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स्वामी विवेकानन्द की धर्म की अवधारणा

12 जनवरी युवा दिवस विशेष आलेख

‘उठो! जागो!…और लक्ष्य प्राप्ति तक रूको मत!‘ भारत की आध्यात्मिक शक्ति, सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति का गौरव विश्वभर में स्थापित करते हुए मानवता के कल्याण और राष्ट्र पुनरूत्थान के प्रति जीवन समर्पित कर देने वाले युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द का यह हृदयभेदी आह्वान आज भी युवा पीढ़ी को प्रेरणा दे रहा है।

भारत की स्वाधीनता के क्रांतिवीर सुभाषचन्द्र बोस कहते थे कि स्वामी विवेकानन्द के लिए धर्म ही राष्ट्रवाद का प्रेरक था। उन्होंने भारत की नयी पीढ़ी में अपने अतीत के प्रति गर्व, भविष्य के प्रति विश्वास और स्वयं में आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान की भावना जगाने का प्रयास किया। आयु में कम परन्तु ज्ञान में असीम स्वामी विवेकानन्द ने 40 वर्ष से भी कम के जीवनकाल में वह कर दिखाया जो कई सौ वर्ष की उम्र लेकर भी किया जाना संभव नहीं लगता।

सनातन हिन्दू धर्म और वेदान्त के गौरव को पहली बार न केवल विश्व पटल पर प्रस्तुत किया वरन् भारतीय अध्यात्म और दर्शन की महत्व के समक्ष सबको नतमस्तक भी कर दिया। अपनी ओजस्वी वाणी में सिंहघोष करते हुए विवेकानन्द ने भूखे-दरिद्रों का देश कहे जाने वाले भारत को विश्व के आध्यात्मिक गुरू की प्रतिष्ठा दिलायी और भारत की श्रेष्ठता के प्रति भारतवासियों का आत्मविश्वास बढ़ाया।

ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस के सबसे प्रिय शिष्य नरेन्द्र 1887 के जनवरी माह में जीवन ध्येय पाने की तीव्र पिपासा लिये परिव्राजक सन्यासी के रूप में भारत-भ्रमण के लिए निकल पड़े थे। देशाटन के दौरान उन्होंने पाया कि यह राष्ट्र श्री रामकृष्ण के जीवन का प्रतिबिम्ब जैसा ही है। जो धर्म ठाकुर का प्राण रहा वही धर्म भारत की आत्मा है।

अध्यात्म भारत का विशिष्ट गुण है। भ्रमण के अन्तिम चरण में कन्याकुमारी में समुद्र के मध्य में स्थित श्रीपाद् शिला (जहाँ स्वयं माँ जगदम्बा ने अपने चरण चिन्ह छोड़े) पर 25 से 27 दिसम्बर, 1892 तक लगातार तीन दिन-तीन रात भारत के उत्थान के लिए ध्यान-चिन्तन करते हुए उन्होंने अनुभव किया कि अपनी एकात्मता की आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करके ही भारत पुनरूत्थान कर सकता है।

अमरीका जाकर शिकागो विश्व धर्मसंसद में भारत की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए स्वामी जी ने कहां-‘यदि इस पृथ्वीतल पर कोई ऐसा देश है, जो मंगलमयी पुण्यभूमि कहलाने का अधिकारी है; ऐसा देश, जहाँ संसार के समस्त जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना ही है। ऐसा देश जहाँ ईश्वरोन्मुख प्रत्येक आत्मा का अपना अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए पहुँचना अनिवार्य है। ऐसा देश जहाँ मानवता ने ऋजुता, उदारता, शुचिता एवं शान्ति का चरम शिखर स्पर्श किया हो तथा इस सबसे आगे बढ़कर जो देश अन्तर्दृष्टि एवं आध्यात्मिकता का घर हो, तो वह देश भारत ही है।‘

पश्चिम से लौटकर स्वामीजी ने लगभग एक वर्ष तक कोलम्बो से अलमोड़ा और बाद में दूर उत्तर राजस्थान तक की यात्रा करते हुए आह्वान किया -‘दुर्बलताओं और अंधविश्वासों को उखाड़ फैंको और नए भारत का निर्माण करो। भारत के सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन के संगीत का मूल स्वर धर्म है, यही धर्म विश्व को आध्यात्मिक एकात्मकता का उपदेश देगा। उन्होंने सिंहनाद किया-‘भारत उठो! अपनी आध्यात्मिकता से सारे संसार को जीत लो।‘

भारत में अनेक आक्रांता आए और उन्होंने यहाँ धर्म और अध्यात्म के केन्द्र विशाल मंदिरों-मठों के विध्वंस का कुत्सित प्रयास किया। किन्तु युगों तक इतने आघात सहकर भी हमारी संस्कृति को कोई मिटा नहीं सका। जैसे ही विध्वंस की आँधी गुजरी हमारे देवालय फिर से उसी गौरव के साथ खड़े हो गए।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -‘इस राष्ट्र का प्राण कहाँ है? वह धर्म में है। कोई उसको नष्ट नहीं कर पाया, इसीलिए हिन्दू जाति इतनी आपत्तिा- विपत्तियों को सहकर भी आज जीवित है।‘ हिन्दू धर्म पर गर्व करते हुए वे यह भी कहते हैं-‘यदि आज ‘हिन्दू‘ शब्द का कोई बुरा अर्थ लगाया जाता है, तो उसकी परवाह मत करो। आओ! हम सब अपने आचरण से संसार को यह दिखा दें कि संसार की कोई भी भाषा इससे महान् शब्द का आविष्कार नहीं कर पायी है।‘ और साथ ही कतिपय भ्रमित नयी पीढ़ी को पाश्चात्य अन्धानुकरण के प्रति सावचेत करते हुए उनके शब्द चेतावनी भी देते हैं-‘हे भारत! यह तुम्हारे लिए सबसे भयंकर खतरा है।

पश्चिम के अन्धानुकरण का जादू तुम्हारे ऊपर इतनी बुरी तरह सवार होता जा रहा है कि ‘क्या अच्छा है और क्या बुरा‘ इसका निर्णय अब तर्क-बुद्धि, न्याय, हिताहित, ज्ञान अथवा शास्त्रों के आधार पर नहीं किया जा रहा है। जिन विचारों-आचारों को गोरे साहब पसन्द करें अथवा जिनकी वे प्रशंसा करें, वहीं बातें अच्छी हैं, जिन बातों की वे निन्दा करें अथवा नापसन्द करें वही बुरी। ओह! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय और कोई क्या देगा? यदि तुम पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता के चक्कर में पड़कर आध्यात्मिकता का आधार त्याग दोगे तो उसका परिणाम होगा कि तीन पीढ़ियों में तुम्हारा जातीय अस्तित्व मिट जाएगा।‘

वर्तमान समय में हम देखते हैं कि भारत में अधिकांश लोग हिन्दू धर्म को मानने वाले हैं लेकिन उनमें एकता का भाव कहीं शिथिल पड़ गया है। तब भी ऐसी ही स्थितियों थी, जिन पर चिन्तन करते हुए तब स्वामी विवेकानन्द ने कहा- ‘यदि भारत को महान् बनाना है, इसका भविष्य उज्जवल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन करने की और बिखरी हुई इच्छाशक्तियों को एकत्र करने की।

यदि तुम ‘आर्य‘ और ‘द्रविड़‘, ‘ब्राह्मण‘ और ‘अब्राह्ममण‘ जैसे तुच्छ विषयों को लेकर तू-तू मैं-मैं करते रहोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे, तो समझ लो कि तुम उस शक्ति संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य गठित होने वाला है।‘ इसीलिए आज इस बात की आवश्यकता है कि हिन्दू धर्म के प्रति श्रद्धाभाव रखने वाले सभी जाति-संप्रदाय के भारतवासी एकमत हो जाएं, संगठित हो जाएं और समाज में समरसता का भाव स्थापित हो।

स्वामीजी के जीवन के अनेक प्रसंगों से भी हमें यही प्रेरणा मिलती है। एक बार राजस्थान के एक रेल्वे स्टेशन पर ठहरे स्वामीजी लगातार तीन दिन तक आध्यात्मिक चर्चा में डूबे रहे। सुनने वाले लोगों का ताँता लगा रहा और स्वामीजी बिना कुछ खाये-पीये प्रवचन देने में तल्लीन रहे। तीसरी रात एक निर्धन ने चिन्ता जताई कि इस तरह तो आपका स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा। स्वामीजी ने उससे पूछा-‘क्या तुम मुझे खाना दोगे?‘ वह निर्धन मोची था इसलिए थोड़ा हिचकिचाते हुए बोला-‘मेरे हाथ का खाना आप कैसे खाएंगे। मैं आपके लिए अलग से आटा इत्यादि ले आता हूँ।‘

तब स्वामीजी ने आत्मीयता से कहा-‘नहीं भाई, मैं तो आपके हाथ की बनी हुई रोटियाँ ही खाऊँगा।‘ और फिर बड़े प्रेम से दोनों ने साथ बैठकर भोजन ग्रहण किया। यह स्वामीजी की केवल उदारता नहीं थी, वरन् उनका भारतवासियों के प्रति अगाढ़ प्रेम था। जाति, वर्ग, ऊँच-नीच, गरीब-अमीर, अछूत-अस्पर्श्यता जैसा कोई भेद उनके मन में कभी नहीं रहा और वे भारत के समस्त हिन्दू समाज से भी सदैव यही अपेक्षा करते रहे।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-‘इस देश में अनेक पंथ या संप्रदाय हुए हैं। आज भी वे काफी संख्या में हैं और भविष्य में भी बड़ी संख्या में होंगे।……संप्रदाय अवश्य रहें, पर सांप्रदायिकता दूर हो जाए। …….ये सब मतभेद और झगड़े एकदम बन्द हो जाने चाहिए।‘ और वे ये भी कहते हैं-‘हमारे पास एकमात्र मिलन-भूमि है- हमारी पवित्र परम्परा, हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है और उसी पर हमें संगठित होना पड़ेगा।‘

हिन्दू समाज में निहीत सहिष्णुता की विशिष्टता को इंगित करते हुए स्वामीजी ने कहा है-‘हिन्दू की प्रवृत्ति विभिन्न दर्शनों को नष्ट करने की नहीं होती, अपितु सभी का समन्वय करने की होती है। यदि भारत में कोई नया विचार आता है, तो हम उसका विरोध नहीं करते, केवल उसे ग्रहण करने, उसका समन्वय करने की चेष्टा करते हैं।‘

वे कहते थे कि अन्य धर्मां की तरह हिन्दुओं ने कभी एक भी धर्म प्रचारक संसार में किसी का धर्म परिवर्तन करने के लिए नहीं भेजा। स्वामीजी कहते थे कि हम हिंदू लोग केवल सहिष्णु ही नहीं हैं, हम प्रत्येक धर्म में स्वयं को एकाकार कर देते हैं।…. हम धर्म निरपेक्ष इस अर्थ में नहीं हैं कि हम धर्म के प्रति उदासीन हैं, वरन् इसलिए कि हम सब धर्मां को पवित्र मानते हैं।

जनवरी,1900 में कैलिफोर्निया में दिये भाषण में विवेकानन्द कहते हैं कि मैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ, जो सब प्रकार की मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिए उपयोगी होय इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव से रहेंगे। राजयोग मनस्त्तव विषय का योग है-मनसत्व के विष्लेषण से ही एकत्व को प्राप्त किया जा सकता है। हमारे लिए ज्ञान लाभ का केवल एक ही उपाय है-एकाग्रता।,यदि कोई भी किसी विषय को जानने की चेष्टा कर रहा है तो उसको एकाग्रता से ही काम लेना पड़ेगा।

कर्मयोग का अर्थ है-कर्म द्वारा ईष्वर-लाभ। दुःखों और कष्टों का भय ही मनुष्यों के कर्म और उद्यम को नष्ट कर देता है। अतः अनासक्त भाव से केवल कर्म के लिए कर्म करना चाहिए, कर्मयोग यही शिक्षा देता है। भक्तियोग हमें निःस्वार्थ भाव से प्रेम करने की शिक्षा देता है। किसी भी सुदूर स्वार्थभाव से, लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा से नितांत रहित होकर केवल ईश्वर को अथवा जो कुछ मंगलमय है, केवल उसी से कर्तव्य समझकर प्रेम करो। ज्ञानयोग मनुष्य से कहता है, तुम्हीं स्वरूपतः भगवान हो। यह मानव जाति को प्राणिजगत् के बीच यथार्थ एकत्व दिखा देता है।

योग, भक्ति, कर्म और ज्ञान के इस प्रकार के समन्वय को सार्वभौमिक धर्म का अत्यन्त निकटतम आदर्ष बताते हुए विवेकानन्द कहते हैं कि भगवान् की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे, तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्ष यही होगा। इस तरह चारों ओर समभाव से विकास लाभ करना ही मेरे कहे हुए धर्म का आदर्ष है और भारतवर्ष में हम जिसको योग कहते हैं, उसी के द्वारा इस आदर्ष धर्म को प्राप्त किया जा सकता है।

वे कहते हैं कि धर्म अनुभूति की वस्तु है-वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है-चाहे वह जितना ही सुन्दर हो। आत्मा ही ब्रह्मस्वरूप है इसको जान लेना, तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है-केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण, विष्वास की वस्तु के साथ एक हो जाए। यही धर्म है।

स्वामी विवेकानन्द ने सही अर्थां में विश्व बंधुत्व का भाव सारे संसार के सामने रखा और कहा- ‘सांप्रदायिकता, संकीर्णता और इनसे उत्पन्न भयंकर धार्मिक उन्माद हमारी इस पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुके हैं। इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी थक गई है। आओ हम भारतीय आध्यात्मिक विचार को अपने कर्म के माध्यम से पूरे विश्व में फैलाएं।‘

आलेख

श्री उमेश कुमार चौरसिया साहित्यकार एवं संस्कृति चिंतक, अजमेर (राजस्थान)


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