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कंकाली मठ एवं नागा साधू : छत्तीसगढ़

भारत में प्राचीन काल से ही साधु-संतों, महात्माओं का विशेष महत्व रहा है। साधु संत समाज के पथ-प्रदर्शक माने जाते रहे हैं, जो अपने ज्ञान और साधना के माध्यम से हमेशा ही समाज का कल्याण करते आए हैं। आज भी हमें किसी कुंभ मेले या तीर्थ स्थलों पर कई साधु देखने को मिल जाते हैं। धर्म-कर्म में लीन रहने वालों को साधु, सन्यासी, ऋषि मुनि आदि नामों से पुकारा जाता है। ये लोग हमेशा योग, साधना, तपस्या के द्वारा अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं।

संस्कृत में ‘साधु’ शब्द से तात्पर्य है ‘सज्जन व्यक्ति’। लघु सिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि ‘‘साध्नोंति परं कार्यमिति साधु’’ अर्थात जो दूसरे का कार्य करें वह साधु है। साधु का एक अर्थ उत्तम भी होता है। ऐसे व्यक्ति जिसने छः विकार – काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं मत्सर का त्याग कर दिया हो साधु कहलाता है। किसी विषय विशेष की साधना करने वाले व्यक्ति को भी साधु कहा जाता है। प्राचीन काल में कई व्यक्ति ऐसे भी हुआ करते थे जो समाज से हटकर या कई बार समाज में ही रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उस विषय में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। विषय को साधने या उसकी साधना करने के कारण ही उन्हें साधु कहा गया।

इतिहास गवाह है आस्था, विश्वास, परंपरा और संस्कृति का गढ़ है छत्तीसगढ़। यह प्राकृतिक सौंदर्य से घिरा हुआ प्रदेश है, यहां की नदियां एवं झरनों की कल-कल करती धाराएं, हर किसी का मन मोह लेती है। छत्तीसगढ़ एक शांत एवं वनांचल प्रदेश के रूप में पहचाना जाता है। यही कारण है कि यहां सनातनी साधु-महात्माओं ने अपना मठ व आश्रम बनाया और समाज के कल्याण का कार्य करते रहे। छत्तीसगढ़ के मंदिरों व मठों की परंपरा में नागा साधुओं का भी विशिष्ट योगदान रहा है। नागा का मतलब है, जो अपनी बात पर अडिग रहे, देश और समाज की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर दें, परिवार और रिश्ते-नातों को भूलाकर ईश्वर की सेवा और देश की रक्षा करें। जब-जब देश व समाज पर खतरा मंडराया है तब-तब अखाड़े एवं मठों के साधुओं ने ईश्वर की उपासना के साथ-साथ शस्त्र उठाकर देश और समाज की रक्षा के लिए संघर्ष करते रहे हैं, मठों और मंदिरों की रक्षा के लिए नागा साधुओं ने कालांतरों में कई लड़ाइयां लड़ी है। प्राचीन काल में नागा साधुओं को अखाड़ों में एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था। नागा साधु सात प्रमुख अखाड़ों से संबंध रखते हैं। जिनमें पंचजना अखाड़ा, पंचशंभू अखाड़ा, अमान अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, निर्माण अखाड़ा, महानिर्माणी अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा प्रमुख है।

श्री श्री 108 चैतन्यपुरी महाराज (जूना अखाड़ा) से प्राप्त जानकारी अनुसार अखाड़े में शामिल होने के लिए मनुष्य को मन शुद्ध करके गुरु की सेवा में आसक्त होना पड़ता है। उन्हें समाज में मौजूद बुराइयों से दूर रहकर ईश्वर की भक्ति में लीन होना पड़ता है। तभी वह अखाड़े में सम्मिलित होकर गुरु और अखाड़े की सेवा कर सकता है। गुरु की सेवा पाने के लिए व्यक्ति को संसार के सभी सुखों का त्याग करना होता है। जिससे वह थोड़े संसाधन में अपना जीवन गुजार सके। नागा साधु बनने का मार्ग बहुत कठिन है। नागा साधुओं को अस्त्र-शस्त्र की भी शिक्षा दी जाती है ताकि वे समयानुसार उसका प्रयोग कर सके। साधु बनने का मार्ग और नियम कठिन होने के कारण बहुत से लोग बीच में ही पथ छोड़ देते हैं। जो व्यक्ति अंत तक टिका रहता है, वही व्यक्ति नागा साधु बनता है। नागा साधु कभी भी किसी से कुछ मांगते नहीं है। श्री श्री 108 चैतन्यपुरी जी ने 12 वर्ष की अवस्था में गृह ग्राम सिधि (म.प्र.) त्यागकर अखाड़े में शामिल होने चले गये थे।

नागा साधु देश और राज्य की विभाजन रेखा को नहीं मानते। उनका मानना है कि यह विभाजन तो मनुष्य के द्वारा किया गया है। नागा साधुओं के लिए संपूर्ण आकाश और पृथ्वी ही उनकी छत और फर्श है। इसी विचारधारा के साथ नागा साधु किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते हैं। यहीं अस्थिरता उनके मन, मस्तिष्क को सदैव जागृत रखती है और सनातन धर्म की रक्षा के प्रति हमेशा समर्पण की भावना से सराबोर रहते हैं। नागा साधुओं के विषय में मेरा विचार था कि नागा साधु अपने में ही मशगूल रहने वाले अक्खड़ स्वभाव के हठी बाबा होते हैं, परंतु वास्तविकता श्री श्री 108 चैतन्यपुरी (जूना अखाड़ा) से मिलने के बाद काफी विपरीत लगी। नागा साधु सदाचारी, तपस्वी व विद्वान होते हैं। यह बात अलग है कि जब-जब देश और समाज पर संकट आया है, तब-तब उन्होंने अपना रौद्र रूप धारण करके हाथ में भाला उठाया है।

आवाहन अखाड़ा के महामंडलेश्वर स्वामी श्री श्री 1008 श्री डॉ. करूणानंद गिरी जी महराज ने कहा अखाड़े का उद्देश्य सदैव से ही सनातन धर्म की रक्षा करना रहा है। प्राचीन और वर्तमान समय की परिस्थितियों में बदलाव अवश्य आया है। प्राचीन समय की जो परिस्थितियां थी, वो धर्म की मांग थी वह अलग थी और जो वर्तमान समय की मांग है वह अलग है। परंतु साधु-संत प्राचीन काल में भी सनातन धर्म की रक्षा के लिए तत्पर था और वर्तमान समय में भी सनातन धर्म की रक्षा के लिए तत्पर है। वर्तमान समय में भी वे इन्ही उद्देश्यों को लेकर कार्य कर रहे हैं। उनका मानना है कि जहां भी विधर्म होगा, वहां साधु संतों का अखाड़ा मौजूद रहेगा।

छः सौ वर्ष के पहले से उत्तराखंड के बद्रिका आश्रम में नागा साधु सन्यासियों का तपोस्थलि है। यह नागा साधु सन्यासि पूरे भारत में भ्रमण करते रहते हैं। बताया जाता है कि इसी काल में कुछ नागा साधु सन्यासियों का जत्था दक्षिण भारत के भ्रमण के लिए निकला था।

छत्तीसगढ़ के वनांचल क्षेत्र ने नागा साधुओं को ठहरने पर विवश कर दिया, दशनाम गोस्वामी संप्रदाय के बद्रिका आश्रम जोशी मठ के नागा साधु महंत हीरागिरि यहां पर अपने शिष्यों के साथ अखाड़े और मठ निर्माण कार्य की प्राथमिक प्रक्रिया पूर्ण की, जिसे कंकाली मठ के नाम से जाना जाता है, कंकाली मठ तक पहुंचने के लिए रायपुर जिले के रेलवे स्टेशन से महज 03 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। कंकाली मठ के नामकरण के पीछे मान्यता है कि नागा साधुओं द्वारा घनघोर जंगल में शमशान के बीच में मठ का निर्माण किया था। यहां वे मां काली की पूजा-अर्चना करते थे, कंकालों के बीच मां काली की पूजा-अर्चना होने के कारण इस मठ का नाम ‘कंकाली मठ’ पड़ा।

ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि 13 वीं शताब्दी से लेकर 17 वीं शताब्दी तक मठों की पूजा होती थी। यह पूजा नागा साधुओं द्वारा ही संपन्न होती थी। 17 वीं शताब्दी में नए मंदिर का निर्माण किया गया जिसके पश्चात कंकाली माता की प्रतिमा को मठ से स्थानांतरित करके मंदिर में स्थापित किया गया। आज भी उसी मठ में नागा साधुओं के अस्त्र-शस्त्र के साथ वस़्त्र भी रखे हुए हैं, जो 1000 साल से भी अधिक पुराने हैं जिसमें तलवार, भाला, कुल्हाड़ी, चाकू, ढाल और तीर है। बद्रिका मठ से आए नागा साधु तांत्रिक पूजा किया करते थे। ये सभी हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण तो है ही, साथ ही इनके बलिष्ठ शरीर का भी। इन अस्त्र-शस्त्र को लेकर यह भी मान्यता है कि जब भगवान राम और रावण के बीच युद्ध हो रहा था तब मां कंकाली ने ही युद्ध के मैदान में प्रकट होकर भगवान राम को अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए थे। विजयादशमी के दिन भगवान राम ने रावण का वध किया था। इसी करण विजयादशमी के दिन कंकाली मठ के कपाट भक्तजन के लिए खोल दिया जाता हैं, ताकि भक्तजन इन शस्त्रों के दर्शन कर सके।

मान्यता है की मां कंकाली दशहरा के दिन वापस मठ में आती है। रात्रि को पूजा के बाद फिर एक साल के लिए इस मठ का द्वार बंद कर दिया जाता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार नागा सन्यासियों में देवी भक्त महंत होते थे। इन्ही महंतों की पीढ़ियों द्वारा आज भी मंदिर का देखरेख व संचालन किया जाता है। इन महंतो द्वारा धार्मिक व पौराणिक परंपरा के बारे में विस्तृत जानकारी भी मिलती है। मां कंकाली मंदिर में सेवा देने वाले महंत –

  1. महंत हीरागिरी गोस्वामी
  2. महंत कृपाल गिरी गोस्वामी
  3. महंत रामगिरी गोस्वामी
  4. महंत सुजानगिरी गोस्वामी
  5. महंत अयोध्या गिरी गोस्वामी
  6. महंत सुभान गिरी गोस्वामी
  7. महंत संतोष गिरी गोस्वामी
  8. महंत शंकर गिरी गोस्वामी
  9. महंत सोमार गिरी गोस्वामी
  10. महंत शंभु गिरी गोस्वामी
  11. महंत रामेश्वर गिरी गोस्वामी
  12. वर्तमान में महंत हरभूषण गिरी गोस्वामी।

मठ और मंदिर की व्यवस्था के लिए चार गांव पवनी, खौना, तर्रा और मंगसा दान में दिए गए थे। इन्ही गांव के आय से ही मठ और मंदिरों की व्यवस्था की जाती थी। महंत शंकर गिरी ने अपने शिष्य सोमार गिरी को सन्यासी जीवन से गृहस्थ में प्रवेश कराया। इसी समय से गृहस्थ परंपरा का प्रारंभ हुआ, जो आज तक चल रहा है।

ब्राहमण पारा स्थित छत्तीसगढ़ का कंकाली मठ नागा साधुओं के दिव्य प्रभाव से ही संचालित हुआ जो वर्तमान में संचालित हो रहा है। नागा साधुओं का प्रमुख शपथ है कि वे सभी मनुष्यों पर करुणा, दया और क्षमा करेंगे। और यही नागा साधुओं का मुख्य धर्म है। नागा साधु सनातन संस्कृति के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होने का भी संकल्प लेते हैं। इसी कारण नागा साधुओं के दर्शन को शिव दर्शन के समान माना गया है। नागा साधुओं के बारे में कहा जाता है कि ‘भेदो ना भासते अभेदो भासते सर्वनाम’। अर्थात अभेद की स्थिति में पहुंचा हुआ साधु सब के हितों की ही सोचता है। मंदिर निर्माण का श्रेय कृपाल गिरी महाराज को जाता है। वर्तमान में भी इस मंदिर की देखरेख गिरी परिवार के लोग ही करते है। अभी कंकाली मठ के महंत श्री हरभूषण गिरी गोस्वामी जी है।

कंकाली माता के मंदिर में समय-समय पर कुछ पर्व एवं उत्सव भी मनाए जाते हैं। जो मूलतः सनातन परंपरा पर ही आधारित होते हैं। जैसे – महाशिवरात्रि, समाधि स्थापना दिवस, कंकाली पूजा, नवरात्रि, दशहरा आदि। नवरात्र के दिनों में घर-घर घटों में ज्वांरा बोए जाते हैं और उन ज्वांरों को रायपुर शहर के लोग कंकाली तालाब में ही विसर्जन करते हैं। मन्नत धारी श्रद्धालु अपने पूरे शरीर पर नुकीले सांग – बाना धारण कर आते हैं और तालाब के पानी को शरीर में छिड़कते हैं। ऐसी मान्यता है कि शरीर में चर्म रोग हो या खुजली से परेशान हो तो तालाब में डुबकी लगाने से चर्म रोग से राहत मिलती है। सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नही बल्कि अन्य राज्यों से भी लोग इस तालाब में नहाने आते हैं इसके अलावा इस तालाब के पानी में कई प्रकार के औषधिय गुण विद्यमान है। तालाब की खुदाई के बाद यहां कई कंकाल मिले, इस वजह से तालाब का नाम कंकाली तालाब पड़ा।

एक मान्यता यह भी है कि जिन नागा साधुओं ने कंकाली माता मंदिर की स्थापना की थी उन्होंने ही यहां शिवलिंग की भी स्थापना की थी। अचानक ऐसा चमत्कार हुआ कि धरती से पानी की धारा फूट पड़ी और पूरा शिव मंदिर पानी में डूब गया। तथा इस स्थान ने एक तालाब का रूप ले लिया। देश आजाद होने के बाद सबसे पहले 1965 में तालाब की सफाई कराई गई। तब रायपुर शहर के लोगों ने पत्थर के शिवलिंग (आशीष शर्मा पुजारी कंकाली मठ से प्राप्त जानकारी) का पहली बार दर्शन किया। तालाब फिर से भर गया, इसके बाद सन् 1975, 1999 और फिर पुनः 2013 में तालाब की सफाई की गई। वर्तमान में तालाब पानी से लबालब भरा हुआ है। मंदिर का सिर्फ गुंबद ही दिखाई पड़ता है। जब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में गर्मी पड़ती है तो इस समय सभी नदी, तालाब सूखने लगते हैं तब भी यह चमत्कारी कंकाली तालाब जल से सराबोर रहता है। इसी कारण ज्यादातर लोग इस तालाब में डूबे शिवलिंग के दर्शन से वंचित रह जाते हैं। भगवान शिवजी की पूजा जलाभिषेक से की जाती है लेकिन यहां पर भगवान स्वयं जल समाधि लिए हुए हैं। सदियों से कंकाली माता की पूजा भगवान शिव से पहले की जाती है, इसके बाद ही तालाब के उपर से भगवान शिव की आराधना की जाती है।

मठ के परिसर में मेरी मुलाकात महंत श्री हरभूषण गिरी से हुई जो कि नागा गृहस्थ समुदाय की चौथी पीढ़ी है, उन्होंने बताया कि जप, तप के बाद नागा साधु आम आदमी नहीं रह जाते, इसलिए उनके शव को सिद्ध योग मुद्रा में बैठाकर भू-समाधि दी जाती है, इसके बाद इनके समाधि स्थल को पूजा जाता है। आज भी समाधियां कंकाली मठ में मौजूद है तथा उनके ऊपर एक-एक शिवलिंग स्थापित है। महंत कृपाल गिरी जी महाराज की पवित्र समाधि आज भी कंकाली मठ में देख सकते हैं, जो श्रद्धालुओं को अपनी ओर बरबस ही खींच लेती है। किवदंती के अनुसार कंकाली देवी ने महंत कृपाल गिरी महाराज को साक्षात कन्या रूप में दर्शन दिया, लेकिन महंत कृपाल गिरी महाराज उनको पहचान न सके, उनका उपहास करने लगे जिसके फलस्वरूप कन्या रूपी देवी अदृश्य हो गई तब आत्मग्लानि से महंत कृपाल गिरी महाराज ने मंदिर परिसर में हि जीवित समाधि ले ली, समाधि में भक्तों के लिए पूजा अर्चना की विशेष परंपरा प्रचलन में है, भक्त सहर्ष इन परंपराओं को अपनाकर पूजा अर्चना करते हैं।

इतिहास साक्षी है कि छत्तीसगढ़ की भूमि अनादि काल से ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपरा का केंद्र रही है। शैव धर्म छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक प्राचीन धर्म माना जाता है। इस अंचल में शैव धर्म सर्वाधिक लोकप्रिय तथा व्यापक स्वरूप में दिखाई देता है। वर्तमान में रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी है। रायपुर धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिकता का केंद्र रही है। प्राचिन काल और राजा महराजाओं के शासन काल का यदि अध्यन करते हैं तो कई धार्मिक एवं पौराणिक महत्व के अनेक स्थल हमारे अंचल में देखने को मिल जाते हैं और यहीं प्रमाण हमारी धार्मिक आस्था को और प्रबल करने में सहायक होते है, इनमें मठ, मंदिर और किले के साक्ष्य के रूप में आज भी हमारे पथ प्रदर्शन करते हैं। सनातन धर्म रक्षक नागा सन्यासी और इनकी परंपरा को प्रणाम।

शोध सर्वेक्षण दिनांक, स्थान व नाम – साक्षात्कार
दिनांक 23.04.2023 रायपुर (छ.ग.)
नाम – श्री गजेंद्र गिरी गोस्वामी (नागा संप्रदाय)
दिनांक 10.05.2023, रायपुर (छ.ग.)
नाम – आशीष शर्मा कंकाली मठ (पुजारी)
दिनांक 18.06.2023, रायपुर (छ.ग.)
नाम – सर्वाकार महंत हरभूषण गिरी गोस्वामी श्री कंकाली देवी मंदिर
दिनांक 16.07.2023, भोजपुर (म.प्र.)
नाम – महंत श्री बाबू भारती
दिनांक 17.08.2023, बिलासपुर (छ.ग.)
नाम – श्री श्री 108 चैतन्यपुरी (नागा साधु जूना अखाड़ा)
दिनांक 17.08.2023, बिलासपुर (छ.ग.)
नाम – महामण्लेश्वर स्वामी श्री श्री 1008 श्री डॉ. कृष्णानंद गिरी जी महराज, (आवाहन अखाड़ा)

आलेख

डॉ अलका यतींद्र यादव बिलासपुर छत्तीसगढ़

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