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सखि वसन्त आया

वसंत के आते ही मौसम ख़ुशगवार हो जाता है, गुलाबी ठंड के साथ चारों ओर रंग बिरगें फ़ूलों की भरमार हो जाती है। खेतों में फ़ूली हुई पीली सरसों की आभा निराली हो जाती है लगता है कि धरती पीत वस्त्र धारण कर नवयौवना सी इठला रही है। रंग बिरंगी तितलियाँ फ़ूलों पर मँडराने लगती हैं। भवरों का गुंजन मन मोहने लगता है।

तभी कवियों का मन इस सुंदरता से अछूता कैसे रह सकता है, उसका मन भी इस खूबसूरती को अपने शब्दों से बांध लेने का हो जाता है। अमिया के बौर से लदी डालियों पर कोयल की कूक भी गीत कविता का अंग बन जाती है। कहीं दूर चरवाहे की बंशी की तान से ग्राम्य सुंदरता सुरभित हो जाती है।

गाँव की अल्हड़ बाला के पाँव के पायल की छनक भी प्रकृति की ताल में ताल मिलाती दिखाई देती है। यह अद्भुत नज़ारा इसी मौसम में देखने मिलता है। वसंत आने पर ही मदन देव का मद महुआ के फ़ूलों के रस के रुप में प्राप्त होता है। जिससे मस्त होकर मदनोत्सव का उल्लास निराला हो जाता है और टेसू भी वासंती हो जाता है।

वसंत पंचमी का धार्मिक महत्व

कहते हैं कि जब ब्रह्मा ने मनुष्य योनि की रचना की तो वे अपनी रचना से संतुष्ट नही हुए। उन्हे लगा कि कुछ कमी रह गयी। क्योंकि चारों ओर मौन छाया हुआ था। सन्नाटा उन्हे पसंद नहीं आया। तो उन्होने अपने कमंडल से धरती पर जल छिड़का जिसके फलस्वरूप एक अद्भुत शक्ति पुंज से सुंदर चतुर्भुजी स्त्री प्रकट हुई, जिसके एक हाथ में वीणा, दूसरे में वरद मुद्रा एवं अन्य दोनो हाथों में एक में माला और एक में पुस्तक थी।

ब्रह्मा ने देवी से वीणा वादन करने कहा, जैसी ही देवी ने वीणा बजाई तो संसार के सभी जीवों को वाणी प्राप्त हो गयी। जल धाराओं से कल-कल की ध्वनि उत्पन्न होने लगी। हवा से भी सरसराहट की आवाज आने लगी। सम्पूर्ण प्रकृति मुखर हो गयी। तब ब्रह्मा ने इस देवी को वाणी की देवी सरस्वती नाम दिया। तभी से बसंत पंचमी को विद्या और बुद्धि देने वाली वीणा पाणि का जन्मोत्सव मनाया जाता है।

सरस्वती को वाग्देवी, बागीश्वरी, शारदा, वीणावादनी आदि नामों से जाना जाता है। इस दिन कामदेव की भी पूजा होती है, शास्त्रों में इसे ॠषि पंचमी भी कहा जाता है। क्योंकि इस दिन देवी सरस्वती की आराधना करके ज्ञान के प्रदाता ॠषियों का भी स्तवन किया जाता है।

वसंत को ऋतुओं का राजा ॠतुराज कहा जाता है, इसके आगमन पर प्रकृति का रोम-रोम खिल उठता है। मनुष्य तो क्या पशु पक्षी भी आनंद से भर उठते हैं। माघ मास की पंचमी से वसंत का आगमन नए सूरज के साथ नयी चेतना लेकर आता है। सूर्य की मद्धम रश्मियों के साथ शीतल वायु मानव चेतना को प्रभावित करती है।

“शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमां आद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा पुस्तक धारिणीं अभयदां जाड्यान्धकारापाहां|
हस्ते स्फाटिक मालीकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धि प्रदां शारदां|| “

वसंतोन्माद में कोई वासंती गीत गा उठता है तो नगाड़ो की थाप के साथ अनहद बाजे बजने लगते हैं। जिस तरह विजयादशमी का त्यौहार सैनिकों के लिए उत्साह लेकर आता है और वे अपने आयुधों की पूजा करते हैं उसी तरह वसंत पंचमी का यह दिन विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों एवं व्यास पूर्णिमा का दिन होता है। जो महत्व व्यवसायिकों के लिए बही खातों, तराजू बाट एवं दीवाली का है।

वही महत्व कला के साधकों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे नाटककार, कवि-लेखक, नृत्यकार, चित्रकार, गायक, वादक कोई भी हो। सब वसंत पंचमी का प्रारंभ वीणापाणी की आराधना एवं पूजा से करते हैं और कामना करते हैं कि माँ शारदा का आशीष उन पर सदा बन रहे। जिससे उनके कला कौशल की धाक अनंत काल तक दिगदिगान्तर में बनी रहे।

वसंत पंचमी का ऐतिहासिक महत्व-

वसंत पंचमी का ऐतिहासिक महत्व भी है, इस दिन पृथ्वीराज चौहान ने अंधे होने के बावज़ूद विदेशी हमलावर मोहम्मद गोरी को शब्दाभेदी तीर चला कर खत्म कर दिया था। मोहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान ने 16 बार पराजित कर छोड़ दिया था और जान बख्श दी थी। सत्रहवीं बार वे मोहम्मद गोरी से हार गए। वह उन्हे अफ़गानिस्तान ले गया और उनकी आंखे फ़ोड़ दी। जब मोहम्मद गोरी उनके शब्द भेदी बाण चलाने की परीक्षा ले रहा था तब कवि चंदर बरदाई के कथन पर उन्होने शब्द भेदी तीर चला कर मोहम्मद गोरी के प्राण हरण कर लिए। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान एवं चंदरबरदाई ने एक दूसरे के पेट में छुरा घोप कर आत्मउत्सर्ग कर दिया। पृथ्वीराज चौहान अजयमेरु राज्य की गद्दी पर मात्र 13 वर्ष की आयु में बैठे थे।

वीर हकीकत राय प्रसंग-

वीर हकीकत राय का प्रसंग भी वसंत पंचमी के साथ जुड़ा हुआ है। जब उन्हे काजी ने मुसलमान बनने के लिए कहा तो उन्होने इंकार कर दिया। तो काजी ने उन्हे तलवार से मौत के घाट उतारने का फ़रमान जारी किया। कहते हैं कि हकीकत राय के चेहरे का तेज देख कर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। तब हकीकत राय ने जल्लाद के हाथों में तलवार देते हुए कहा कि – जब बच्चा होकर मैं अपने धर्म का पालन कर रहा हूँ तो तुम बड़े होकर क्यों धर्म से विमुख हो रहे हो। इस पर जल्लाद ने मन कड़ा करके तलवार चला दी। किंवदंती है कि वीर हकीकत राय का शीश भूमि पर नहीं गिरा और आकाश मार्ग से स्वर्ग चला गया। वीर हकीकत राय के आकाशगामी शीश की याद में मुस्लिम देश होते हुए भी पाकिस्तान के लाहौर में वसंत पंचमी को पतंगे उड़ाई जाती हैं। वीर हकीकत राय लाहौर के थे।

साहित्यिक महत्व –

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी”निराला” का जन्मदिन वसंत पंचमी को ही मनाया जाता है। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं।अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। निराला जी के मन में निर्धन एवं मज़लूमों के प्रति अगाध प्रेम और पीड़ा थी। वहीं प्रकृति के लुभावने स्वरुप ने उनका मन मोह लिया था जो उनके काव्य में स्पष्ट दिखाई देती है। वसंत की छटा बिखेरती इस रचना का अद्भुत सौंदर्य बरबस उनके शब्दों के साथ आज भी हमें वसंत का अनुभव करा जाता है:

सखि वसन्त आया ।
भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया ।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका, मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी– पिक-स्वर नभ सरसाया ।
लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर, बही पवन बंद मंद मंदतर,
जागी नयनों में वन- यौवन की माया ।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे, केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अंचल, पृथ्वी का लहराया ।

निराला जी अपने वस्त्र तक निर्धनों को दे देते थे। इस कारण लोग उन्हे “महाप्राण” कहते थे। निराला जी मूलतः कवि थे, पर बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न होने के कारण इनकी लेखनी साहित्य की हर विधा पर चली।

एक तरफ तो वंसत ॠतु में जन्म लिए वीरों का स्मरण हो आता है तो मन माँ भारती के सपूतों को स्मरण कर गा उठता है “माँ ए…मेरा रंग दे बसंती चोला ….. ” वहीं दूसरी ओर मन में उल्लास भी प्रकट होता है। टेसू के फ़ूल चहूं ओर बगरे रहते हैं। गुलमोहर की भी छटा निराली दिखाई देती है। जीव-जंतू भी अपनी उर्जा का संचय इस ॠतु में करते हैं। धनी हो निर्धन, मुर्ख हो या विद्वान, निर्बल हो या बलवान सभी के मन में वंसत ॠतु के आगमन से आनंद के हिलोर उठने लगते हैं।

ऋतुएँ बदलती हैं तो दिनचर्या बदल जाती है। पहले ऋतु का बदलना हमारे जीवन में प्रतिबिंबित होता था। गीतों और व्यवहार में ढलता था। अब प्रकृति से यह अपनापा खो रहा है। हमारी अनुभूतियाँ बदल रही हैं। अब सामने होकर भी प्रकृति के हरकारे फूल, पक्षी, फसल हमें दिखलाई नहीं पड़ते हैं। तरक्की पसंद इंसान का आसमान चहारदीवारी में कैद हुआ और कैद बैठा इंसान मोबाईल आदि जैसे उपकरण के मोह में फंसा आभासी खुशियों में पढ़कर वास्तविक दुनिया और सुख से वंचित होकर रह गया है । प्रकृति से उसका रिश्ता लगभग टूट ही गया है। ऐसे में उसे कैसे मालूम हो कि वसंत आ गया है?

हमारी सांस्कृतिक परम्परा में ऋतु परिवर्तन से मानवीय अनुभूति का संबंध है। यह संबंध तब से है, जब से मानव मित्र के रूप में प्रकृति के निकट रहा है। आज हमारे जीवन में वसंत खो रहा है। हमें वसंत पाना हैं तो प्रकृति के निकट जाना होगा। वसंत का आगमन समस्त चराचर जगत के लिए कल्याणकारी होता है। आओ ॠतुराज वसंत का मिल जुल हर्षोउल्लास के संग स्वागत करें।

आलेख

श्रीमती संध्या शर्मा
वरिष्ठ लेखिका
सोमलवाड़ा, नागपुर (महाराष्ट्र)

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