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राष्ट्ररक्षा का भाव ही वनवासी समाज का मूल स्वभाव

“यदि मेरे पास शक्ति है तथा मैं इसका प्रयोग कर सकता हूँ तो मुझे धर्म-परिवर्तन को रोकना चाहिए। हिंदू परिवारों में मिशनरी के आगमन का अर्थ वेशभूषा, तौर-तरीके, भाषा, खान-पान में परिवर्तन के कारण परिवार का विघटन है।” -गांधीजी ‘हरिजन’, 5 नवम्बर 1935

स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव अर्थात 75 वीं गौरवशाली वर्षगाँठ पर स्वाभाविक ही है हम जनजातीय समाज का भी स्मरण करें। जनजातीय समाज का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपना व्यापक, विस्तृत व विशाल योगदान रहा है। विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध वर्ष 812 से लेकर 1947 तक भारत की अस्मिता के रक्षण हेतु इस समाज के हजारों लाखों यौद्धाओं ने अपना सर्वस्व बलिदान किया है।

जनजातीय समाज की आतंरिक सरंचना ही कुछ इस प्रकार की विलक्षण है कि यह सदैव स्वयं को देश की मिट्टी से जुड़ा हुआ पाता है। इस समाज की प्रत्येक पीढ़ी ने केवल जनजातीय परम्पराओं और राज्यों के लिए ही संघर्ष नहीं किया बल्कि वनों से लेकर नगरीय समाज तक प्रत्येक देशज तत्व की विदेशियों से रक्षा का कार्य इन्होने किया है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में जनजातीय समाज की अद्भुत गौरवशाली सैन्य, सांस्कृतिक, सामाजिक, कला, नाट्य, वास्तु, खाद्ध्य परंपरा, चित्रकला, शस्त्र विद्या, आपताकाल में कूट शब्दों में संवाद, वनप्रेम, प्रकृति पूजा, पशुप्रेम व आदि जैसे अनेकों अनूठे व विलक्षण गुणों की चर्चा आवश्यक हो जाती है।

अंग्रेजों के बाद से अब तक पिछले तीन सौ वर्षों से वनवासी बंधू नगरीय समाज की कुदृष्टि का शिकार रहे है। अंग्रेजी शासन के दो सौ वर्षों मे तो जनजातीय समाज जैसे अंग्रेजों की गिद्धदृष्टि के केंद्र मे था। धर्मांतरण की दृष्टि से ब्रिटेन से जितनी भी राजनैतिक, आर्थिक, समाजसेवी संस्थाएं आती थी वे सबसे प्रथम जनजातीय समाज को ही अपना शिकार बनाती थी। होता यह था की अंग्रेजों को देश मे शासन करने के लिए यहां वहां सतत प्रवास करना होता था।

वनों, खनिज-खदानों व अन्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अंग्रेज़ो का लक्ष्य था और ये सभी जनजातीय क्षेत्रों मे स्थित थे। अंग्रेजों को यहाँ प्रवास करने होते थे और जंगलों से गुजरना होता था, तब प्रवास मे बहुधा ही उनका संघर्ष इस जनजातीय समाज से होता था। अंग्रेज़ो व जनजातियों के परस्पर संघर्ष भारत के नगरीय समाज के संघर्षों से कहीं बहुत अधिक पैने, मारक व हानिप्रद सिद्ध होते थे अंग्रेज़ो के लिए।

इन संघर्षो से घबराकर अंग्रेजों ने जनजातीय समाज को अपनी नीतियों का केंद्र बना लिया था। दबाव से, दमन से, बहला फुसलाकर, लालच देकर, येन केन प्रकारेण अंग्रेज़ जनजातीय समाज को नियंत्रण मे रखना चाहते थे। अंग्रेजों ने इस हेतु न जाने कितने ही हास्पिटल, विद्यालय, महाविद्यालय, सेवा प्रकल्प, रोजगार के साधन जनजातीय समाज को दिये, किंतु, जनजातीय समाज था कि किसी भी प्रकार से अंग्रेजों के वश मे नहीं आया था।

यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्या कारण था की बेहद साधनहीन, निर्धन व कम से कमतर साधनों से जीवन जीने वाला जनजातीय समाज अंग्रेज़ो से न तो दबाव मे आता था और न ही उनके बहलावे फुसलावे मे आता था। यह अंग्रेजों ही नहीं अपितु शेष नगरीय भारतीयों के लिए भी आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा का विषय था कि वनवासी सतत दो सौ वर्षों तक अंग्रेजों के साथ संघर्ष करते रहे किंतु कभी उनसे दबे नहीं।

देश के कोने कोने में जनजातीय बंधू ऐसे बसे हुए थे की उनमें परस्पर कोई संवाद नहीं था। उस कालखंड में संवाद संचार के माध्यम होते भी नहीं थे। समूचे देश में सैंकड़ों किमी दूर दूर बसे वनवासी समाज में केवल एक ही समानता थी की ये सभी अपनी भूमि, संस्कृति, परम्पराओं हेतु नागर समाज से बड़ा व पैना संघर्ष करते रहे। देश के विभिन्न भागों में बसे इन वनवासी समाज के प्रत्येक भाग में विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध संघर्ष सदैव ही जागृत दिखाई देता था।

यद्दपि इन सतत संघर्षों मे वनवासी समाज ने लाखों बलिदान दिये और वे अपनी भूमि छोड़कर यहां वहां भागने को विवश होते रहे तथापि वे अंग्रेज़ो के परम लक्ष्य धर्मांतरण से मीलों दूर ही रहे। धर्मांतरण हेतु जिस प्रकार का अत्याचारपूर्ण चरम दबाव अंग्रेजों ने वनवासियों पर बनाया था, जिस प्रकार के करोड़ो रुपयों के स्वास्थ्य शिक्षा प्रकल्प जनजातीय क्षेत्रों मे प्राम्भ किए थे उस हिसाब से स्वतंत्रता तक भारत मे जनजातीय समाज समाप्तप्राय हो जाना चाहिए था।

बलिहारी इस समाज की, कि, यह तमाम दबावों के बाद भी अपनी संस्कृति को सुदृढ़ता से थामे रहा। यह एक अध्ययन का विषय है कि जनजातीय समाज की इस जिजीविषा का कारण व ऊर्जा का स्त्रोत क्या था? जनजातीय समाज की जिजीविषा का अशेष स्त्रोत था उनके बड़ादेव, देव परंपरा, पूजा पद्धति, प्रकृति को देव मानने की उनकी अटूट आस्था व सबसे बड़ी बात उनके भगत, भूमका, बड़वे, भोपे आदि।

जनजातीय बंधुओं की समाज व्यवस्था भी उनकी इस सुदृढ़ता का बड़ा कारण थी। जिस प्रकार मधुमक्खी के छत्ते मे करोड़ो मधुमक्खियाँ केवल एक रानी मक्खी से नियंत्रित रहती थी उसी प्रकार जनजातीय समाज भी अपने अपने स्थानीय टोले के भगत, भूमका, बड़वे, भोपे के प्रत्यक्ष नियंत्रण मे रहने को ही अपना धर्म समझता था। जिस प्रकार रानी मधुमक्खी अपने झुंड के हितों हेतु अपना सर्वस्व त्यागने हेतु भी तत्पर रहती है उसी प्रकार जनजातीय समाज के ये भगत भूमका भी अपने बजरे, टोले, ढाने के लिए वैचारिक ढाल की भूमिका मे अटल बने रहते थे।

यह भी सत्य ही है कि यदि ये जनजातीय समाज अंग्रेजों के संपूर्ण गुलाम बन जाते तो संभवतः अंग्रेज़ भारत से आज भी न गए होते। और, यह भी सत्य है कि जनजातीय और वनवासी समाज अंग्रेजों से केवल और केवल अपनी समाज व्यवस्था व देव प्रेम के कारण ही लोहा ले पाया था। यही कारण रहा कि जनजातीय समाज भारत की सामरिक रीढ़ रहा है।

नगरीय दृष्टि से देखने पर यह यह एक दीन, हीन, हेय समाज लगता है। दुखद यह है कि इस वनवासी समाज को आज भी दैन्य दृष्टि से ही देखा भी जाता है, किंतु आदिकाल से लेकर आज तक यह भारत का सर्वाधिक आत्मनिर्भर, समृद्ध, सुसंस्कृत, सुशील व श्रेष्ठ समाज रहा है। संघर्षों मे वनवासी समाज ने लाखों बलिदान दिये और वे यहां वहां भागने को विवश होते रहे तथापि वे अंग्रेज़ो के परम लक्ष्य धर्मांतरण से मीलों दूर ही रहे।

धर्मांतरण हेतु जिस प्रकार का चरम दबाव अंग्रेजों ने वनवासियों पर बनाया था जिस प्रकार के करोड़ो रुपयों के स्वास्थय शिक्षा प्रकल्प जनजातीय क्षेत्रों मे प्राम्भ किए थे उस हिसाब से स्वतंत्रता तक भारत मे आरण्यकसमाज को समाप्तप्राय हो जाना चाहिए था। बलिहारी इस समाज की, कि, वह तमाम दबावों के बाद भी अपनी संस्कृति को सुदृढ़ता से थामे रहा।

आज भी देश का कथित सभ्य व नागर समाज जनजातीय समाज की इस देव परंपरा के मर्म को नहीं समझ पाया है। हम देखेंगे तो पाएंगे कि जनजातीय समाज की देव परंपरा शनैः शनैः हमारे ग्रामीण परिवेश मे तो भली भांति प्रवेश कर गई है और कई स्थानों पर नगरीय क्षेत्र भी इन जनजातीय देवी देवताओं को पूजते हैं। हमारे लगभग सभी कस्बों, ग्रामों, नगरों के प्रारम्भ मे मिलने वाले खेड़ापति मंदिर जनजातीय देव परंपरा का ही एक अंग है।

जनजातीय देव जैसे बड़ादेव, बुढ़ादेव, फड़ापेन, घुटालदेव, भैरमदेव, डोकरादेव, चिकटदेव, लोधादेव, पाटदेव, सियानदेव, ठाकुरदेव आदि देवता आज वनवासी समाज के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों मे भी पूजनीय देव माने जाते हैं। यह देव परंपरा ही गहन अरण्य में रहने वाले आरण्यक समाज, ग्रामों के ग्रामीण समाज व नगरों के नागर समाज की जिजीविषा का मर्म है। इस परंपरा को हम जितना थामे रखेंगे उतना ही स्वदेश जीवित रह पायेगा, अन्यथा तो अपने ही देश मे हमारा परदेशी होना तय है।

लेखक विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार है।

श्री प्रवीण गुंगनानी

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One comment

  1. विवेक तिवारी

    सटीक विवेचन👌👌👌

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