Home / इतिहास / स्वदेशी आंदोलन के प्रणेता गणेश वासुदेव जोशी

स्वदेशी आंदोलन के प्रणेता गणेश वासुदेव जोशी

अंग्रेजी सत्ता ने भारत में अपनी जड़ों को गहरा करने के लिये व्यापार को माध्यम बनाया था। उन्होंने पहले विदेशी वस्तुओं का आकर्षण पैदा किया फिर स्वदेशी उत्पाद का दमन किया। 1857 में क्रान्ति की असफलता के बाद इस तथ्य अनेक महापुरुषों ने पहचाना उनमें सबसे प्रमुख थे गणेश वासुदेव जोशी।

इन्होंने न केवल समाज में स्वदेशी अपनाओ का अभियान चलाया अपितु स्वदेशी वस्तुओं के कुछ उत्पादन केन्द्र भी स्थापित किये। आगे चलकर जब गाँधी जी भारत लौटे तब उन्हें स्वदेशी और खादी प्रचार की प्रेरणा इनके आंदोलन से ही मिली।

स्वत्व, स्वाभिमान और स्वदेशी के लिये अपना जीवन समर्पित करने वाले गणेश वासुदेव जोशी का जन्म 9 अप्रैल 1828 को सतारा में हुआ था। परिवार की पृष्ठभूमि शिक्षित और संपन्न थी। पिता ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते थे। इस कारण कंपनी के कामों और कूटनीति की चर्चा घर में होती थी।

बालपन से ही बालक गणेश के मन में अंग्रेजों की चालाकियों और बारीकियों से अवगत हो गये थे। समय के साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और वकालत पास की। इसी बीच 1857 की क्रांति ने उन्हें झकझोर दिया। क्रान्ति के दमन के लिये अंग्रेजों के अत्याचार ने उन्हे विचलित कर दिया और वे मन ही मन अंग्रेज शासन को उखाड़ने का चिंतन करने लगे।

वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे की कि अंग्रेज को उनकी शैली में उत्तर दिया जाना चाहिए। अंग्रेजों ने अपना राजतंत्र व्यापार से आरंभ किया था। इसलिए अंग्रेजों के व्यापार को कमजोर करने के लिये स्वदेशी वस्तुओं के प्रति पुनः आकर्षण उत्पन्न करना था।

उस समय अंग्रेज सारा कच्चा माल भारत से ले जाते थे और अपने कारखानों में बना हुआ समान भारत में खपाते थे। इससे उन्हे दो लाभ होते थे। एक तो भारत में शिल्प की मौलिकता घट रही थी और इससे उत्पन्न बेरोजगारी से उन्हे कामगार मिल रहे थे दूसरा उनका माल बिकने से उनका लाभांश बढ़ रहा था।

दुनिया के हर देश में व्यापार का यही तरीका अंग्रेजों की सत्ता की नींव व्यापार था। इसलिये गणेशजी जोशी जी ने अंग्रेजों की इसी नींव पर सबसे पहले प्रहार करने का निर्णय लिया। उन्होंने युवाओं की एक टोली बनाई उनमें स्वाभिमान और स्वत्व का भाव जगाया और यह प्रचार आरंभ किया कि यदि सभी भारतीय फिर से अपने ही देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करेंगे और अपनी आजीविका के लिये स्वयं अपने कुटीर उद्योग स्थापित करें तो अंग्रेज स्वयं कमजोर हो जायेंगे।

इस टोली में दो युवा माधव गोविन्द रानाडे और गोपाल कृष्ण गोखले भी जुड़े। इन युवाओं को आगे करके उन्होंने 1870 में एक संस्था “सार्वजनिक सभा” का गठन किया और इस संस्था का पूरे महाराष्ट्र क्षेत्र में विस्तार किया। इस संस्था का केन्द्र नागपुर को बनाया। इस संस्था में संयोजन का दायित्व माधव गोविन्द रानाडे के हाथ में था जो बाद में न्यायधीश भी बने । पर उन्होंने इस संस्था से अपना जुड़ाव न छोड़ा।

जोशी जी ने पूना, नागपुर, सतारा और बंबई आदि अनेक स्थानों पर पर इस संस्था के संचालन केन्द्र बनाये और निराश्रित परिवारों को जोड़कर उनसे कुटीर उद्योग स्थापित कराकर स्वदेशी वस्तुओं का उत्पादन आरंभ कराया तथा विक्रय केन्द्र भी स्थापित किये।

उनके द्वारा स्थापित इन कुटीर उद्योगों और उनके विक्रय केन्द्र में हाथ करघा और चरखे द्वारा कपड़ा और इस कपड़े से बने विभिन्न वस्त्र होते थे। काका ने अपना जीवन समाज सेवा के माध्यम से राष्ट्र को समर्पित कर दिया। उनकी बेटी गोपाल कृष्ण गोखले को ब्याही थी।

जोशी जी की इस बेटी ने अपने पिता की प्रेरणा से माधव रानाडे की पत्नि रामाबाई रानाडे के साथ महिलाओं में जाग्रति और उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए स्त्री “विचारवती सभा” नामक संगठन का गठन किया। इस संस्था को भी कुटीर उद्योग से जोड़ा।

जोशी जी इतने लोकप्रिय हुये कि सब उन्हें काका साहब कहते थे। इस प्रकार जोशी जी, उनका पूरा परिवार और उनके द्वारा जोड़ी गई युवाओं की टोली पूरी तरह स्वदेशी जागरण अभियान के लिये समर्पित थी। काका साहब जोशी जी अपने अभियान के लिये कितने समर्पित थे इसका उदाहरण 1877 के दिल्ली दरबार में देखने को मिला।

वे उस दरवार में पूर्ण स्वदेशी निर्मित खादी के वस्त्र पहनकर पहुँचे और एक प्रश्न पूछकर सबका ध्यान अपने वस्त्रों की ओर आकर्षित किया। भारत में भारतीयों के लिये नागरिक सम्मान की सबसे पहले ध्यान आकर्षित करने वाले गणेश वासुदेव जोशी ही थे। उन्होंने बहुत विनम्रतापूर्वक कहा था – “महामहिम महारानी जी भारतीय प्रजा को वही राजनीतिक और सामाजिक दर्जा प्रदान करें जो उसकी ब्रिटिश प्रजा को प्राप्त है।”

यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत के लिए जो अहिसंक और वैचारिक अभियान चला उसकी औपचारिक रूप से शुरूआत यही घटना थी। तब भारत में वायसराय लिटन हुआ करते थे। वे सतत अपने अभियान के प्रति समर्पित रहे। कभी न रुके और न कभी अवकाश लिया।

25 जुलाई 1880 को हृदय रोग के कारण उन्होंने संसार से विदा ले ली। किन्तु भारत को स्वतंत्रता के लिये एक अहिसंक अभियान चलाने का सूत्र दे गये।

बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में स्वदेशी और खादी का जो अभियान चला उसका सूत्र यही आंदोलन था। आगे चलकर तिलक जी भी इसी संस्था से जुड़े। इस संस्था से संबंध गोपाल कृष्ण गोखले और तिलक जी ने ही गाँधी जी को खादी वस्त्र अभियान से अवगत कराया। जिसे गाँधी जी ने अपने स्वदेशी अभियान में जोड़ा। गाँधी जी गोपाल कृष्ण गोखले को अपना गुरुवत मानते थे।

आलेख

श्री रमेश शर्मा,
भोपाल मध्य प्रदेश

About nohukum123

Check Also

स्वर्ण मंदिर की नींव रखने वाले गुरु श्री अर्जुन देव

सिखों के पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव साहिब का जन्म वैशाख वदी 7, संवत 1620 …

One comment

  1. बहुत सुंदर लेख है। ज्ञानवर्धक।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *