छत्तीसगढ़ राज्य पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहां पर लगभग 5-6वीं शताब्दी ई. से लेकर अभी तक रामायण के कथानकों से सम्बंधित दृश्य मंदिरों तथा प्रतिमाओं में उत्कीर्ण किये गये हैं जो आज भी विद्यमान हैं। तुलसीकृत रामचरित मानस के किष्किन्धाकाण्ड मे उल्लेखित जानकारी के अनुसार राम वनगमन के पश्चात जंगल में सीताहरण के बाद राम तथा लक्ष्मण सीता जी को खोजने के लिए वन को जाते हैं और जंगल में घूमते हुए ऋक्ष पर्वत के समीप पहुंचते हैं जहां पर मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे।
सुग्रीव रामचन्द्र जी और लक्ष्मण को आते देखकर अत्यंत भयभीत होकर हनुमान से बोले। मुझे ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान लग रहे हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना। यदि वे बालि के भेजे हुए हो तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊं। यह सुनकर हनुमान जी ब्राह्मण का रूप धरकर वहॉं गये और मस्तक नवाकर इस प्रकार कहने लगे-
हे बीर ! सांवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे हैं! हे स्वामी कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं।1 रामचन्द्र जी ने कहा- हम कोसलराज दशरथ जी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन में आये हैं तथा हमारे नाम राम और लक्ष्मण हैं। हम दोनों भाई हैं (इस दृश्य का अंकन बजरंगबली मंदिर सहसपुर जिला बेमेतरा में बहुत ही सुंदर ढंग मंदिर के शिखर भाग में अंकित किया गया है)। इससे सम्बंधित चौपाइयों का तुलसीकृत रामचरित मानस में निम्नानुसार वर्णन मिलता है-
कोसलेस दशरथ के जाये। हम पितु बचन मानि बन आये।
नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई।।1।।
इहाँ हरी निशिचर बैदेही। विप्र फिरहिं हम खोजत तेही।
आपन चरित कहा हम गाईं।कहहु विप्र निज कथा बुझाई।।2।।
यहॉ वन में राक्षस ने मेरी पत्नी जानकी को हर लिया। हे ब्राह्मण हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया । अब हे ब्राह्मण अपनी कथा समझाकर कहिये।
प्रभु पहिचानि परेड गहि चरना। सो सुख उमा जाई नहिं बरना।।
पुलकित तनमुख आव न बचना। देखत रुचिर वेष कै रचना।
भगवान राम को पहचानकर हनुमान उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर धीरज धरकर स्तुति कर हनुमान जी ने कहा-हे स्वामी , मैने जो पूंछा वह मेरा पूंछना तो न्याय था। एक तो मैं यों ही मन्द हूं, दूसरे मोह के वश में हूं,तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूं। हे भगवान, आप ने ही मुझे भुला दिया। क्र.1 (बजरंगबली मंदिर सहसपुर फोटो)। ऐसा कहकर हनुमान जी अकुलाकर प्रभु के चरणों में गिर पड़े तथा उन्होने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया तब श्रीराम जी ने कहा- हे कपि ,सुनो मन में ग्लानि मत मानना। तुम मुझे लक्ष्मण से भी दूने प्रिय हो।
इस प्रकार भगवान श्रीराम के प्रसन्न मन को देखकर पवन पुत्र हनुमान जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुख जाते रहे। हनुमान जी ने कहा, हेनाथ ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहता है, वह आपका दास है उससे मित्रता कीजिये और उसे दीनजानकर निर्भय कर दीजिये।वह सीताजी की खोज करवायेगा और जहां तहां करोड़ों वानरों को भेजेगा।
इस प्रकार सब बातें समझाकर हनुमान जी, रामलक्ष्मण, दोनों को पीठ पर चढ़ा लिये। जब सुग्रीव ने रामचन्द्र जी को देखा तो राम के चरणों में मस्तक नवाकर आदर सहित मिले। रघुनाथ जी भी छोटे भाई सहित उनके गले मिले। तब हनुमान जी दोनों तरफ की कथा सुनकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर उनकी मैत्री करवा दी।
लक्ष्मण जी ने रामचन्द्र जी का सारा इतिहास कहा। सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा-हे नाथ, जानकी जी मिल जायेगीं। एक बार मैने पराये शत्रु के वश में पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीताजी को आकाश मार्ग से जाते देखा था। हमें देखकर उन्होने राम!राम! हा राम! पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था तथा श्री राम जी के मांगने पर सुग्रीव ने तुरंत दे दिया। सुग्रीव ने कहा- हे रघुबीर ! सुनिये, सोच छोड़ दीजिये। और मन में धीरज लाइये। मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूंगा जिस उपाय से जानकी जी आपको मिलें।3 तब रामचन्द्र जी बोले-हे सुग्रीव ! मुझे बताओं तुम वन में किस कारण रहते हो।4
नाथबालि अरू मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु वरन न जाई।
मय सुत मायावी तेहि नाऊं। आवा सो प्रभु हमरे गाऊं।।
सुग्रीव ने कहा- हे नाथ, बालि और मैं दो भाई हैं। हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती । मयदानव का एक पुत्र था । उसका नाम मायावी था। एक बार वह हमारे गॉंव आया। तथा आधी रात नगर के फाटक पर आकर पुकारा। बालि शत्रु के बल को (ललकारको)े सह नहीं सका। वह दौड़ा तथा मायावी भागा। मैं भी भाई के संग चला गया । वह मायावी एक पर्वत की गुफा में जा घुसा। तब बालि ने मुझे समझाकर कहा-तुम 15 दिन तक मेरी बाट देखना। यदि मैं उतने दिन में न आऊं तो जान लेना कि मैं मारा गया।
हे भगवान-मैं वहां महीने भर रहा। उस गुफा में रक्त की भारी बड़ी धारा निकली तब मैं समझा कि उसने बालि को मार डाला तथा अब आकर मुझे मारेगा। इसलिये मैं वहां (गुफा के द्वार पर ) एक शिला लगाकर भाग आया। मंत्रियों ने नगर को बिना स्वामी (राजा) का देखा तो मुझको जबरदस्ती राज्य दे दिया। बालि उसे मारकर घर आ गया। मुझे राजसिंघासन पर देखकर हृदय में बहुत ही विरोध माना। वह समझा कि यह राज्य के लोभ से ही गुफा के द्वार पर शिला दे आया था जिससे मैं बाहर न निकल सकूं और यहाँ आकर राजा बन बैठा। उसने मुझे शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी पत्नी को भी छीन लिया । हे रघुबीर मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा। वह शाप के कारण यहां नहीं आता फिर भी मैं मन में भयभीत रहता हूं। यह सुनकर भगवान बोले-
सुनु सुग्रीव मारिहऊं बालिहिं एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गए न उबरिहिं प्रान।।
हे सुग्रीव, सुनो, मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूंगा। ब्रह्मा और शिव की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगें।5सुग्रीव, ने कहा- हे प्रभो, अब तो सब छोड़कर दिन रात मैं आपका भजन ही करूं। सुग्रीव की वैराग्य युक्त वाणी सुनकर हाथ में धनुष धारण करने वाले श्री राम जी मुस्कुराकर बोले-तुमने जो कुछ कहा है वह सभी सत्य है। परन्तु हे सखा, मेरा वचन मिथ्या नही होता अर्थात बालि मारा जायगा और तुम्हे राज्य मिलेगा।
लै सुग्रीव संग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा ।
तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा।।
इसके बाद सुग्रीव को साथ लेकर और हाथों में धनुषबाण धारण करके रघुनाथ जी चले । तब श्री रघुनाथ जी ने सुग्रीव को बालि के पास भेजा। । वह श्रीराम जी का बल पाकर बालि के निकट जाकर गरजा।
सुनत बालि क्रोधातुर धाचा। गहिवर चरण नारि समुझावा।
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते कौं बंधु तेज बल सींवा।
बालि सुनते ही क्रोध में भरकर वेग से दौड़ा। उसकी स्त्री तारा ने चरण पकड़कर उसे समझाया कि हे राम, सुनिये, सुग्रीव जिससे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा हैं। वे कोसलाधीश दशरथ जी के पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राम मे काल को भी जीत सकते हैं।
कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरशी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउं सनाथ।।
बालि ने कहा- हे डरपोक प्रिये, सुनो श्रीरघुनाथ जी समदरशी है जो कदाचित वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाउंगा। ऐसा कहकर वह महान अभिमानी बालि, सुग्रीव को तिनके के समान जानकर चला । दोनों भिड ़गये। बालि ने सुग्रीव को बहुत धमकाया और घूंसा मारकर बड़े जोर से गरजा । तब सुग्रीव व्याकुल होकर भागा। घूंसे की मार उसे वज्र के समान लगी। सुग्रीव ने आकर कहा- हे रघुबीर, मैने आपसे पहले ही कहा था कि बालि मेरा भाई नहीं है , काल है। श्री राम ने कहा- तुम दोनों भाइयों का एक सा ही रूप है । इसी भ्रम से मैने उसको नहीं मारा । फिर रामजी ने सुग्रीव के शरीर को हाथ से स्पर्श किया, जिससे उसका शरीर वज्र के समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही। तब श्रीराम ने सुग्रीव के गले में फूलों की माला डाल दी और फिर उसे बड़ा भारी बल देकर भेजा। दोनों में पुनः अनेक प्रकार से युद्ध हुआ। श्रीराम वृक्ष की आड़ से देख रहे थे। बालि ने शरीर को वैसे ही त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला का गिरता न जाने। राम ने बालि को अपने परम धाम भेज दिया। नगर के सब लोग व्याकुल होकर दौडे़ । बालि की स्त्री तारा अनेकों प्रकार से विलाप करने लगी । उसके बाल बिखरे हुए हैं और शरीर को नहीं संभाल पा रही है। तारा को व्याकुल देखकर रघुनाथ जी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया हर ली तथा तारा का जब ज्ञान उत्पन्न हो गया वह भगवान के चरणों में लगी और परम भक्ति का वरदान मांग लिया।
इस प्रसंग का विस्तृत अंकन छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में स्थित शिवमंदिर चंदखुरी की द्वारशाखा के सिरदल में किया गया है जिसमें बालि सुग्रीव युद्ध तथा बालि की मृत्यु पश्चात तारा अपने गोद में लेकर विलाप करते हुए बहुत ही संवेदनात्मक दृश्य का अंकन है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ में लक्ष्मणेश्वर मंदिर खरोद के मण्डप में स्थापित स्तंभ में, बालि सुग्रीव का द्वंदयुद्ध का दृश्य तथा राम बगल में धनुष ताने हुए खड़े हैं।
बजरंगबली मंदिर, सहसपुर जिला बेमेतरा,की सुकनासिका के ऊपरी भाग में, राम सुग्रीव मिलाप तथा हनुमान द्वारा राम से सुग्रीव की मित्रता का दृश्य बहुत सुंदर ढंग से अंकित किया गया हैं।
इसके अलावा डीपाडीह, जिला बलरामपुर में प्रदर्शित कार्तिकेय प्रतिमा के पादपीठ में बालि -सुग्रीव युद्ध का बहुत सुन्दर अंकन किया गया है जिसके पीछे उनकी पत्नियां बालि के पीछे तारा तथा सुग्रीव के पीछे रूमा का भी स्पष्ट अंकन है। 8यहां पर बालि और सुग्रीव एक दूसरे की जंघा को एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ से एक दूसरे पर मुष्टि प्रहार करने को तैयार हैं।
शिव मंदिर गण्डई, जिला राजनांदगांव तथा नागरीदास मंदिर, रायपुर के जंघा भाग में, स्पष्ट अंकन है।
इस प्रकार छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला में लगभग छठवीं शताब्दी ई. से अभी तक बालि-सुग्रीव युद्ध का अंकन मिलता है।
संदर्भः-
श्रीरामचरित मानस, टीकाकार , हनुमान प्रसाद पोद्धार, सं. 2045, उन्नीसवां संस्करण , गीताप्रेस गोरखपुर। पृष्ठ 586.
उपरिवत्, पृष्ठ 588.
उपरिवत्, पृष्ठ 589.
उपरिवत्, पृष्ठ 590.
उपरिवत्, पृष्ठ 592.
कला वैभव, अंक 16, 2006-2007, मंदिरों की नगरी खरोद : स्थापत्य कला पर प्रकाश ,कामता प्रसाद वर्मा, पृष्ठ 114.
कला वैभव, अंक 17, 2007-2008, बजरंगबली मंदिर सहसपुर का विशिष्ट शिल्पांकन ,कामता प्रसाद वर्मा, पृष्ठ 92.
वर्मा, कामता प्रसाद , छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला(सरगुजा जिले के विशेष संदर्भ मे), 2010, संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्व, रायपुर, छत्तीयगढ़,,पृष्ठ 53.
कला वैभव, डीपाडीह की विशिष्ट प्रतिमाएं, जी. यल. रायकवार, अंक……, 200 …….., पृष्ठ
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