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तत्कालीन कहानियों में विभाजन की त्रासदी

वर्तमान पीढ़ी को स्वतंत्रता मायने ही नहीं जानती, क्योकि इनका जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ है। इस स्वतंत्रता को प्राप्त करने में पूर्व की पीढ़ी ने कितने कष्ट सहे और क्या-क्या अत्याचार झेले, इसके विषय में वर्तमान पीढ़ी को जानना आवश्यक है तभी स्वतंत्रता का सही मुल्यांकन कर उसकी रक्षा कर पायेगी।

स्वतंत्रता की सबसे बड़ी त्रासदी बंटवारा है। नक्शे पर बिना सोचे समझे एक रेखा खींच दी गई और हो गया विभाजन याने बंटवारा। इस बंटवारे में किसने कितना और क्या क्या खोया, इसका आंकलन आज तक नहीं हो पाया। अगर आंकलन कर भी लें तो भी विभाजन की विभिषिका से उपजे दुख, दर्द, पीड़ा और मानवता की हत्या का आंकलन करने का कोई पैमाना आज तक नहीं बना है।

इस बंटवारे की विभिषिका की भयावहता के समाचार तत्कालीन समाचार पत्रों ने प्रकाशित किये तो तत्कालीन साहित्यकारों ने अपने शब्दों में बांधने का प्रयास किया। यह विश्व की एक मात्र ऐसी घटना थी जिसे बांधते हुए शब्द भी कराह उठे, उनके भी आंसु अविरल झरे होंगे।

आज भी मैं विभाजन से उपजी त्रासदी की कहानियाँ या समाचार पढ़ता हूँ तो सिहर उठता हूँ। जब कोई भरापूरा घर छोड़कर आधी रात जीवन की अनिश्चितताको कांधे पर उठाये निकला होगा तो उसके मन में क्या चल रहा होगा? अगर सिर्फ़ यही कल्पना कर लें तो एक रात नहीं, जीवन भर की रातों की नींद उड़ जाएगी।

इस त्रासदी का जिक्र लेखकों ने अपनी कहानियों उपन्यासों में किया है। यह कहानियाँ कोई फ़ंतासी नहीं है। उन्होंने विभाजन का दंश झेला और उसे करीब से देखा और महसूस किया है, विभाजन की त्रासदी की सत्यकथाएं ही लिखी। इनसे पता चलता है कि आजादी ऐसे ही सेंत में नहीं मिली।

आजादी का इतना मुल्य चुकाया गया जो किसी अन्य सभ्यता या राष्ट्र द्वारा चुकाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। इससे ज्ञात होता है कि आजादी हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है, जिसके लिए पुरखों ने अपना स्वर्स्व अर्पण कर दिया।

विभाजन से उपजे दंगे हाहाकारी थे, क्रूरता की हद पार कर चुके थे। लोगों का धन, घर बार तो छूटा ही छूटा, स्त्रियाँ भी लुट ली गई। भाई चारे का सारा ताना बाना बिखर गया। तत्कालीन समय में बंटवारे की विभिषिका पर साहित्यकारों ने अपनी कलम चलाई, उनकी कुछ कहानियों से आपका साक्षात्कार करवा रहा हूँ

@जयंति दलाल की कहानी “लुटा हुआ” का एक अंश –

उसका नया जीवन ही शुरू हुआ था! बहुत बार उससे पूछा गया तब उस घाव के बारे में पता चला। कहती है कि उसने आत्महत्या करने के लिए किरपान उठायी तब किसी ने पीछे से उसका हाथ पकड़ा और खींचातानी में किरपान से कान से होंठों तक घाव हो गया। उसके शरीर में खून बह रहा था तभी कोई उसे उठाकर ले गया।

सुच्चासिंह ने बार-बार पूछा, मिन्नत की, धमकी भी दी, एक बार तमाचा भी लगा दिया, पर घाव के अतिरिक्त दूसरी बातों के लिए उसने एक शब्द भी नहीं कहा। उसकी आँखों में भय, विषाद और बेबसी की छाया दिखाई देती है।

वह क्यों नहीं बोलती? पत्नी पति से अपने दु:ख की बातें नहीं कहेगी तो किससे कहेगी? उसका इस दुनिया में और है भी कौन?

सुच्चासिंह को अपनी आँखों पर विश्वास न रहा। इन्दर की छाती पर यह क्या है? गोदना गुदवाया है’पाकिस्तान जिन्दाबाद!’ इन्दर यही छिपाती थी?

सुच्चासिंह के रोम-रोम में आग थी लेकिन इन्दर कुछ बोलती नहीं थी। उस पर कपड़ा ढँकने का भी प्रयत्न उसने नहीं किया। वह वैसी ही प्रतिमा-सी रही निश्चेष्ट।

@देवेन्द्र इस्सर की कहानी मुक्ति का अंश –

लीलावन्ती का एक छोटा-सा घर था। वह उन दिनों रावलपिंडी में रहा करती थी। वहीं उसके छोटे बच्चे ने जन्म लिया था। गो लीलावन्ती जेहलम की रहने वाली थी, लेकिन उसकी ससुराल रावलपिंडी में ही थी। फिर आंजादी की रात आयी और उसके साथ-साथ उसके घर में छुराबरदार गुंडे भी आये। उसने अपनी लड़की को गुंडों से बचाने के लिए चारपाई के नीचे छिपा दिया, लेकिन गुंडे जानते थे कि उसकी एक जवान लड़की है, जिसकी जल्द ही शादी होने वाली थी। उन्होंने लीलावन्ती से लड़की का पता पूछा। लेकिन लीलावन्ती मां थी। वह अपने सामने अपनी लड़की की बेइज्जती न देख सकती थी। उसने शीला का पता बताने से इन्कार कर दिया। कुछ लोगों का खयाल था कि लीलावन्ती को ही शिकार बनाया जाए, लेकिन घर में जवान लड़की के होते हुए कौन इस अधेड़ औरत से मुंह काला करे? गुंडों ने एक नई तरकीब सोची। उन्होंने उसके पति को पकड़ लिया और उसके सामने ही उसके पेट में छुरा भोंकने की धमकी दी। लीलावन्ती कुछ सोच न सकी। उसे एक ओर पति की खून में लिपटी हुई लाश नंजर आने लगी और दूसरी ओर चीखों, आहों और सिसकियों में डूबा हुआ शीला का जिस्म। मां और बीवी का टकराव इस जोर से हुआ कि लीलावन्ती का सिर घूम गया और वह बेहोश हो गयी। जब वह होश में आयी, तो उसने दूसरे कमरे से शीला की चीखों की आवांज सुनी। सामने उसका पति रस्सी से बंधा हुआ पड़ा था। वह दौड़ी-दौड़ी दूसरे कमरे में गयी। उसने दरवांजे को घूंसों से तोड़ना चाहा, उसके दरवाजे से अपना सिर टकराया। अन्दर से शीला की दिलदोज चीखों और गुंडों के वहशी कहकहों की आवांजें आ रही थीं। ममता चीख रही थी और दरवंजाजा कहकहे लगा रहा था। वह बेबस थी। वह चाहती तो थी कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए। फिर दरवाजा खुला और गुंडे शीला को उठाकर ले गये।जब गलियाँ, घर, देश छूट जाता है तो उसकी टीस आजीवन हृदय में रहती है।

@ गुलजार अहमद की कहानी “यादे” का एक अंश –

बूढ़ा अब अधिक प्रसन्न लग रहा था। सहसा वह गम्भीर होकर कहने लगा”बेटे, मेरा एक काम अवश्य करना। मैं तुम्हें आशीर्वाद दूंगा। जब तुम उस घर में जाओ, तब वहाँ रहनेवालों से विनती करके उस आम के पेड़ का एक ताजा पत्ता मांग लेना। फिर वह पत्ता बड़ी खबरदारी से मेरे पास पार्सल कर देना। मैं यहां पार्सल छुड़ा लूंगा…यही मेरा सबसे बड़ा काम है। तुम्हारी मुझ पर बड़ी कृपा होगी।…” बहुत समय तक वह सिन्ध के विषय में बातें करता रहा तथा अपने हृदय का भार हलका करता रहा। पर्याप्त समय बीत चुका था। उसी रात दस बजे वाले हवाई जहांज से मुझे कराची लौट आना था। अत: मैंने उनसे विदा ली। सभी सज्जनों ने बड़े प्रेम से आलिंगन करके मुझे विदा किया। हर व्यक्ति कह रहा था’सिन्धियों को हमारा प्रणाम कहना, हमारे देश को हमारा प्रणाम कहना…’ हांगकांग में अन्तिम दिन हुई उन सिंधी मित्रों की भेंट को अपने हृदय में संजोये मैं उसी लाल मोटरकार वाले मित्र श्री श्याम के साथ अपने होटल लौट आया।
@राजिन्दर सिंह बेदी की कहानी “लाजवंती” – का एक अंश- लेकिन भगायी हुई स्त्रियों में से कुछ ऐसी भी थीं, जिनके पिता, माँ, बाप, बहन और भाइयों ने उन्हें पहचानने में असमर्थता प्रकट कर दी थी। ‘आखिर वे मर क्यों न गयीं, अपनी मर्यादा और लाज को बचाने के लिए उन्होंने विष क्यों नहीं पी लिया, कुओं में छलाँग क्यों न लगा दी? वे कायर थीं जो इस प्रकार जीवन से चिपटी रहीं। सैकड़ों-हजारों औरतों ने अपनी मर्यादा लुट जाने से पहले प्राण दे दिये।…।’

@राजी सेठ की कहानी “बाहरी लोग” का एक अंश –

उसकी आवांज आगे चल रही है—”अभी तीन-चार साल पहले इसका आदमी मरा है। यह बुढ़िया इस धक्के को नहीं भूलती। पार्टीशन के दंगों में कहाँ तो बारह घंटे की प्रचंड गोलीबारी से बच निकला और कहाँ इसकी बगल में सोता-सोता मर गया। सच मानिए, मैं तो इसका विश्वास ही नहीं करता। पता नहीं सच कहती है या झूठ कि रावलपिंडी से निकलने के लिए जिस ट्रेन पर बैठा था। वह गुजराँवाला के स्टेशन पर रोक ली गयी थी। बताती है, बारह घण्टे लगातार गोलीबारी हुई थी। सारी टे्रन को ही भून डाला…”
”वह अकेला था?”
”आपको पता नहीं? फसाद शुरू होते ही सब लोगों ने अपने परिवार पहले ही हिन्दुस्तान भेज दिये थे। घर-बाहर, कारोबार की वजह से खुद अटके रहे कि पता लगे हवा किधर को चलेगी। बताती थी कि जब मिलिटरी आयी और फौजियों ने लाशों से भरी उस ट्रेन में घुस-घुसकर हाँक लगायी कि कोई बच गया हो तो बाहर निकल आये, तब इसका आदमी लाशों के ढेर को अपने ऊपर से ढकेलता बाहर निकला। और किस्मत देखिए, दूसरे डब्बे में इनका माल ढोनेवाला एक मजदूर भी बच गया था। उसे निकलने के लिए तुरन्त ही ट्रक मिल गया तो वह हिन्दुस्तान की सरहद पार कर गया और इसका आदमी कैम्पों में धक्के खाता, भटकता एक महीने के बाद अमृतसर पहुँचा। इन लोगों ने तो उसे मरा मान लिया था…अरे मान लिया था पर मरा तो नहीं था। यह मूर्खा उन्हीं बातों को लेकर बैठी रहती है। कोई भी, कहीं भी राह चलता मिल जाए तो हो जाती है शुरू।”

@रामानंद सागर की ऊर्दू कहानी ” भाग इन बुरदांफ़रोशों से” का एक अंश –

मुसलमान नदी के उस पार से नावों में बैठकर हमारे गाँव पर हमला करने गये थे। मैं सूखी लकड़ियाँ चुनते-चुनते किनारे के बिलकुल समीप आ गयी थी। मेरे पति भी थोड़ी दूर पर इसी कार्य में व्यस्त थे।
मैंने नावों को इधर आते नहीं देखा, केवल कुछ आवांजें सुनीं—
”सुबहानअल्लाह, क्या जवान छोकरी है!”
मैंने जो घूम कर देखा तो तीन-चार हटूटे-कट्टे मुसलमान छोटी-छोटी कुल्हाड़ियाँ लिए मेरी तरफ बढ़े चले आ रहे थे। बीसों अभी नाव से उतर रहे थे और इनके पीछे अभी कई और नावें आ रही थीं। मेरी चीख निकल गयी, मैं लकड़ियाँ फेंक अपने पति को आवांजें देती हुई एक ओर को भागी। पर मैंने देखा, मेरा पति मुझसे पहले भागना प्रारम्भ कर चुका था। और अब तक बहुत दूर निकल गया था। उसने सम्भवत: मुझसे पहले इनको उतरते देख लिया होगा पर मुझे बचाने की बजाय वह अपनी जान बचा कर भाग गया।
मैं भी पूरी शक्ति से भागी।
और वह कुछ क्षणों के लिए रुक गयी।
दोबारा शुरू करते हुए उसकी आवज पहले से धीमी पड़ गयी थी—
मेरी तरह गाँव की और बहुत-सी औरतें इनके चंगुल में आ फँसी थीं। अपने यहाँ के कई बूढ़े और नवयुवकों की लाशें हमने गाँव में देखी। परइन में हमारे घर का कोई भी न था और तब मुझे अपने पति का भाग जाना अत्यन्त बुध्दिमानी का काम लगा। उसने स्वयं को बचा लिया था। और मेरे अमिट प्रेम को भी साथ ले गया था। मेरे साथ कुछ ऐसी महिलाएँ थीं जिनके परिवारजनों की लाशें भी इन्हीं घरों में थीं जहाँ वे दूसरे मर्दों की दासी बनकर रहती थीं। पर मैं खुश थी कि मेरा पति जीवित रहा। मेरा पुत्र भी जीवित था और…।

@विष्णु प्रभाकर की कहानी “मेरा वतन” का एक अंश –

उन दो व्यक्तियों में से एक ने, जिसने उसे पहचाना था, दूसरे से कहा—”मैं इसको जानता हूं।”
”कौन है?”
”हिन्दू।”
साथी अचकचाया, ”हिन्दू !”
”हां, हिन्दू। लाहौर का एक मशहूर वकील…।”
और कहते-कहते उसने ओवरकोट की जेब में से पिस्तौल निकाल लिया। वह आगे बढ़ा। उसने कहा, ”जरूर यह मुखबिरी करने आया है।”
उसके बाद गोली चली। एक हल्की-सी हलचल, एक साधारण-सी खटपट। एक व्यक्ति चलता-चलता लड़खड़ाया और गिर पड़ा। पुलिस ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया, परन्तु जो अनेक व्यक्ति कुतूहलवश उस पर झुक आये थे, उनमें से एक ने उसे पहचान लिया। वह हतप्रभ रह गया और यन्त्रवत् पुकार उठा ”मिस्टर पुरी ! तुम यहाँ कैसे…!”
मिस्टर पुरी ने आँखें खोलीं, उनका मुख श्वेत हो गया था और उस पर मौत की छाया मंडरा रही थी। उन्होंने पुकारने वाले को देखा और पहचान लिया। धीरे से कहा, ”हसन…!”
आँखें फिर मिच गयीं। बदहवास हसन ने चिल्लाकर सैनिक से कहा, ”जल्दी करो। टैक्सी लाओ। मेयो अस्पताल चलना है। अभी…”
भीड़ बढ़ती जा रही थी। फौज, पुलिस और होमगार्ड सबने घेर लिया। हसन, जो उसका साथी था, जिसके साथ वह पढ़ा था, जिसके साथ उसने साथी और प्रतिद्वन्दी बनकर अनेक मुकदमे लड़े थे, वह अब उसे भीगी-भीगी आँखों से देख रहा था। एक बार झुककर उसने फिर कहा, ”तुम यहाँ इस तरह क्यों आये, मिस्टर पुरी?”
मिस्टर पुरी ने इस बार प्रयत्न करके आँखें खोलीं और वे फुसफसाये, ”मैं यहाँ क्यों आया? मैं यहाँ से जा ही कहाँ सकता हूं? यह मेरा वतन है, हसन ! मेरा वतन…!” फिर उसकी यातना का अन्त हो गया।

कुछ लोगों का हठ विभाजन जैसी त्रासदी दे गया, विभाजन के दंगे फ़सादों में सबसे अधिक पीड़ा स्त्रियों ने झेली है। कई पीढियाँ बीतने के बाद भी इस दर्द और पीड़ा से प्रभावित लोग उबर नहीं पाये हैं। कहते हैं की इतिहास ही भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है। हमें भी विभाजन को नहीं भूलना चाहिए। जो सभ्यता अपना इतिहास भूल जाती है, उसका भविष्य अंधकारमय रहता है। इसलिए आज विभाजन विभिषिका स्मृति दिवस के दिन स्मरण करना आवश्यक है।

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