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दक्षिण कोसल में लघु पत्रिका आंदोलन : एक वो भी ज़माना था !

आधुनिक हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा में लघु पत्रिका आंदोलन का भी एक नया पड़ाव आया था। देश के हिन्दी जगत में मुख्य धारा की पत्रिकाओं से इतर यह एक अलग तरह की साहित्यिक धारा थी ।  भारतीय इतिहास में दक्षिण कोसल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ में इस नयी साहित्यिक धारा की शुरुआत हिन्दी मासिक ‘छत्तीसगढ़-मित्र’ से मानी जा सकती है, जिसका प्रकाशन साहित्य मनीषी माधवराव सप्रे और पण्डित रामराव चिंचोलकर द्वारा वर्ष 1900 ईस्वीं में पेण्ड्रा (जिला -बिलासपुर ) से प्रारंभ किया गया था । इसके प्रकाशक थे वामन बलिराम लाखे, जिनके नाम पर रायपुर में एक सरकारी हायर सेकंडरी स्कूल के साथ-साथ लाखेनगर भी है । यहाँ सप्रे जी के नाम पर माधवराव सप्रे शासकीय उच्चतर माध्यमिक स्कूल भी दशकों से चल रहा है ।

बहरहाल, हम लघु पत्रिका आंदोलन की चर्चा कर रहे थे ।  भारतीय इतिहास में बीसवीं सदी के उस प्रारंभिक दौर में स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय तथा सामाजिक पुनर्जागरण की लहर चल रही थी। उन्हीं दिनों 29 वर्षीय सप्रे जी ने अपने दोनों सहयोगियों-पण्डित रामराव चिंचोलकर और वामन बलिराम लाखे के साथ ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की शुरुआत करके छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की भी बुनियाद रखी । 

इस पत्रिका की छपाई रायपुर के क़य्यूमी प्रिंटिंग प्रेस में होती थी । इसका पहला अंक जनवरी 1900 में प्रकाशित हुआ, लेकिन आर्थिक दिक्कतों के कारण उन्हें सिर्फ़ तीन साल में ही (दिसम्बर 1902 में )  इसका प्रकाशन रोकना पड़ गया । यह छत्तीसगढ़ की पहली लघु पत्रिका थी । इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक ,साहित्यिक और शैक्षणिक विषयों के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना को विस्तार देने वाली रचनाओं का प्रकाशन होता था ।  सप्रे जी स्वयं एक बड़े साहित्यकार थे । अतः ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का मूल स्वर साहित्यिक था ।

 इस प्रकार की लघु पत्रिकाओं के प्रति समाज के सम्पन्न और समर्थ वर्ग में उपेक्षा की भावना उन दिनों भी हुआ करती थी ।  सप्रे जी पत्रिका के व्यवस्थापक भी थे । उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के पाँच अंकों के प्रकाशन के बाद छठवें अंक में ‘ग्राहकों को सूचना’ शीर्षक से लिखा था -“आज पांच महीने से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ आपकी सेवा कर रहा है । यह काम सर्वथैव द्रव्य द्वारा साध्य है । हमने अपने कई मित्रों को इस आशा से पुस्तकें भेजीं कि वे इसको निज कार्य समझ अवश्य सहाय होंगे। पर अब खेदपूर्वक लिखना पड़ा कि हमारी सब आशा निरर्थक हुई । कई लोगों ने तो यह कहकर अंक लौटा दिया कि हमारे पास और भी दूसरे पत्र आया करते हैं-हमें फुरसत नहीं है और कई लोगों ने यह कहकर कि यह तो मासिक पुस्तक है, समाचार पत्र होता तो लेते । इसी तरह कुछ न कुछ बहाना बनाकर किसी ने पहिला, किसी ने दूसरा, किसी ने तीसरा और चौथा अंक वापस कर दिया है । जिन लोगो ने मित्र को आश्रय देने के भय से अंक लौटा दिये हैं, उनसे हमारा कुछ भी कहना नहीं है। पर जिन महानुभावों के पास से एक भी अंक लौट कर नहीं आया उनसे हमारी यही विनती है कि आप कृपापूर्वक ‘मित्र’  की न्योछावर शीघ्र भेज दीजिए । हम आशा करते हैं कि छत्तीसगढ़ विभाग के राजा, महाराजा, श्रीमान, जमींदार तथा सर्वसाधारण लोग और अन्यान्य प्रदेशों के सभ्य महोदय, जिनके पास “छत्तीसगढ़ मित्र” भेजा गया है, शीघ्र ही अपनी-अपनी उदारता प्रगट कर हमें द्रव्य की सहायता देवेंगे । उनके सत्कार्य से ‘मित्र’ को अपना कर्त्तव्य कर्म करने के लिए द्विगुणित अधिक उत्साह प्राप्त होगा। आप तो स्वयं विचारवान हैं। आपके लिये इतनी ही सूचना बहुत है।” 

ग्राहकों के नाम सप्रे जी की इस अपील का बहुत ज़्यादा असर नहीं हुआ और 36 अंकों के बाद ‘छत्तीसगढ़ मित्र ” का प्रकाशन बन्द करने के अलावा उनके सामने और कोई उपाय भी नहीं था। उनकी इस सूचनात्मक अपील से यह भी पता चलता है कि साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिकाओं को अपना  अस्तित्व बनाए रखने के लिए आर्थिक मोर्चे पर हमेशा संघर्ष करना पड़ता है । आज से एक शताब्दी पहले की साहित्यिक पत्रकारिता में यह  संघर्ष और भी अधिक चुनौतीपूर्ण हुआ करता था । 

छत्तीसगढ़ की इस प्रथम मासिक पत्रिका के प्रथम 12 अंकों का संकलन कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा जून 2010 में किया गया है । इसका सम्पादन  पण्डित माधवराव सप्रे के पौत्र डॉ. अशोक सप्रे ने किया है । इस विश्वविद्यालय में वर्ष 2008 में ‘ माधव राव सप्रे पत्रकारिता शोधपीठ की भी स्थापना की गयी थी।

डॉ. अशोक सप्रे के अनुसार  ‘छत्तीसगढ़ मित्र ‘हिन्दी साहित्य और समालोचना की मासिक पत्रिका थी। इसके सभी 36 अंक हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता की अनमोल ऐतिहासिक धरोहर हैं । इसके अप्रैल 1901 के अंक में छपी सप्रे जी की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी ‘ हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में स्थापित हो चुकी है ।

यह तो हुई 119 साल पहले की उस ऐतिहासिक घटना की बात, जिसने लघु पत्रिका के रूप में ही सही, लेकिन छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का एक ऐसा पौधा रोपा जो आज एक विशाल वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। अब हम चर्चा करेंगे बीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक में देश के हिन्दी बेल्ट में हुए लघु पत्रिका आंदोलन की ।

इतिहास के उतार-चढ़ाव से भरे दौर में यह एक ऐसा समय था, जब अभिव्यक्ति की छटपटाहट ने देश भर के आँचलिक साहित्यकारों को लघु पत्रिकाओं के सम्पादन और प्रकाशन के लिए प्रेरित किया । आज की तरह वो सूचना प्रौद्योगिकी और उससे उपजे ‘सोशल मीडिया’  का कोई क्रांतिकारी दौर तो नहीं था।

उन दिनों सूचनाओं और विचारों के आदान-प्रदान के लिए न तो मोबाइल फोन था, न  इंटरनेट था, न फेसबुक, न ब्लॉग, न इंस्टाग्राम और न ही वाट्सएप जैसा कोई अत्याधुनिक औजार, जिन्हें हम आज के युग में ‘सोशल मीडिया’ कहते हैं ।

अख़बारों और बड़ी पत्रिकाओं की हमेशा अपनी सीमाएं होती हैं । कवियों और लेखकों की संख्या को देखते हुए आज की तरह उन दिनों भी उनमें  सभी रचनाकारों को हर साहित्यिक अंक में  स्थान दे पाना व्यावहारिक दृष्टि से संभव भी नहीं हो पाता था । इसके अलावा कोई रचना अपनी गुणवत्ता में किसी बड़े अख़बार या किसी नामचीन पत्रिका के सम्पादक की कसौटी पर फिट न बैठे तो उसका भी प्रकाशन मुमकिन नहीं होता था । आज भी कमोबेश वही स्थिति है । 

लिहाजा  उन दिनों  देश के लगभग सभी राज्यों में  स्थानीय कवियों, कहानीकारों, लघु कथाकारों और अन्य विधाओं के रचनाकारों ने संगठित होकर और विभिन्न नामों से साहित्य समितियाँ बनाकर उनके बैनर पर इन पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू कर दिया था। 

मेरे विचार से इन लघु पत्रिकाओं को हम उस दौर का ‘सोशल मीडिया’ भी कह सकते हैं।  भले ही आज के कम्प्यूटर, मोबाइल और इनमें से अधिकांश लघु पत्रिकाएं फुलस्केप कागजों पर साइक्लोस्टाइल मशीनों से छापी  जाती थीं। आम तौर पर ये पत्रिकाएं अनियतकालीन हुआ करती थीं । याने कि प्रकाशन की कोई निश्चित अवधि नहीं होती थी। फिर भी साल में तीन-चार अंक छाप लिए जाते थे ।

किसी-किसी पत्रिका के एक वर्ष में छह अंक भी निकल जाते थे ।  सब कुछ साधन-सुविधाओं पर निर्भर करता था । छपाई के लिए स्टेंसिल का इस्तेमाल होता था । यह बीसवीं सदी के सातवें -आठवें दशक का एक साहित्यिक आंदोलन था । इन लघु पत्रिकाओं ने देश भर के, विशेष रूप से हिन्दी प्रदेशों के नये-पुराने साहित्यकारों के बीच संवाद सेतु बनाने का भी काम किया । 

तत्कालीन समय में छोटी जगहों के स्थानीय साहित्यकारों ने स्वयं की अभिव्यक्ति के लिए परस्पर सहयोग से लघु पत्रिकाओं के रूप में स्वयं का सामूहिक मंच तैयार किया । छत्तीसगढ़ भी इस आंदोलन से अछूता नहीं था । राजिम से सन्त कवि पवन दीवान ‘अंतरिक्ष ‘ नामक साइक्लोस्टाइल्ड लघु पत्रिका निकालते थे ।

वहीं से कृष्ण रंजन जी ‘बिम्ब’ नामक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन करते थे । शायद ‘बिम्ब’ की छपाई प्रिंटिंग मशीन पर होती थी ।  महासमुन्द से विश्वनाथ योगी ‘सन्तुलन’ नामक लघु पत्रिका का सम्पादन करते थे । अम्बिकापुर (सरगुजा )के विजय गुप्त प्रिंटिंग मशीन पर ‘साम्य’ नामक पत्रिका निकालते थे । 

उन्हीं दिनों पिथौरा के स्थानीय साहित्यकारों द्वारा चिन्तन साहित्य समिति का गठन किया गया था । यह वर्ष 1972 -73 की बात है । समिति के तत्वावधान में ‘चिन्तन’ नामक साइक्लोस्टाइल्ड लघु पत्रिका प्रकाशित की जाती थी , जिसके सम्पादक शंकर चंद्राकर हुआ करते थे।

इस आलेख का लेखक यानी कि मैं (स्वराज करुण ) उन दिनों हाई स्कूल का विद्यार्थी था और अपने शिक्षक श्री शंकर चन्द्राकर के निर्देश पर साइकिल में घूम-घूम कर गाँव के प्रबुद्धजनों के घरों तक ‘चिन्तन’ के अंक पहुँचाया करता था। लिखने का शौक परवान चढ़ रहा था। मेरी अनगढ़ कविताओं  को चन्द्राकर जी सुधार कर उसमें प्रकाशित कर देते थे।

मैंने अपनी स्मृतियों को खंगालकर कुछ लघु पत्रिकाओं का उल्लेख किया है। यह सिर्फ एक बानगी है । उस दौर में छत्तीसगढ़ का शायद ही कोई ऐसा इलाका शेष रह गया होगा, जहाँ से किसी साहित्यिक लघु पत्रिका का प्रकाशन न हुआ हो । मित्रों को अगर वो नाम याद आ रहे हों तो कृपया ज़रूर उल्लेख करें । 

मैं और मेरे  साथी कुंवर रविन्द्र और विदोष द्विवेदी उन दिनों हायर सेकेंडरी कक्षाओं में पढ़ते थे । साहित्य के कीटाणु हमारे दिमाग पर भी अतिक्रमण कर चुके थे । हम लोगों ने वर्ष 1974 में एक साइक्लोस्टाइल्ड लघु पत्रिका ‘समर्पण ‘ नाम से निकाली । आर्थिक संकट की वज़ह से इसका पहला अंक ही अंतिम अंक साबित हुआ।

अप्रैल 1977 में हमारे अंचल के वरिष्ठ कवि मधु धान्धी के निधन के बाद उनकी स्मृति में साहित्य समिति का गठन किया गया, जिसके बैनर पर हम लोगों ने ‘प्रोत्साहन’ शीर्षक से साइक्लोस्टाइल्ड लघु पत्रिका की शुरुआत की ।  इसका प्रथम अंक अगस्त – सितम्बर 1977 में मधु धान्धी स्मृति अंक के रूप में प्रकाशित हुआ ।

आज के दौर के अनेक चर्चित और प्रसिद्ध कवियों ने भी उसमें अपनी रचनात्मक भागीदारी दी । हम लोगों ने ‘नये रचनाकारों की प्रतिनिधि पत्रिका’ के रूप में  इसका प्रकाशन शुरू किया था, लेकिन साधनहीनता और कुछ अन्य दिक्कतों के कारण मात्र दो अंकों के बाद प्रकाशन भी बन्द करना पड़ा । कॉलेज की पढ़ाई, नौकरी -चाकरी और  रोजगार-व्यवसाय  के चक्कर में सब साथी इधर-उधर व्यस्त हो गए, कुछ लोग गाँव छोड़कर अन्यत्र चले गए और साहित्य समिति भी विघटित हो गयी । 

आज से सिर्फ़ लगभग बीस वर्ष पहले तक साइक्लोस्टाइल मशीनें सरकारी दफ्तरों में भी हुआ करती थी । सरकारी आदेशों, परिपत्रों और अन्य ज़रूरी अभिलेखों को स्टेंसिल पर टाइप करके आवश्यक संख्या में उनकी प्रतिलिपियाँ तैयार कर ली जाती थी । कम्प्यूटर क्रांति के आने पर अब साइक्लोस्टाइल मशीन और पुरानी पद्धति के टाइपराइटर हाशिये पर चले गए हैं, लेकिन उनका भी कभी एक जलवेदार ज़माना था ।

 हम चर्चा कर रहे थे लघु पत्रिकाओं के आंदोलन की । इनके प्रकाशन के लिए स्टेंसिल पर सुवाच्य और सुडौल अक्षरों में रचनाओं को लिखकर साइक्लोस्टाइल मशीन पर उसकी सौ, दो सौ या उससे कुछ अधिक प्रतियां निकाली जाती थीं ।

एक पेज के लिए एक स्टेंसिल का इस्तेमाल होता था । उस पर लिखने के लिए सुन्दर हैंडराइटिंग वालों की बड़ी मांग होती थी । वो लोग भी सौजन्यता वश सहयोग कर देते थे । कई लघु पत्रिकाओं के सम्पादक स्वयं अपने हाथों से स्टेंसिल काटा करते थे ।

कई बार कविताओं और लघु कथाओं आदि को स्टेंसिल पर टाईप भी कर लिया जाता था। छपाई आदि का खर्चा साहित्यकार आपस में चंदा करके वहन कर लेते थे । कुछ स्थानीय साहित्य प्रेमियों का भी सहयोग मिल जाता था । मूल्य के स्थान पर सहयोग राशि लिखकर ‘जो दे उसका भी भला और जो न दे उसका भी भला’ की तर्ज़ पर पत्रिका के अंक वितरित किए जाते थे । कुल मिलाकर रचनात्मक अभिव्यक्ति इसका मुख्य उद्देश्य होता था ।

कुछ लघु पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ किसी हैंड कम्पोजिंग वाले ट्रेडल प्रिंटिंग प्रेस से छपवा लिए जाते थे और भीतरी पन्ने साइक्लोस्टाइल मशीन से छापकर स्टेपलर से उनकी ‘बाइंडिंग’ कर ली जाती थी । फिर उन्हें रचनाकारों को बुकपोस्ट से भेजा जाता था ।

स्थानीय रचनाकार और प्रबुद्ध जन भी उन्हें बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते थे ।  हमारे गाँव से मधु धान्धी स्मृति साहित्य एवं सांस्कृतिक समिति द्वारा प्रकाशित लघु पत्रिका ‘प्रोत्साहन ‘ के प्रवेशांक का मुखपृष्ठ और वरिष्ठजनों के शुभकामना संदेशों वाला भीतर का एक पन्ना यहाँ प्रस्तुत है ।  दोनों पृष्ठ प्रिंटिंग मशीन से छपवाए गए थे, जबकि भीतर के अन्य पृष्ठों को टाइपराइटर पर स्टेंसिल काटकर साइक्लोस्टाइल मशीन से छापा गया था ।

इसमें छत्तीसगढ़ के छत्तीस रचनाकारों की कविताओं का संकलन था । इनमें से बिल्हा के केदारनाथ दुबे ‘कोमल ‘ महेश परमार “परिमल”, रंजीत भट्टाचार्य, वीरेन्द्र नामदेव, गणेश सोनी “प्रतीक”, बिहारी दुबे आदि फ़ेसबुक पर सक्रिय हैं, सुरज राही, देवेन्द्र कुमार साव, शेषदेव भोई, मनजीत कोमल “ सन्यासी का निधन हो चुका है। शेष रचनाकार साथी कहीं न कहीं सक्रिय और सकुशल होंगे।

कम्प्यूटर युग के आगमन के साथ ही अब तो  प्रिंटिंग टैक्नॉलॉजी में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया है । इसलिए साहित्यिक लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आसानी से हो सकता है, लेकिन कुछ एक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अब अधिकांश रचनाकारों में वैसा जोश और जज़्बा नहीं दिखाई देता जो  उस दौर में हुआ करता था। 

कारण चाहे जो भी हो, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत की हिन्दी पट्टी के दूर दराज गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों में साहित्यिक ज़मीन तैयार करने और वहाँ की दबी-छुपी  प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने में लघु पत्रिका आंदोलन की एक यादगार और ऐतिहासिक भूमिका थी । हिन्दी के साथ-साथ आँचलिक बोलियों और भाषाओं के रचनाकारों को भी इस आंदोलन से अभिव्यक्ति का एक नया मंच मिला ।

आलेख

स्वराज करुण, रायपुर

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