Home / साहित्य / आधुनिक साहित्य / अमर शहीदों का चारण राष्ट्र कवि

अमर शहीदों का चारण राष्ट्र कवि

2 सितंबर 2000 स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल का निर्वाण दिवस

श्रीकृष्ण सरल की कविता ग्यारहवीं की हिन्दी पाठ्य पुस्तक में थी, हम उसे पढ़ते थे। 1983 में एक दिन श्रीकृष्ण सरल जी स्वयं मेरे स्कूल में पधारे। क्लास में आकर उन्होंने “अमर शहीदों का चारण” नामक कविता सुनाई। वे अपनी किताबें स्वयं बेचते थे। उस समय मैंने उनसे किताबें पाँच रुपये में खरीदी थी। मैंने राष्ट्र कवि श्रीकृष्ण सरल को कविता पाठ करते देखा था। आज उनकी पुण्यतिथि है। सादर नमन – सम्पादक

सुप्रसिद्ध राष्ट्र कवि श्रीकृष्ण सरल का पूरा जीवन भारत के क्रातिकारियों की गाथा लिखने और गाने में बीता। उन्होंने अपना पूरा जीवन और अपनी श्रम साधना से कमाया हुआ धन भी क्रातिकारियों की गौरव गाथा को एकत्र करने और उन्हें समाज के सामने लाने में समर्पित किया।

वस्तुतः वे एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिन्होंने स्वतंत्रता से पहले स्वतंत्रता के लिये समाज का जागरण किया और स्वतंत्रता के बाद स्वतंत्रता को सशक्त और आत्मनिर्भर बनाने के लिये राष्ट्र जागरण किया। उनका जन्म 1 जनवरी 1919 को मध्यप्रदेश के अशोकनगर में हुआ।

उन दिनों अशोकनगर पृथक से जिला नहीं था। अशोकनगर तब गुना जिले के अंतर्गत ग्वालियर रियासत का अंग हुआ करता था। उनका परिवार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार था। 1857 में उनके परिवारजनों नें तात्या टोपे के नेतृत्व में 1857 की क्रांति में बलिदान दिया था तो पिता भगवती प्रसाद विरथरे ने सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी चंद्रशेखर आजाद के अज्ञातवास में सहयोगी रहे और माता यमुना देवी भारतीय संस्कारो और परंपराओ के लिये समर्पित रहीं।

घर में माता के पूजन पाठ भजन हवन की गूँज रहती तो पिता द्वारा समाज जनों से भारत राष्ट्र के गौरव का वर्णन होता। आध्यात्म और स्वाधीनता आंदोलन में सहयोग एवं चर्चा के बीच सरल जी ने जन्म लिया होश संभाला पर उन्हें माता का सुख अधिक न मिल पाया। वे अभी पाँच वर्ष के ही हुये थे कि माता यमुना देवी ने संसार से विदा ले ली।

श्रीकृष्ण जी पिता के सानिध्य में बड़े हुये और राष्ट्र सेवा में लग गये। वे स्वयं तो स्वाधीनता सेनानी रहे ही पर साथ में अपने साथी सहपाठी नौजवानों को भी स्वतंत्रता संग्राम में जोड़ा। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागी बने। प्रभात फेरियां निकालीं।

श्री सरल में क्रांतिकारियों के प्रति अनुराग बचपन से ही था। जब “राजगुरु’ को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर ले जाया जा रहा था, तब सरल जी 12 वर्ष के थे। भीड़ ने “वन्देमातरम्’ के नारे लगाए तो रेल में से राजगुरु ने भी नारे लगाए।

यह देखकर अंग्रेज सिपाहियों ने राजगुरु को धकेल दिया इस पर बालक सरल ने अंग्रेज सिपाही के सर पर एक पत्थर दे मारा। फिर क्या था बालक को बुरी तरह पीटा गया। सब लोग उन्हें मृत समझकर छोड़कर चले गए, क्योंकि ट्रेन चल दी थी।

जीवनपर्यन्त उस पिटाई के घाव उनके शरीर पर बने रहे, जिन्हें वे गर्व से अपने लिए “पदक’ मानते थे। पढ़ाई पूरी करके शासकीय महाविद्यालय उज्जैन में प्रोफेसर हो गये।

लेखन कार्य उन्होंने बालवय से ही आरंभ कर दिया था। जब दस वर्ष के थे तब अपनी पहली स्वरचित रचनाएँ विद्यालय में सुनाया करते थे। वे विद्यार्थी रहे हों या महाविद्यालय में शिक्षक उनका लेखन कार्य निरंतर रहा।

उनके लिखने के विषय कुल तीन रहे एक स्वतंत्रता सेनानियों और क्राँतिकारियों के बलिदान से समाज को अवगत कराना, दूसरा भारत राष्ट्र और भारतीय संस्कृति का गौरव गान एवं तीसरा वर्तमान पीढ़ी से सकारात्मक कार्यों और राष्ट्र सेवा का आव्हान। उनका लेखन जीवन के अंतिम क्षणों तक यथावत रहा। पर अंतर इतना आया कि उनकी लेखनी आध्यात्म की ओर भी मुड़ी।

क्राँतिकारियों पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें पन्द्रह महाकाव्य हैं। उनका अधिकांश लेखन क्रांतिकारियों पर ही केन्द्रित रहा है। उन्होने लेखन में कई विश्व कीर्तिमान स्थापित किए हैं। सर्वाधिक क्रांति-लेखन और सर्वाधिक पन्द्रह महाकाव्य लिखने का श्रेय सरलजी को ही जाता है। उनके द्वारा भारतीय सैनिकों की बलिदानी परंपराओं का स्मरण कराने के कारण पूरे समाज ने उन्हे राष्ट्रवादी कवि की उपाधि प्रदान की। लेकिन उन्होंने स्वयं को लिए “युग चारण” ही कहा। उनके द्वारा रचित प्रसिद्ध रचना :-
“मैंअमर शहीदों का चारण,
उनके गुण गाया करता हूँ ।
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है,
मैं उसे चुकाया करता हूँ।”

“अमर शहीदों का चारण” हिन्दी साहित्य की एक अद्भुत और कालजयी रचना है। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने श्रीकृष्ण सरल जी के नाम पर कविता के लिए प्रति वर्ष”श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार” आरंभ किया है। उन्हें विभिन्न संस्थाओं द्वारा ‘भारत गौरव’, ‘राष्ट्र कवि’, ‘क्रांति-कवि’, ‘क्रांति-रत्न’, ‘अभिनव-भूषण’, ‘मानव-रत्न’, ‘श्रेष्ठ कला-आचार्य’ आदि अलंकरणों से विभूषित किया गया।

उन्होंने सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जी से प्रेरित होकर अमर बलिदानी भगत सिंह की माता श्रीमती विद्यावती जी के सानिध्य में राष्ट्र के प्राण दानियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपने साहित्य का विषय बनाया। वे चाहते थे कि आने वाली पीढियाँ इन हुतात्माओं से परिचित हों और राष्ट्र निर्माण के लिये आगे आएँ। यह झलक उनकी रचनाओं में बहुत स्पष्ट है –
“जिसे देश से प्यार नहीं हैं
जीने का अधिकार नहीं हैं।
जीने को तो पशु भी जी लेते हैं,
अपना पेट भरा करते हैं,
कुछ दिन दुनियाँ में रह कर
वे अन्तत: मरा करते हैं।
ऐसे जीवन और मरण को,
होता यह संसार नहीं है

इस रचना में बहुत स्पष्ट एक सक्रिय और सृजनात्मक जीवन जीने का आव्हान है । उनकी एक अन्य रचना –
“करो या मरो, वीर की तरह,
चलो सुरभित समीर की तरह,
जियो या मरो, वीर की तरह।
वीरता जीवन का भूषण
वीर भोग्या है वसुंधरा
भीरुता जीवन का दूषण
भीरु जीवित भी मरा-मरा
वीर बन उठो सदा ऊँचे,
न नीचे बहो नीर की तरह।
जियो या मरो, वीर की तरह ।”

उनकी रचनाओं और व्यक्तित्त्व पर सुप्रसिद्ध साहित्यकार पं॰ बनारसीदास चतुर्वेदी ने कहा था कि- ‘भारतीय शहीदों का समुचित श्राद्ध तो सरल जी ने ही किया है।’ महान क्रान्तिकारी पं॰ परमानन्द ने कहा था- ‘सरल जी जीवित शहीद हैं।’

अपने जीवन के उत्तरार्ध में सरल जी आध्यात्मिक चिन्तन की ओर मुड़े। उन्होंने तीन महाकाव्य लिखे। एक तुलसी मानस, दूसरा सरल रामायण एवं तीसरा सीतायन। इन तीनों महाकाव्यों संस्कृति भक्ति और मर्यादापुरुषोत्तम राम तथा माता सीता का आदर्श चरित्र वर्णन तो है ही।

इसके साथ उनके जीवन या उनके अवतरण लीला से समाज जीवन को संदेश क्या है इसका भी संकेत है। सरल जी ने अपने व्यक्तिगत प्रयत्नों से 15 महाकाव्यों सहित 124 ग्रन्थ लिखे और स्वयं ही उनका प्रकाशन कराया तथा अपनी पुस्तकों की 5 लाख प्रतियाँ बेचीं। इस काम में उन्होने अपनी सारी पूँजी लगा दी थी।

क्रान्तिकथाओं का शोधपूर्ण लेखन करने के सन्दर्भ में अपने खर्च पर दस देशों की यात्राओं पर गये। पुस्तकों के लिखने और उन्हें प्रकाशित कराने में सरल जी की अचल सम्पत्ति से लेकर पत्नी के आभूषण तक बिक गये। उनकी सर्वाधिक अमर कृति ‘क्रांति गंगा’ को लिखने में 27 वर्षों का समय लगा। बलिदानी भगतसिंह पर लिखे महाकाव्य का विमोचन करने हेतु भगतसिंह की माताजी स्वयं श्रीकृष्ण सरलजी के आमंत्रण पर उपस्थित हुई थीं।

श्रीकृष्ण सरल जी की काव्य रचनाएँ जितनी महत्वपूर्ण हैं, उससे कहीं अधिक दुष्कर कार्य उन्होंने किया है। देश भर में घूम घूमकर भारत के अज्ञात व बेनाम क्रांतिकारियों के संस्मरण संजोने का का कार्य किया। उनके द्वारा लिखित “क्रांतिकारी कोष” भारत के क्रांतिकारी इतिहास का दुर्लभ ग्रन्थ है। लेकिन दुर्भाग्य से “दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल” की मिथ्या आत्म प्रवंचना ने उस दुर्लभ दस्तावेज को प्रचारित प्रसारित नहीं होने दिया।

सरल जी का कहना था कि मैं क्रांतिकारियों पर इसलिए लिखता हूं जिससे आने वाली पीढ़ियों को कृतघ्न न कहा जाए। ‍’जीवित-शहीद’ की उपाधि से अलंकृत श्रीकृष्ण ‘सरल’ सिर्फ नाम के ही सरल नहीं थे, सरलता उनका स्वभाव था।

राष्ट्र, संस्कृति और राष्ट्र रक्षा के लिये अपना जीवन बलिदान करने वाले क्राँतिकारियों की गाथा में अपना जीवन अर्पित करने वाले श्रीकृष्ण सरल जी ने 2 सितंबर 2000 को संसार से विदा ली। श्री सरल अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी कविताओं के कारण दो बार जेल जाना पड़ा। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में श्री सरल ने खुलकर भाग लिया।

रोचक बात यह है कि उनके द्वारा अनुशंसित व्यक्ति तो पेंशन पा गए, पर श्री सरल को शासन ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं माना। यहां तक कि उनकी अंत्येष्टि में शासन/प्रशासन का कोई भी प्रतिनिधि तक नहीं पहुंचा। वे भले संसार से विदा हुये लेकिन उनका रचना संसार आज भी समाज को प्रेरणा दे रहा है।

आलेख

श्री रमेश शर्मा,
भोपाल मध्य प्रदेश

About nohukum123

Check Also

सदाबहार गीतकार याने श्री नारायण लाल परमार

27अप्रेल नारायण लाल परमार जी की पुण्यतिथि पर विशेष आलेख अपने भीतर एवं निहायती देहाती …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *