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समग्र क्रांति के अग्रदूत : महर्षि दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद सरस्वती की आज जयंती है। स्वामी दयानंद आर्य समाज के संस्थापक, आधुनिक भारत के महान चिंतक, समाज-सुधारक और देशभक्त थे। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में हुआ था। मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों के प्रकांड विद्वान स्वामी विरजानंद जी से शिक्षा ग्रहण की थी। स्वामी दयानंद सरस्वती ने बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियों को दूर करने में अपना खास योगदान दिया है। उन्होंने वेदों को सर्वोच्च माना और वेदों का प्रमाण देते हुए हिंदू समाज में फैली कुरीतियों का विरोध किया। स्वामी दयानंद सरस्वती निर्भय होकर समाज में व्याप्त बुराईयों से लड़ते रहे और ‘संन्यासी योद्धा’ कहलाए। दयानंद सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी।

स्वामी दयानंद योगी तो थे ही, साथ ही वेदों के प्रकांड विद्वान भी थे। वे संपूर्ण आध्यात्मिक क्रांति के संदेशवाहक थे। उनके सुधारवादी कार्यक्रमों में पूरे देश का कायाकल्प करने की शक्ति थी। स्त्रीशिक्षा, अछूतोद्धार, परतंत्रता निवारण, विधवा रक्षण, अनाथपालन, सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता, जन्मगत जाति के स्थान पर गुण-कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था, समस्त मानवों के लिए वेदाध्ययन, अज्ञान, पाखंड, छल-प्रपंच आदि के विरुद्ध आंदोलन, सबको एक जाति मानना, समानता आधारित गुरुकुल प्रणाली का प्रचलन, सदाचार तथा ब्रह्मचर्य पर बल, पठनीय तथा अपठनीय ग्रंथों का विवेचन, आर्यावर्त का गौरव वर्धन, हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने, देश में कला कौशल तथा विज्ञान पर बल, कृषक को राजाओं का राजा कहकर हरितक्रांति का संदेश, गौ का महत्व सिद्ध कर पशुमात्र की रक्षा पर बल, नशामुक्ति का उपदेश, परमेश्वर की उपासना एवं पंच-महायज्ञों का विधान, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की प्रेरणा, मिथ्या मत-मतांतरों का खंडन, स्वर्णिम वैदिक काल के पुनरागमन की कल्पना आदि उनके कार्यक्रम के अंग थे।

एक बार महर्षि दयानंद सरस्वती गंगा किनारे समाधि में लीन थे। एक स्त्री पुत्र-वियोग में विलाप कर रही थी। दयानंद की समाधि खुल गई। उन्होंने देखा कि वह स्त्री बिना कफन के पुत्र की मृत देह गंगा में बहा रही है। इस दृश्य ने उन्हें इतना द्रवित कर दिया कि समाधि के अपने एकाकी सुख को छोड़कर वे लोक हित और लोक सुख में लग गए। पहले जहां योगी आत्मा से बाहर के जगत को अपने पथ में बाधा मानते थे, वहीं दयानंद जी संसार के दुख मिटाने निकले तथा जगत का हित किया। इसके लिए उन्होंने न केवल अनेक कष्ट सहे, बल्कि प्राणों का बलिदान भी किया।

स्वामी जी के समय में आर्यावर्त पराधीनता में जकड़ा हुआ था। भारत की पराधीनता, निर्धनता, विधवा व अनाथों की दुर्दशा, नारी अशिक्षा, अछूतों की दीनदशा, धर्म के नाम पर छल-कपट, व्यभिचार, अज्ञानता आदि दयानंद जी को सालती थीं। सब दुखियों के दुख को वे अपना ही दुख मानते थे। उन्होंने योग तथा पूर्ण आर्ष विद्या के आधार पर वेद के वास्तविक आशय को स्पष्ट कर उसके महत्व को बढ़ाया। उन्होंने अपने भाष्य में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। उनके वेद भाष्य में सत्यविज्ञान, समाजविज्ञान, भौतिकविज्ञान तथा आत्मविज्ञान के उच्च तत्वों को खोजा जा सकता है।

उनके वेद भाष्य में प्राप्त निर्देश आज के वैज्ञानिक युग को भी नई दिशा देने में समर्थ हैं। प्राणिमात्र के उत्थान के लिए स्वामी दयानंद आजीवन योद्धा की भांति जूझते रहे तथा अंत में उसी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। किसी को निराश न लौटाने वाले दयानंद मृत्यु को भी क्यों निराश करते? अपने विषदाता को भी उन्होंने अभयदान दे उसके जीवन की रक्षा की। अंत समय वे बैठे, ईश्वर का स्मरण किया और कहा – ईश्वर! तेरी इच्छा पूर्ण हो, तूने बड़ी लीला की… और प्राण को महाप्राण में विलीन कर दिया। न वेदभाष्य के अधूरे रहने का दुःख और ना आर्यसमाज रूपी पौधे का।

अनेक कष्ट सहकर भी वह धर्म के मार्ग पर अडिग रहे। धर्म पालन के लिए उन्होंने बहुत कुछ सहा। तलवार के वार, ईंट-पत्थर, निंदा, अपमान, मिथ्यारोप, प्राणहरण के प्रयास – ये सब उन्हें धर्म मार्ग से विचलित न कर सके। ‘इदम् धर्माय-इदम् न मम’ कहकर आत्मबलिदान देने वाले संसार में कितने मिलेंगे? सचमुच ‘न्यायात पथः प्रविचलन्ति पदम् न धीराः’ अर्थात अनेक संकट आने पर भी धैर्यशील जन न्याय के पथ से एक पग भी विचलित नहीं होते।

स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन से जुड़ी 10 बातें

1. स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में हुआ था. उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माता का नाम यशोदाबाई था. उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे.

2. दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारंभिक जीवन बहुत आराम से बीता. आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए.

3. बचपन में शिवरात्रि के दिन स्वामी दयानंद का पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मंदिर में रुका हुआ था. सारे परिवार के सो जाने के पश्चात भी वे जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे. उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं. यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए.

4. स्वाजी ने सिर्फ हिंदू ही नहीं बल्कि ईसाई और इस्लाम धर्म में फैली बुराइयों का कड़ा खण्डन किया. उन्होंने अपने महाग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है. उन्होंने वेदों का प्रचार करने और उनकी महत्ता लोगों को समझाने के लिए देश भर में भ्रमण किया.

5.  स्वामी दयानंद सरस्वती हिंदी भाषा के प्रचारक थे. उनकी इच्छा थी कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश की एक भाषा हो.

6. उन्होंने 10 अप्रैल सन् 1875 ई. को मुम्बई के गिरगांव में आर्य समाज की  स्थापना की थी.आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है – विश्व को आर्य बनाते चलो. आर्य समाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति है. आर्य समाज ने कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पैदा किए थे. आजादी से पहले आर्य समाज को क्रांतिकारियों को अड्डा कहा जाता था.

7. स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘स्वराज’  का नारा दिया था, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया. स्वामी जी अपने उपदेशों के जरिए युवाओं में देश प्रेम और देश की स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की भावना पैदा करते थे.

8. महर्षि दयानंद ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों को दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया. जिसके चलते वह ‘संन्यासी योद्धा’ कहलाए. उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया और कर्म के आधार पर वर्ण-निर्धारण की बात कही. दयानंद दलितोद्धार के पक्षधर थे. उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन चलाया था.

9. एक बार लॉर्ड नार्थब्रुक ने स्वामी जी से कहा, “अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में आप जो ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, क्या उसमें आप अंग्रेजी सरकार के कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेंगे,” गर्वनर जनरल की बात सुनकर स्वामी जी सहज ही सब कुछ समझ गए. उन्हें अंग्रेजी सरकार की बुद्धि पर तरस भी आया, जो उन्हें ठीक तरह नहीं समझ सकी. उन्होंने निर्भीकता और दृढ़ता से गवर्नर जनरल को उत्तर दिया-

‘मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता. मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि मैं अपने देशवासियों की निर्बाध प्रगति और हिन्दुस्तान को सम्माननीय स्थान प्रदान कराने के लिए परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन यही प्रार्थना करता हूँ कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के चुंगल से शीघ्र मुक्त हों.”

10. स्वामी जी की देहांत सन् 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय हुआ. स्वामी दयानंद अपने पीछे एक सिद्धान्त छोड़ गए, ”कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ.उनके अन्तिम शब्द थे – “प्रभु! तूने अच्छी लीला की. आपकी इच्छा पूर्ण हो.’

दयानंद धीरता के मूर्तिमान उदाहरण हैं। समग्र क्रांति का अग्रदूत होते हुए भी इस महापुरुष ने कोई नया मत नहीं चलाया, अपितु प्राचीन वैदिक मान्यताओं पर आधारित तथा उसी का प्रचार-प्रसार करने के लिए एक समाज की स्थापना की। स्वामी जी के 200वें जन्म दिवस पर संपूर्ण विश्व उस महान योगी से प्रेरणा का संकल्प लेता है।

आलेख

दक्षिण कोसल टुडे


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