्ञानता में घिरी और आत्मविश्वासविहीन भारतवासियों की स्थिति से बहुत व्यथित थे । बार-बार उनके मन में यही प्रश्न उठता रहता कि अपने भाई-बहनों के आत्मविश्वास को जगाने के लिए, मानवता के उत्थान के लिए और मातृभूमि की उन्नति के लिए वे क्या करें? वहाँ समुद्र के तट पर स्थित भगवती कन्याकुमारी के मन्दिर में भाव-विव्हल होकर प्रार्थना करने के उपरान्त जब वे बाहर आए तो उनका मन समुद्र की लहरों के मध्य स्थित शिला की ओर आकर्षित होने लगा। उस शिला पर माँ भगवती कन्याकुमारी ने तपस्या की थी, वहाँ पर उनके पचिन्ह भी अंकित हैं और इसीलिए उस शिला को श्रीपाद् शिला कहते थे। स्वामी विवेकानन्द को लगा कि शिला पर खड़ी स्वयं देवी भगवती उन्हें पुकार रही है, फिर वे रूक न सके, नाव में जाने के लिए पैसे तो थे नहीं पर निश्चय दृढ़ था, तो बस समुद्री जलचरों की परवाह न करते हुए समुद्र में कूद गए और तैरकर श्रीपाद् शिला पर पहुँच गए। उसी शिला पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ने 25, 26 व 27 दिसम्बर 1892 को तीन दिन और तीन रात निरन्तर ध्यान किया। वहीं उनके मन में भारत की सुशुप्त आध्यात्मिक शक्ति को जाग्रत करने की योजना बनी, जिसके बारे में स्वामीजी ने उक्त पत्र में कहा है। भारतीयों के मन में अपने देश के प्रति विश्वास जगाने और सुदृढ़ करने के लिए शिकागो विश्व धर्मसम्मेलन में जाकर भारत के गौरव को विश्वपटल पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय भी उन्होंने वहीं लिया ।

स्वर अनेक चुनौतियों, बाधाओं को पार करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका के शिकागो शहर पहुँचकर विश्व धर्मसम्मेलन में भाग लिया और 11 सितम्बर, 1893 को सम्पूर्ण विश्व के समक्ष पहली बार भारत के सांस्कृतिक गौरव और विश्व बंधुत्व में सनातन धर्म के महत्त्व को प्रखर में उद्घोषित किया। पहले ही दिन के भाषण ने स्वामीजी को न केवल अमरीका वरन् सम्पूर्ण विश्व में प्रतिष्ठित कर दिया । सम्पूर्ण संसार पर भारत की आध्यात्मिक विजय पताका फहराने के उपरान्त स्वामीजी ने स्वदेश लौटकर भारतवासियों का स्वाभिमान जाग्रत कर उन्हें राष्ट्रहित और विश्व कल्याण के लिए अपनी आन्तरिक दिव्यता को प्रकट करने हेतु प्रेरित किया । मनुष्य निर्माण और राष्ट्रोत्थान के संकल्प को साकार करने में जुटे रहे स्वामीजी को 1902 में अमरत्व की प्राप्ति हुई।

वर्ष 1963 स्वामी विवेकानन्द की जन्मशती का वर्ष था । सम्पूर्ण भारत में जन्मशती को उत्साहपूर्वक मनाया जा रहा था, तब कन्याकुमारी के लोगों के मन में यह विचार आया कि जिस श्रीपाद् शिला पर स्वामीजी ने ध्यान किया था, उसी पर उनका एक भव्य स्मारक निर्मित किया जाना चाहिए। प्रयत्न आरंभ हुए, विवेकानन्द शिला स्मारक समिति ने इस कार्य हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संपर्क कर सहयोग मांगा। संघ सरसंघचालक श्रीगुरूजी गोलवलकर ने एकनाथजी रानडे को इस कार्य का दायित्व सौंपा। स्मारक निर्माण के लिए प्रयत्न आरंभ हुए तो इसमें कई प्रकार की समस्याएं सामने आयीं । प्रथम तो ईसाई समुदाय का अनर्गल विरोध, फिर तमिलनाडू सरकार की भी असहमती प्रत्यक्ष हुई । एकनाथजी ने अपनी सूझबूझ और व्यवहार कुशलता से स्मारक को राष्ट्रीय स्वरूप देते हुए प्रार्थना पत्र तैयार किया और उस पर भारत के विविध दलों के 323 सांसदों के हस्ताक्षर केवल तीन दिन में प्राप्त कर लिये । राष्ट्रीय समर्थन मिलने पर तमिलनाडु सरकार से सहमती मिलना आसान हो गया।

सहमती प्राप्त होने पर दूसरी कठिनाई अर्थसंग्रह की आयी । चूंकि यह मानव कल्याण की प्रेरणा देने वाले राष्ट्रीय स्मारक के रूप में बनना था, इसलिए विचार हुआ कि इसके निर्माण में अधिकाधिक भारतवासियों की सहभागिता होनी चाहिए। तब समिति ने प्रस्तावित स्मारक व स्वामी विवेकानन्द के चित्र और उनके प्रेरक उद्धरण के साथ एक- एक रूपये के पत्रक मुद्रित करवाए । देशभर से लोगों ने एक व दो रूपये का सहयोग मुक्तहृदय से दिया, राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार से भी सहयोग प्राप्त हुआ। इस महायज्ञ में देश की सभी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय संस्थाओं ने पूरा समर्थन व सहयोग दिया। फिर तीसरी समस्या आयी बीच समुद्र में निर्माण कार्य करने की । क्षारीय पानी में निर्माण बड़ा ही कठिन कार्य था । किन्तु अनेक विशेषज्ञों की राय से योजना बनी, विशिष्ट प्रकार के ग्रेनाइट व अन्य निर्माण सामग्री का चयन हुआ, नावों में सामग्री शिला तक पहुँचाने की व्यवस्था भी बनी।

इस प्रकार अनेक प्रकार की बाधाओं से जूझते हुए लगभग 650 श्रमिकों के परिश्रम से छह वर्ष के रिकार्ड समय में उस समय के मूल्यानुसार एक करोड़ तीस लाख रूपये की लागत से यह भव्य और दिव्य विवेकानन्द शिला स्मारक (Vivekanand Rock Memorial) बनकर तैयार हुआ । रामकृष्ण मठ बेलूड़ के अध्यक्ष स्वामी वीरेश्वरानन्द महाराज ने स्मारक को प्रतिष्ठित किया और इसका औपचारिक उद्घाटन भाद्रपद शुक्ल द्वितीया अर्थात 2 सितम्बर, 1970 को भारत के तात्कालीन राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरि ने किया । हिन्दू पंचांग की इसी तिथि (अंग्रेजी कलेण्डर की 11 सितम्बर, 1893) को स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो धर्म सम्मेलन में सम्बोधित किया था ।

चूंकि यह एक ऐसा राष्ट्रीय स्मारक बना जिसमें विविध धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और वर्ग के लगभग 35 लाख स्त्री-पुरूषों ने एक रूपये के पत्रक के माध्यम से स्मारक के निर्माण में मनपूर्वक सहभागिता निर्वाह की थी, इसलिए सभी के मन में स्मारक पर आकर इस पावन स्थल को प्रणाम करने भाव था | कन्याकुमारी एक छोटा सा गाँव था और वहाँ अधिक लोगों के ठहरने की व्यवस्था भी संभव नहीं थी, इसीलिए यह निश्चित हुआ कि स्मारक का उद्घाटन समारोह दो महीनों तक चलेगा, विविध राज्यों के लिए अलग-अलग समयावधि भी निर्धारित की गई। ऐसे संभवतः न भूतो न भविष्यति समारोह में नितप्रतिदिन आने वाले लोग, ओंकार और मंत्रोच्चार की गूंज से महकते स्मारक पर अपने पादुकारहित पाँव रखते ही प्रणाम करते, कोई सिर झुकाकर पावन माटी को मस्तक पर लगाता, कोई दण्डवत होकर इस पुण्य धरा को नमन करता……. भाव-विव्हल दर्शनार्थी मानो भारत को अपनी पहचान और आध्यात्मिक सामर्थ्य से अवगत कराने वाले तेजस्वी संत स्वामी विवेकानन्द के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए, उनके त्यागमयी जीवन और नर सेवा–नारायण सेवा के अनुपम संदेश से प्रेरणा प्राप्त करते हुए, स्वयं को धन्य अनुभूत कर रहे हों। अपने भारत से प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए निश्चित ही यह पवित्र स्थल भी एक तीर्थ ही बन गया है।

वास्तव में तो कन्याकुमारी को पवित्रता और एकाग्रता का महत्तम प्रतीक कहा जाना यथोचित ही होगा। भारत की पावन नदियां गंगा और सिंधु, नर्मदा और गोदावरी, कृष्णा और कावेरी गंगासागर, सिंधुसागर और हिन्द महासागर के जल में समाहित होकर अन्ततः तीन महासागरों के इसी मिलन स्थल में आकर मिलती हैं। हमारी पौराणिक आस्था तीन नदियों के संगम प्रयाग को पवित्र तीर्थ मानती है, तो फिर कन्याकुमारी तो पवित्रतम महासंगम ही है। यह पूर्व और पश्चिम का मिलन बिन्दु भी तो है, कन्याकुमारी में भारत के उस नुकीले छोर पर खड़े होकर हम पूर्व दिशा में उगते हुए और पश्चिम में अस्त होते हुए सूर्य के बिम्ब को समुद्र में देख सकते हैं। साथ ही यह उत्तर और दक्षिण का मिलन केन्द्र भी है, देवी कन्याकुमारी यहाँ सुदूर दक्षिणी छोर पर अपने हाथों में अपने स्वामी भगवान शंकर के लिए हार लिये खड़ी हैं, जो हिमालय के उत्तरी सिरे पर कैलाश में निवास करते हैं ।

यह भावपूर्ण वर्णन करते हुए एकनाथजी कहते हैं- “यह एकता और पवित्रता का अनोखा प्रतीक है। मेरी यह आस्था और विश्वास है कि जो महान स्मारक इस पवित्र स्थल पर साकार हो रहा है, वह आने वाले दिनों में स्वामी विवेकानन्द के विचारों की एक ऐसी सशक्त धारा को
प्रवाहित करेगा कि समूचा राष्ट्र उससे आप्लावित हो जाएगा। यह सशक्त प्रवाह हमारे राष्ट्र, संस्कृति और लोगों में विद्यमान सभी उत्कृष्टताओं को एक करते हुए हमारे राष्ट्र – जीवन में फिर से नई स्फूर्ति का संचार करेगा और इस राष्ट्र को विश्व – कल्याण में अमूल्य भूमिका निभाने के लिए एक उपयुक्त और प्रभावकारी माध्यम के रूप में परिवर्तित कर देगा ।”

यथार्थ में आज हम पाते हैं कि कन्याकुमारी में समुद्र के मध्य में निर्मित यह विवेकानन्द शिला स्मारक एकता और पवित्रता के साथ-साथ पूरे राष्ट्र की एकीकृत महत्वाकांक्षाओं का अद्वितीय प्रतीक है। इस स्मारक में भारतीय स्थापत्य कला की समस्त सुदरता का अत्यन्त आनन्ददायक और मनमोहक मिलाप दिखाई देता है। यह निश्चित ही भारत की एकता का प्रतीक है, क्योंकि पूरे राष्ट्र ने इसके निर्माण की न केवल प्रबल इच्छा व्यक्त की वरन् पूर्ण दृढ़ता, विश्वास, श्रद्धा और मनोयोग से इसे साकार करने में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- “भारत की राष्ट्रीय एकता विभिन्न आध्यात्मिक शक्तियों के एकीकरण द्वारा ही संभव है।” और यह कथन इस विराट स्मारक पर विविध धर्म- मान्यताओं के संतों के निरन्तर आगमन से साकार होता प्रतीत हो रहा है। उनके ओजस्वी संदेश की स्मृति को प्रत्यक्ष करता यह स्मारक आध्यात्मिक शक्तियों के केन्द्र के रूप में हमें आत्मबल प्रदान कर रहा है।

दूरद्रष्टा एकनाथजी ने जब स्मारक का कार्य हाथ में लिया तभी से उनके मन में इसके दूसरे चरण की संकल्पना भी उमड़ रही थी । केवल स्मारक बना देना ही उनका ध्येय नहीं था । श्री जुगलकिशोर जी बिड़ला को 5 अप्रैल, 1965 को लिखे पत्र में उन्होंने स्पष्ट किया…….. आवश्यकता है, केवल उन उपेक्षित और परतन्त्र लोगों के प्रति अकृत्रिम आस्था और आत्मीयता रखने वाले दीर्घ उद्योगी चन्द कार्यकर्त्ताओं की व उनके सुनियोजित संगठित प्रयत्नों की । ‘विवेकानन्द स्मारक’ उस महान उद्योग – पर्व का सूत्रपात मात्र है। यदि भविष्य का वैसा स्पष्ट निर्देश मेरी बुद्धि को न मिलता तो केवल पत्थर के ऊपर पत्थर रखने के निर्जीव से कार्य में मुझे कोई रूचि न होती।” यही थी दूसरे चरण की योजना । एकनाथजी चाहते थे कि यह स्मारक एक ऐसा जीवन्त प्रेरणास्रोत बने जहाँ से राष्ट्र निर्माण की मूलभूत गतिविधियाँ तीव्र गति से चलाई जाएं, जिनकी अभिकल्पना स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्रीय व्यक्तित्व की पुनर्प्राप्ति और देश की उन्नति के लिए की थी। स्मारक के उद्घाटन के तुरन्त बाद से ही एकनाथजी पूर्णरूप से इस कार्य में लग गए। 1971 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा, लगभग चार माह विश्रांति के उपरान्त जुलाई 1971 से वे फिर पूरी ऊर्जा के साथ एक गैर-सन्यासी सेवा संघठन और समर्पित कार्यकर्ताओं के अखिल भारतीय प्रक्षिक्षण केन्द्र की स्थापना के कार्य का सूक्ष्म नियोजन करने में जुट गए।

लगभग नौ वर्ष के आधारभूत कार्य के उपरान्त 7 जनवरी, 1972 का वह दिन, पंचांग की तिथि के अनुसार स्वामी विवेकानन्द की 108वीं जयंती का दिवस था, इस पावन दिन की सुरम्य भोर में जैसे ही पूर्व क्षितिज पर अपनी लालिमा बिखेरते हुए सूर्य का उदय हुआ, परमगुरू दिव्य ‘ऊँ’ अंकित भगवा ध्वज विवेकानन्द शिला स्मारक के आनन्दमयी वातावरण के उन्मुक्त आकाश में फहराने लगा और अध्यात्म प्रेरित सेवा संगठन – विवेकानन्द केन्द्र की विधिवत स्थापना एवं उद्घोषणा हुई। निश्चित ही इस शिला पर माँ भगवती की तपश्चर्या और स्वामी विवेकानन्द के गहन ध्यान से उत्पन्न असीम दिव्य ऊर्जा ही मानव कल्याण और राष्ट्र निर्माण हेतु संकल्पित इस सेवा संगठन के रूप में फलित हुई । केन्द्र के ध्येय के विषय में स्पष्ट करते हुए एकनाथजी सेवा ही साधना’ पुस्तक में लिखते हैं – “यदि हम केवल सेवा संगठन हैं तो हमें प्रभु से प्रार्थना करनी होगी कि वे तूफान, बाढ़, दुर्भिक्ष और दुर्घटनाएं भेजें ताकि हमें सेवा के अवसर प्राप्त हों । आध्यात्मिक दृष्टि से की गई सेवा मनुष्य निर्माण के रूप में प्रतिपादित होती है और यह राष्ट्र-निर्माण के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इस संगठन के पीछे जो विचार कार्यरत है उसका अंतरंग केन्द्र यही है।” उन्होंने यह भी उद्घोषित किया- “हमारा संगठन सेवोन्मुखी होगा जहाँ नर-सेवा वास्तविक नारायण सेवा होगी।” स्वामी विवेकानन्द ने कहा है – “आवश्यकता है केवल मनुष्य, मनुष्य और मनुष्य की….मनुष्य जो पूर्णतः प्रामाणिक और निष्ठावान हों।” और इस ध्येय की पूर्ति के लिए एकनाथजी ने जीवनव्रती व स्थानीय कार्यकर्ताओं के सुनियोजित प्रशिक्षण की सुव्यवस्थित योजना भी बनाई और उसे क्रियान्वित भी किया ।

जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द को शिला से मानव कल्याण के जीवन लक्ष्य की प्रेरणा मिली, उसी प्रकार एकनाथजी रानडे ने शिला पर स्मारक निर्मित करते हुए मिली प्रेरणा से विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना की, जो आज हजारों कार्यकर्त्ताओं द्वारा संचालित एक विराट आध्यात्मिक सेवा केन्द्र के रूप में विकसित हो चुका है। आज ‘व्यक्ति निर्माण और राष्ट्र पुनरूत्थान’ के ध्येय को लेकर विवेकानन्द केन्द्र की 245 शाखाएं नियमित रूप से योग वर्ग, संस्कार वर्ग, स्वाध्याय वर्ग और केन्द्र वर्ग का संचालन करती हैं। समय-समय पर योग सत्र, व्यक्तित्व विकास शिविर, युवा प्रेरणा शिविर, विमर्श, संवाद आदि और विद्यालय व महाविद्यालयी विद्यार्थियों के लिए स्वाध्याय प्रतियोगिताएं, आवासीय शिविर तथा विविध उत्सवों का भी आयोजन होता रहता है। इसके साथ ही 85 विवेकानन्द केन्द्र विद्यालय, 200 आनन्दालय और 195 बालवाड़ी के माध्यम से शिक्षा सेवा एवं विविध क्षेत्रों में स्थापित संस्थानों के माध्यम से चिकित्सा व स्वास्थ्य सेवा, ग्रामीण व जनजातीय कल्याण व कौशल विकास के कार्य तथा सांस्कृतिक अध्ययन और अनुसंधान, प्रशिक्षण व मानवीय उत्कृष्टता के लिए भी केन्द्र निरन्तर कार्य कर रहा है। विविध भाषाओं में नियमित पत्रिकाओं के प्रकाशन के द्वारा वैचारिक जाग्रति के लिए भी सतत् प्रयत्नशील है। इन सब सेवा कार्यों में जुटे हुए कार्यकर्ता निश्चित ही विवेकानन्द शिला स्मारक से निरन्तर प्रेरणा और ऊर्जा प्राप्त करते हैं ।

खुले आकाश और मधुर संगीत उत्पन्न करती समुद्र की बलखाती लहरों के मध्य, आनन्ददायक सुगन्धित स्वच्छ वायु और मन को आध्यात्मिक शांति प्रदान करते दिव्य वातावरण में स्थित इस विवेकानन्द शिला स्मारक परिसर में श्रीपाद मंडपम्, स्वामी विवेकानन्द सभा मंडपम् और ध्यान मंडपम् प्रमुख स्थान हैं, जो बरबस ही देश-विदेश के लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। हमने यह जाना ही है कि श्रीपाद् शिला के रूप में विख्यात और पूज्य इस शिला पर देवी भगवती ने तप किया और अपने पचिन्ह अंकित किये, उसी स्थल पर श्रीपाद् मंडपम् बना हुआ है। पराशक्ति के पूज्य पचिन्ह के कारण ही स्मारक दैवीय तीर्थ भी है। यहाँ आने वाले लोग श्रद्धापूर्वक देवी भगवती के चरण चिन्हों की पूजा-अर्चना करते हैं। स्मारक के केन्द्र में स्वामी विवेकानन्द सभा मंडपम् बना हुआ है, जिसमें ग्रेनाइट से बनी स्वामी विवेकानन्द की आदमकद प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा में विवेकानन्द की दृष्टि सीधी श्रीपाद् मंडपम की ओर देखते हुए है, मानो स्वामीजी विश्व के कल्याण और भारत की उन्नति के लिए देवी माँ से सतत् प्रार्थना कर रहे हों। सौम्य – तेजस्वी रूप का प्रगटीकरण करती इस प्रतिमा को देखते हुए ऐसी अनुभूति होती है, जैसे इसमें विद्यमान साक्षात स्वामी विवेकानन्द अपनी ओजस्वी वाणी में युवा पीढ़ी से आह्वान कर रहे हों- ‘उठो! जागो! और लक्ष्य प्राप्ति तक रूको मत!’ तीसरा महत्वपूर्ण स्थान है ध्यान मंडपम्, इसमें सूर्य रश्मियों के समान दमकते परमगुरू ‘ऊँ’ चिन्ह के समक्ष ध्यानस्थ बैठने की व्यवस्था है। इस परिसर में निरन्तर मधुर ओंकार की ध्वनि गूंजायमान होती रहती है। इस आध्यात्मिक वातावरण में बैठते ही मन को असीम शांति का अनुभव होता है, अनायास ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा इस शिला पर किये गए ध्यान की स्मृति साकार हो आती है। विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना के दिन से प्रतिदिन स्मारक के शिखर पर सूर्योदय से सूर्यास्त तक फहराया जाने वाला ‘ऊँ’ अंकित भगवा ध्वज सम्पूर्ण विश्व के समक्ष भारतीय संस्कृति का गौरवगान करता प्रतीत होता है।

कन्याकुमारी तट पर स्थित विवेकानन्दपुरम् विवेकानन्द केन्द्र का मुख्यालय है। राष्ट्रीय राजमार्ग और हिंद महासागर के मध्य में लगभग 100 एकड़ क्षेत्र में स्थित यह परिसर राष्ट्रीयता से ओतप्रोत आध्यात्मिक भावभूमि है। यहाँ एकनाथजी के स्वप्न को साकार करता केन्द्र के जीवनव्रती कार्यकर्त्ताओं के लिए प्रशिक्षण केन्द्र है, जहाँ समाज की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले युवक-युवतियों को प्रशिक्षित कर देश के विभिन्न प्रान्तों में कार्य हेतु भेजा जाता है। अनमोल ग्रंथों को संग्रहित करता नालंदा ग्रंथालय, निर्धन विद्यार्थियों हेतु विवेकानन्द केन्द्र विद्यालय व बालवाड़ी, योगाभ्यास हेतु पतंजलि योगकक्ष तथा जीवनव्रतियों व विविध योगशिक्षा एवं आध्यात्मिक शिविरों में आने वाले शिविरार्थियों हेतु पर्याप्त आवास व्यवस्था भी है। लगभग 1000 दर्शनार्थियों के लिए समुचित आवास भी उपलब्ध है। स्वामी विवेकानन्द का जीवन दर्शन कराती ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्रदर्शनी, एकनाथजी के समर्पित जीवन को दर्शाती ‘गंगोत्री प्रदर्शनी’, भारत के समग्र विकास को दिखाने वाला ‘ग्रामोदय दर्शन उपवन’, भारत के गौरव और रामायण की कथा को आकर्षक जीवन्त चित्रों में प्रदर्शित करती अद्भुत ‘रामायण दर्शनम्– म् – भारतमाता सदनम्’ प्रदर्शनी के साथ ‘एकाक्षर महागणपति मंदिर’ भी परिसर में स्थित है। यह स्मारक संभवतः विश्व का एकमात्र ऐसा उदाहरण बन गया है, जहाँ ग्रेनाइट के

स्मारक ने एक जीवित स्मारक को एक सशक्त सेवा संगठन को जन्म दिया है। वास्तव में यह विवेकानन्द शिला स्मारक स्वामी विवेकानन्द के प्रति भारतीयों की श्रद्धा के प्रगटीकरण की कहानी
है, सुप्त भारत के एकत्व और आत्मविश्वास से परिपूर्ण होकर जगने का इतिहास है, प्रस्तर शिला को भव्य-दिव्य स्मारक में परिवर्तित करने और अध्यात्म से प्रेरित होकर सेवा कार्य करने वाले विशाल, सुनियोजित, सुव्यवस्थित संगठन की स्थापना के असंभव प्रतीत होने वाले कार्य को संभव कर दिखाने का अद्भुत चमत्कार है, एक पराजित दिखने वाले कार्य का सुनिश्चित विजय में रूपांतरण है, सार रूप में कहें तो जगद्गुरू के रूप में विश्व स्तर पर उभरते भारत का गौरवपूर्ण साक्षात्कार है।

स्मारक का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी ने कहा था-“विवेकानन्द ने प्रत्येक व्यक्ति को चरित्र व सत्यनिष्ठा अपनाने और निःस्वार्थ सेवा करने पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत चरित्र का विकास करना हमारी प्राथमिकता है, ऐसा होने पर उनके जीवन में राष्ट्रीय चरित्र का चिन्तन सदैव बना रहेगा ।” दो माह चले समारोह के दौरान 31 अक्टूबर,1970 को वहाँ आए उपराष्ट्रपति श्री जी. एस. पाठक ने अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा—“विवेकानन्द शिला स्मारक पीढ़ीयों को प्रेरणा देता रहेगा। यह लोगों को सदैव प्राचीन भारतीय संस्कृति, विश्वधर्म और विश्वबंधुत्व की याद दिलाता रहेगा। ध्यान मंडपम् उन सभी को मन की शांति प्रदान करेगा, जो इस बात पर विश्वास रखते हैं कि आन्तरिक श्रद्धा-पूजा ही बाह्य उपासना का मूल है। स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएं संतप्त मानवता को शक्ति प्रदान करने का स्रोत बनें और सभी के जीवन में प्रसन्नता लाए ।” 16 सितम्बर 1970 को आयीं प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा – “कन्याकुमारी आना और यह देखना कि किस तरह स्वामी विवेकानन्द के संदेश के प्रति हजारों लोगों की श्रद्धा ने इस स्मारक को संभव बनाया है, मेरे लिए हृदयस्पर्शी अनुभव रहा है। संभवतः यहाँ आने वाले लोगों को यह स्मारक प्रेरणा देगा और स्वामीजी की महान् शाश्वत शिक्षाएं उनके जीवन को उत्कृष्टता की ओर ले जाने की ऊर्जा प्रदान करेंगी।”

यह सब संभावनाएं आज प्रत्यक्ष फलीभूत हो रही हैं। 1970 से 2021 तक शिला स्मारक के दर्शनार्थ आए देश-विदेश के 6.68 करोड़ स्त्री पुरूषों की संख्या इस बात का भी प्रमाण है कि सम्पूर्ण विश्व के लोगों के मन में स्वामी विवेकानन्द के प्रति असीम आस्था, श्रद्धा और विश्वास है, जिसे अभिव्यक्त करने वे दूर-दूर से यात्रा करके यहाँ आते हैं और घंटों- दिनों तक स्वामीजी की प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना व ध्यान करते हैं, ऐसा करके निश्चित ही उनका आत्मविश्वास तो प्रबल होता ही है अपितु इस दिव्य धरा से प्रेरणा लेकर वे कहीं न कहीं मानव कल्याण के पुनीत कार्य में अपनी सहभागिता भी सुनिश्चित करते ही हैं।

राष्ट्रीय एकात्म के प्रतीक शिला स्मारक पर प्रतिमा रूप में खड़े स्वामी विवेकानन्द आज भी हमें समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्य के निर्वहन का मार्ग दिखाते हुए आह्वान कर रहे हैं— “भारत तभी जगेगा, जब सैंकड़ों विशाल हृदय वाले स्त्री व पुरुष, अपनी सभी इच्छाओं व भोग विलास को त्यागकर अपने लाखों करोड़ों देशवासियों के कल्याण के लिए अधिकतम श्रम करेंगे।”

आलेख

श्री उमेश कुमार चौरसिया साहित्यकार एवं संस्कृति चिंतक, अजमेर (राजस्थान)

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