‘‘यत्र नार्यस्तु पूजयंते, रमंते तत्र देवता,‘‘ अर्थात जहाँ नारी का सम्मान होता है वहाँ देवताओं का वास होता है। भारतीय संस्कृति में नारी को देवी का स्थान दिया गया है। देश में माँ दुर्गा को शक्ति की देवी, लक्ष्मी को धन की देवी, सरस्वती को विद्या और ज्ञान की देवी माना गया है। साथ ही माता सीता, पार्वती, सावित्री और माँ काली का नाम भी श्रद्धापूर्वक लिया जाता है और घर-घर में उनका पूजन होता है।
वास्तव में भारत की संस्कृति मातृ प्रधान संस्कृति है। देश और समाज के निर्माण में महिलाओं की अहम् भूमिका होती है। महिलाओं की रचनात्मक भूमिका के बिना समाज का विकास सम्भव नहीं है। हमारे वेद और ग्रंथ नारी शक्ति के योगदान से भरे पड़े हैं। ऐसा ही एक ऐतिहासिक योगदान रानी दुर्गावती ने भी दिया है, इन्होंने अपनी वीरता का परचम लहराकर सम्पूर्ण विश्व को नारी शक्ति का अहसास करवाया।
रणभूमि में विश्व की प्रथम महिला योद्धा रानी दुर्गावती कुशल योद्धा के साथ-साथ कुशल प्रशासक एवं जन नायक भी थी। अपने समय में उन्होंने जो जनकल्याण के कार्य किए वो आज के लिए उदाहरण हैं। रानी दुर्गावती अपनी मातृभूमि की रक्षा और स्वाभिमान के लिये अपने प्राण न्यौछावर कर अमर हो गई। उन्होंने जाति और धर्म से परे देश प्रेम को सर्वोपरि माना। इस वीरांगना ने अपनी प्रजा की भलाई एवं कला संस्कृति के विकास के लिये अनेक कार्य किये।
रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल के यहाँ हुआ था। वे अपने पिता की इकलौती संतान थीं। दुर्गाष्टमी के दिन जन्म होने के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।
दुर्गावती चंदेल वंश की थीं और कहा जाता है कि इनके वंशजों ने ही खजुराहो मंदिरों का निर्माण करवाया था और महमूद गज़नी के आगमन को भारत में रोका था। लेकिन 16वीं शताब्दी आते-आते चंदेल वंश की ताकत बिखरने लगी थी।
दुर्गावती बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में रूचि रखती थीं। उन्होंने अपने पिता के यहाँ घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवारबाजी जैसे युद्धकलाओं में महारत हासिल की। अकबरनामा में अबुल फज़ल ने उनके बारे में लिखा है, “वह बंदूक और तीर से निशाना लगाने में बहुत माहिर थीं। और लगातार शिकार पर जाया करती थीं।”
18 साल की उम्र में दुर्गावती का विवाह गोंड राजवंश के राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े बेटे दलपत शाह के साथ हुआ। मध्य प्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में रहने वाले गोंड वंशज 4 राज्यों पर राज करते थे- गढ़-मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला। दुर्गावती के पति दलपत शाह का अधिकार गढ़-मंडला पर था।
दुर्गावती का दलपत शाह के साथ विवाह बेशक एक राजनैतिक विकल्प था। क्योंकि यह शायद पहली बार था जब एक राजपूत राजकुमारी की शादी गोंड वंश में हुई थी। गोंड लोगों की मदद से चंदेल वंश उस समय शेर शाह सूरी से अपने राज्य की रक्षा करने में सक्षम रहा।
रानी दुर्गावती ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था।
वर्तमान का जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल का निर्माण करवाया जो आज भी विद्यमान हैं।उन्होंने अपने पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलकर राज्य की सीमाओं का विस्तार भी किया।
योद्धा- रानी दुर्गावती-
1556 में मालवा के सुल्तान बाज़ बहादुर ने गोंडवाना पर हमला बोल दिया। लेकिन रानी दुर्गावती के साहस के सामने वह बुरी तरह से पराजित हुआ। पर यह शांति कुछ ही समय की थी। दरअसल, 1562 में अकबर ने मालवा को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया था। इसके अलावा रेवा पर असफ खान का राज हो गया। अब मालवा और रेवा, दोनों की ही सीमायें गोंडवाना को छूती थीं तो ऐसे में अनुमानित था कि मुग़ल साम्राज्य गोंडवाना को भी अपने में विलय करने की कोशिश करेगा।
1564 में असफ खान ने गोंडवाना पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में रानी दुर्गावती ने खुद सेना का मोर्चा सम्भाला। हालांकि, उनकी सेना छोटी थी, लेकिन दुर्गावती की युद्ध शैली ने मुग़लों को भी पसीने छुड़वा दिए। उन्होंने अपनी सेना की कुछ टुकड़ियों को जंगलों में छिपा दिया और बाकी को अपने साथ लेकर चल पड़ीं।
जब असफ खान ने हमला किया और उसे लगा कि रानी की सेना हार गयी है तब ही छिपी हुई सेना ने तीर बरसाना शुरू कर दिया और उसे पीछे हटना पड़ा। कहा जाता है, इस युद्ध के बाद भी तीन बार रानी दुर्गावती और उनके बेटे वीर नारायण ने मुग़ल सेना का सामना किया और उन्हें हराया। लेकिन जब वीर नारायण बुरी तरह से घायल हो गये तो रानी ने उसे सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और स्वयं युद्ध की बागडोर संभल ली।
रानी दुर्गावती के पास केवल 300 सैनिक बचे थे। जब रानी को सीने और आँख में तीर लगे तो उनके सैनिकों ने उन्हें युद्ध छोडकर जाने के लिए कहा। लेकिन इस योद्धा रानी ने ऐसा करने से मना कर दिया। वह अपनी आखिरी सांस तक मुग़लों से लडती रहीं।
जब रानी दुर्गावती को आभास हुआ कि उनका जीतना असम्भव है तो उन्होंने अपने विश्वासपात्र मंत्री आधार सिंह से आग्रह किया कि वे उसकी जान ले लें ताकि जीते जी दुश्मन उन्हें छू भी न सके। लेकिन आधार ऐसा नहीं कर पाए तो उन्होंने खुद ही अपनी कटार अपने सीने में उतार ली। और अपनी अंतिम सांस तक अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई।
आलेख
वीरांगना दुर्गावती पर आपने एक बहुत ही उच्च कोटि का ब्लॉग लिखा है सच में आपने दुर्गावती के जीवन का एक बहुत ही शानदार ढंग से उल्लेख किया है इसके लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं