Home / इतिहास / वल्लभाचार्य की जन्मभूमि चम्पारण एवं चम्पेश्वर महादेव

वल्लभाचार्य की जन्मभूमि चम्पारण एवं चम्पेश्वर महादेव

पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मभूमि छत्तीसगढ के रायपुर जिले के अभनपुर ब्लॉक के ग्राम चांपाझर में स्थित है। देश-विदेश से बहुतायत में तीर्थ यात्री दर्शनार्थ आते है पुण्य लाभ प्राप्त करने। कहते हैं कि कभी इस क्षेत्र में चम्पावन होने के कारण इसका नाम चांपाझर पड़ा। कालांतर में इसे चम्पारण के नाम से जाना जाता है।

महान दार्शनिक तथा पुष्टि मार्ग के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को संवत् 1535 अर्थात सन् 1479 ई. को रायपुर जिले में स्थित महातीर्थ राजिम के पास चम्पारण्य (चम्पारण)में हुआ था। महाभारत में चम्पारण्य का उल्लेख चम्पातीर्थ के नाम से कोसल के अंतर्गत किया गया है। छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम कोसल था। राजिम तथा चम्पारण्य तीर्थ महानदी के तट पर आसपास स्थित है।

तपोभूमि छत्तीसगढ में पुराणो में वर्णित चित्रोत्पला गंगा (महानदी) की धारा के समीप स्थित राजिम के कमल क्षेत्र पास स्थित इस इस वन में भारद्वाज गोत्र के तैलंग ब्राह्मण परिवार में इल्लमा गारु की कोख से महाप्रभु वल्लभाचार्य ने जन्म लिया। इनके पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट था। इनके पुर्वज गोदावरी के तट पर स्थित ग्राम काकरवाड़ में निवास करते थे। लक्ष्मण भट्ट एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने का संकल्प लेकर पत्नी सहित काशी की यात्रा पर निकले थे। प्राचीन काल में उत्तर भारत को जाने का मार्ग छत्तीसगढ से ही होकर जाता था। महानदी के किनारे बसे हुए सिरपुर में (श्रीपुर) में 639 ई. में प्रसिद्ध चीनी यात्री व्हेनसांग के कोसल आने का उल्लेख मिलता है। वह भी इसी मार्ग से आंध्रप्रदेश की ओर गया था।

श्री लक्ष्मण भट्ट अपने संगी-साथियों के साथ यात्रा के कष्टों को सहन करते हुए जब वर्तमान मध्य प्रदेश में रायपुर ज़िले के चंपारण्य नामक वन में होकर जा रहे थे, तब उनकी पत्नी को अकस्मात प्रसव-पीड़ा होने लगी। सांयकाल का समय था। सब लोग पास के चौड़ा नगर में रात्रि को विश्राम करना चाहते थे; किन्तु इल्लमा जी वहाँ तक पहुँचने में भी असमर्थ थीं। निदान लक्ष्मण भट्ट अपनी पत्नी सहित उस निर्जंन वन में रह गये और उनके साथी आगे बढ़ कर चौड़ा नगर में पहुँच गये।

उसी रात्रि को इल्लम्मागारू ने उस निर्जन वन के एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु को जन्म दिया। बालक पैदा होते ही निष्चेष्ट और संज्ञाहीन सा ज्ञात हुआ, इसलिए इल्लम्मागारू ने अपने पति को सूचित किया कि मृत बालक उत्पन्न हुआ है। रात्रि के अंधकार में लक्ष्मण भट्ट भी शिशु की ठीक तरह से परीक्षा नहीं कर सके। उन्होंने दैवेच्छा पर संतोष मानते हुए बालक को वस्त्र में लपेट कर शमी वृक्ष के नीचे एक गड़ढे में रख दिया और उसे सूखे पत्तों से ढक दिया। तदुपरांत उसे वहीं छोड़ कर आप अपनी पत्नी सहित चौड़ा नगर में जाकर रात्रि में विश्राम करने लगे।

दूसरे दिन प्रात:काल आगत यात्रियों ने बतलाया कि काशी पर यवनों की चढ़ाई का संकट दूर हो गया । उस समाचार को सुन कर उनके कुछ साथी काशी वापिस जाने का विचार करने लगे और शेष दक्षिण की ओर जाने लगे। लक्ष्मण भट्ट काशी जाने वाले दल के साथ हो लिये। जब वे गत रात्रि के स्थान पर पहुंचे, तो वहाँ पर उन्होंने अपने पुत्र को जीवित अवस्था में पाया। ऐसा कहा जाता है उस गड़ढे के चहुँ ओर प्रज्जवलित अग्नि का एक मंडल सा बना हुआ था और उसके बीच में वह नवजात बालक खेल रहा था।

उस अद्भुत दृश्य को देख कर दम्पति को बड़ा आश्चर्य और हर्ष हुआ। इल्लम्मा जी ने तत्काल शिशु को अपनी गोद में उठा लिया और स्नेह से स्तनपान कराया। उसी निर्जन वन में बालक के जातकर्म और नामकरण के संस्कार किये गये। बालक का नाम ‘वल्लभ’ रखा गया, जो बड़ा होने पर सुप्रसिद्ध महाप्रभु वल्लभाचार्य हुआ। उन्हें अग्निकुण्ड से उत्पन्न और भगवान की मुखाग्नि स्वरूप ‘वैश्वानर का अवतार’ माना जाता है।

वल्लभाचार्य जी का आरंभिक जीवन काशी में व्यतीत हुआ था, जहाँ उनकी शिक्षा-दीक्षा तथा उनके अध्ययनादि की समुचित व्यवस्था की गई थी। उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट ने उन्हें गोपाल मन्त्र की दीक्षा दी थी और श्री माधवेन्द्र पुरी के अतिरिक्त सर्वश्री विष्णुचित तिरूमल और गुरुनारायण दीक्षित के नाम भी मिलते हैं। वे आरंभ से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और अद्भुत प्रतिभाशाली थे। उन्होंने छोटी आयु में ही वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, काव्यादि में तथा विविध धार्मिक ग्रंथों में अभूतपूर्व निपुणता प्राप्त की थी। वे वैष्णव धर्म के अतिरिक्त जैन, बौद्ध , शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अपने ज्ञान और पांडित्य के कारण काशी के विद्वत समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त किया था।

चम्पारण की यात्रा हम लोग बचपन से करते रहे हैं। उस समय सिर्फ़ घने वृक्षों के बीच छोटा सा स्थान बना हुआ जहाँ मुर्तियाँ स्थापित थी। आस-पास में सागौन के वृक्षों का जंगल था। मान्यतानुसार इस स्थान के वृक्षों को सूखने के पश्चात भी कोई काटता नहीं था। इससे अनिष्ट की आशंका थी। अभी भी यहाँ बहुत सारे सूखे पेड़ खड़े हैं जिन्हे कोई काटता नहीं है। धीरे-धीरे इस स्थान का विकास हुआ। तीर्थयात्री आने लगे। दान दाताओं के धन से धर्मशालाओं का निर्माण हुआ।

लोक मान्यता के अनुसार एक बार चरवाहे के गायों के झुंड में से राधा नामक बांझेली गाय रम्भाती हुई घनघोर जंगल की ओर भाग निकली। उस वन में पेड़-पौधों की सघनता इतनी अधिक थी कि यदि वहां कोई घुस जाये, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता था। राधा बांझेली गाय रोज सुबह-शाम इसी तरह उस घनघोर जंगल में भाग जाया करती थी। ऐसा करते हुए पूरा एक सप्ताह बीत गया। ग्वाला चरवाहा सोच में पड़ गया कि आखिर यह गाय रोज जंगल की ओर क्यों भाग जाती हैं? उसके मन में एक कौतुहल पैदा हो गया कि आखिर बात क्या है?

एक दिन जब राधा बांझेली गाय। झुंड से निकल जंगल की ओर भाग रही थी, तो ग्वाला चरवाहा भी उसके पीछे हो लिया। आगे-आगे बांझेली राधा गाय और पीछे-पीछे ग्वाला चरवाहा। जंगल घनघोर व सघन होने के कारण अंधकारमय था। वृक्षों की लता फैले होने के कारण कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। धीरे-धीरे आगे बढते हुए अचानक ग्वाला चरवाहा ने देखा कि एक शमी वृक्ष के नाचे राधा बांझेली गाय के थन से दूध की धारा लगातार अदभुत लिंग के ऊपर गिर रही थी। ग्वाला चरवाहे ने गांव जाकर अपनी आंखों देखी बात सभी को बतायी, लेकिन उस ग्वाला चरवाहा की बात पर किसी ने विश्वास नहीं किया। सभी ने उसकी बात को हंसी में उड़ा दिया। यह बात पुरे गांव में फैल गई।

उत्सुकतावश ग्रामीण जन ग्वाला चरवाहा के बताये स्थान पर गये और वहां उन्होंने जो नजारा देखा, वह चमत्कारी ही था। वहां बांझेली राधा गाय भगवान महादेव शिव की लिंग, त्रिमूर्ति जिस पर एक साथ महादेव, माता पार्वती एवं गणेश जी प्रतिष्ठित थे, पर अपने थनों से अजस्त्र दूध प्रवाहित कर रही थी। बाद में ग्रामीण जन द्वारा मंत्रोच्चार पूजा आराधना की गई। गांव मे बैठक कर भगवान महादेव के देवस्थल पर घास-फूस काटने के लिए गांव का पूरा काम दिन भर बंद था। उसके बाद युवा पीढी में उत्साह का संचार हुआ और झोपड़ीनुमा मंदिर का जीर्णोदधार कर महादेव मंदिर स्थल की जगह पर पक्का मंदिर बनाया गया।

ऐतिहासिक इस जंगल प्राचीन तीर्थ स्थल श्री चम्पेश्वर महादेव मंदिर के नाम से विश्व प्रसिद्ध है। अपने प्रकार की भिन्नता परस्पर चली आ रही है। यहां मधुमक्खियों के समूह देखे जा सकते है। इस मंदिर में गर्भवती स्त्री, रजस्वला, चमड़ा एवं जूता ले जाना वर्जित है और इस मंदिर में जो अंतरात्मा से आराधना करता है उस व्यक्ति की मनोकामना पूरी होती है। इस मंदिर का संबंध पंचकोशी यात्रा से है:- जिसमें 1. फणीकेश्वर 2. चम्पेश्वर 3. बम्हनेश्वर 4. कोपेश्वर 5. पटेश्वर शामिल हैं। एक बार मैने भी इस पंच कोशी की यात्रा की थी। हम पाँच स्थानों पर स्थित शिवमंदिरों के दर्शनार्थ गए थे।

लगभग आज से 30 वर्षों पूर्व मुंबई से एक वल्लभाचार्य जी के अनुयायी कृष्णदास अड़िया जी चम्पारण पहुंचे। यहां उन्होने लगभग डेढ करोड़ रुपए का दान दिया। जिससे इस स्थान पर निर्माण कार्य शुरु हुआ। उसके पश्चात अड़िया जी स्थायी रुप से यहीं रहने लगे। इनके प्रयास से चम्पारण के इस स्थान को भव्यता प्राप्त हुई। वर्तमान में यहाँ पर सुदामापुरी नामक भव्य धर्मशाला का निर्माण हुआ। दान दाताओं के नाम मंदिर की दीवालों पर लिखे गए हैं। मंदिर स्थान को चटक रंगों के बेल बूटों से सजाया गया है। इस प्रकार चम्पारण के मंदिर ने भव्यता ग्रहण की। तीर्थ यात्रियों का आगमन बारहों माह होते रहता है। चम्पारण की नयनाभिराम भव्यता देखते ही बनती है।

आलेख

ललित शर्मा इण्डोलॉजिस्ट रायपुर, छत्तीसगढ़

About hukum

Check Also

भाषा के प्रति बाबा साहेब का राष्ट्रीय दृष्टिकोण

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के लिए भाषा का प्रश्न भी राष्ट्रीय महत्व का था। …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *