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भारत के स्वतंत्रता सेनानियों पर स्वामी विवेकानंद का प्रभाव

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन पर स्वामी विवेकानंद के प्रभाव का वर्णन स्वयं स्वतंत्रता के नायकों ने किया है। गांधीजी जब 1901 में पहली बार कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा लेने कलकत्ता पहुंचे तो उन्होंने स्वामी जी से मिलने का प्रयास भी किया था। अपनी आत्मकथा में गांधी लिखते हैं कि उत्साह में वह पैदल ही बेलूर मठ पहुंच गए, किन्तु यह जानकर बहुत निराश हुए कि स्वामी जी उस समय कलकत्ता में थे और बहुत बीमार होने के कारण किसी ने मिल नहीं रहे थे।

कुछ ही महीनों बाद स्वामी जी ने देह त्याग दी। बाद में 30 जनवरी 1921 को महात्मा गांधी ने बेलूर मठ में स्वामी विवेकानंद की जयंती के समारोह में भाग लिया, तब उन्होंने कहा कि उनके हृदय में दिवंगत स्वामी विवेकानंद के लिए बहुत सम्मान है। उन्होंने उनकी कई पुस्तकें पढ़ी हैं और कहा कि कई मामलों में उनके इस महान विभूति के आदर्शों के समान ही हैं। यदि विवेकानंद आज जीवित होते तो राष्ट्र जागरण में बहुत सहायता मिलती। किंतु उनकी आत्मा हमारे बीच है और उन्हें स्वराज स्थापना के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि उन्हें सबसे पहले अपने देश से प्रेम करना सीखना चाहिए और उनका इरादा एक जैसा होना चाहिए। “2 गांधीजी ने एक स्थान पर यह भी बताया था कि अपने ही समृद्ध भाइयों के हाथों दबाए गए” दरिद्रों के साथ उन्हें वैसी ही सहानुभूति है, जैसी स्वामीजी को थीः “स्वामी विवेकानंद ने ही हमें याद दिलाया कि उच्च वर्ग ने अपने ही लोगों का शोषण किया है और इस तरह अपना ही दमन किया है। आप खुद नीचे गिरे बिना अपने ही स्वजातों को नीचा नहीं दिखा सकते।

ढाका मुक्ति संघ के संस्थापक क्रांतिकारी और कलकत्ता में राइटर्स बिल्डिंग पर धावा बोलने वाले तीन युवा क्रांतिकारियों विनय, बादल और दिनेश के गुरु हेमचंद्र घोष थे। 1901 में जब विवेकानंद ढाका गए तो घोष अपने मित्रों के साथ उनके मिले थे। अपने संस्मरण में वह लिखते है कि स्वामीजी ने उन्हें दोटूक निर्देश दिया था: “भारत को पहले राजनीतिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए क्योंकि विश्व में कोई भी देश किसी औपनिवेशिक देश का न तो कभी सम्मान करेगा और न ही उसकी बात सुनेगा और मेरी बात याद रखना कि भारत स्वतंत्र होगा।

धरती पर कोई भी ताकत इसे रोक नहीं सकती और मैं मानता हूं कि वह क्षण बहुत दूर नहीं है।” उन्हें स्वामीजी की यह सलाह भी याद रहीः “सबसे पहले चरित्रवान बनो। यदि तुम मां भारती की सेवा करना चाहते हो तो वीर बनो। पहले शक्ति और साहस अर्जित करो, उसके बाद उन्हें पीड़ा से मुक्त कराने चलो।” हेमचंद्र स्वामी जी को दूर बैठे किसी आदर्श व्यक्ति की तरह नहीं बल्कि भारतीय युवाओं का मार्गदर्शन करने वाले बड़े भाई की तरह याद करते थे, ऐसे व्यक्ति के रूप में याद करते थे, जो देश के लिए इतनी कम आयु में जीवन अर्पण करने वाले क्रांतिकारियों के हृदय के बहुत निकट थे।

स्वामीजी ने राष्ट्रवादी नेता अरविंद घोष के आध्यात्मिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अरविंद घोष ने अंत में परमात्मा की खोज में सांसारिक बंधन त्याग दिए। श्रीअरविंद ने कहा है कि अलीपुर जेल में स्वामीजी की आत्मा से कई बार उनका साक्षात्कार हुआ और आध्यात्मिक चेतना के उच्चतर स्तरों के बारे में स्वामीजी ने उन्हें बतायाः “यह सत्य है कि कारागार में एकांत में ध्यान साधना के समय एक पखवाड़े तक लगातार विवेकानंद की आवाज सुनता रहा, जो मुझसे बात कर रहे थे। मैंने उनकी उपस्थिति भी अनुभव की वह स्वर आध्यात्मिक अनुभूति के केवल एक विशेष और सीमित किंतु बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र के बारे में ही बताता था। उस विषय पर पूरी बात कहते ही वह स्वर शांत हो गया।

महर्षि अरविन्द को क्रान्ति व योग की प्रेरणा देने वाले भी विवेकानंद जी ही थे | देशभक्ति से ओतप्रोत स्वामीजी के भाषणों द्वारा पैदा की गई विचारों की चिंगारी का असर वीर सावरकर तथा लोकमान्य वाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रभक्तों पर भी दिखाई देता है। सावरकर जी ने तो संघर्ष कर अंडमान जेल में भी जो लाईब्रेरी बनवाई उसमें विवेकानंद साहित्य रखवाया | अपने वृहत काव्य सप्तर्षि में सावरकर जी ने लिखा कि निराशा के क्षणों में उन्हें विवेकानंद के विचार ही प्रेरणा देते थे | 1901 में बेल्लूर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के समय तिलक जी लगातार आठ दिन तक विवेकानंद जी से नियमित मिलते रहे | तिलक जी के लेखों में उसके बाद ही दरिद्र नारायण शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों द्वारा बनाए गए सिडीशन कमीशन की रिपोर्ट में इस भेंट का उल्लेख है |

रामकृष्ण मठ के स्वामी ब्रह्मानंद जी से प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासविहारी बोस की नजदीकी थी | मठों से अनेक क्रांतिकारी गिरफ्तार भी हुए | अनुशीलन समिति के सभी क्रांतिकारी, लाहिड़ी, सान्याल, लाला हरदयाल, चन्द्र शेखर आजाद आदि सभी अपने पास विवेकानंद साहित्य रखते थे। अंग्रेज इन सब बातों को संदेह की नजर से देख रहे थे | उन्होंने स्वामीजी के भाषणों की जांच भी करवाई किन्तु अंग्रेज एक शब्द भी आपत्तिजनक न पा सके|

तिलक जी को स्वदेशी का विचार तथा गीता भाष्य की प्रेरणा देने वाले भी विवेकानंद जी थे | नवजीवन प्रकाशन कलकत्ता से प्रकाशित भूपेन्द्र नाथ दत्त की पुस्तक “पेट्रिओट प्रॉफिट स्वामी विवेकानंद” में उल्लेख है कि अपनी फ्रांसीसी शिष्या जोसेफाईन मोक्लियान से स्वामी जी ने कहा कि क्या निवेदिता जानती नहीं है कि मैंने स्वतंत्रता के लिए प्रयास किया, किन्तु देश अभी तैयार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया | देश भ्रमण के दौरान पूरे देश के राजाओं को जोड़ने का प्रयत्न संभवतः स्वामी जी ने किया होगा, जिसका संकेत उक्त चर्चा में मिलता है।

स्वामी जी ने आत्मग्लानि में धंसे भारतीय समाज को बाहर निकाला । अल्मोड़ा में बद्रीसहाय बटुकधारी ने पूछा कि आप देशभक्ति की बात करते हो, किन्तु उसका उल्लेख वेद उपनिषद् में कहाँ है ? स्वामी जी ने भारत भक्ति का वर्णन करतीं उपनिषदों की ऋचाएं उन्हें सुनाकर मंत्रमुग्ध कर दिया | स्वामी जी की प्रेरणा के पश्चात उन्होंने उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए संस्कृत सीखी और सुप्रसिद्ध “वैशिक शास्त्र” पुस्तक लिखी | उस पुस्तक का अध्ययन स्व. दीनदयाल उपाध्याय जी ने भी किया | उनके द्वारा प्रतिपादित चिति और विराट की संकल्पना इसी पुस्तक से आई ।

कई अन्य राष्ट्रवादी नेता भी विवेकानंद से प्रभावित रहे।अलग-अलग लोगों पर उनका अलग-अलग और बहुआयामी प्रभाव पड़ा था। ये लोग सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों के थे किन्तु स्वामी विवेकानंद के प्रभाव से ही उन्हें भारत के लिए जीने और मरने की प्रेरणा मिली। 1897 में स्वामीजी ने कहा: “अगले 50 वर्षों के लिए हमारा एक ही ध्येय होना चाहिए हमारी महान भारत माता ।” और हमने देखा कि ठीक पचास वर्ष बाद भारत को स्वतंत्रता मिल गई।

आलेख

श्री उमेश कुमार चौरसिया
साहित्यकार एवं संस्कृति चिंतक, अजमेर (राजस्थान)

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