सरगुजा अंचल में कई लोकपर्व मनाएं जाते हैं, इन लोक पर्वों में “छेरता” का अपना ही महत्व है। इसे मैदानी छत्तीसगढ़ में “छेरछेरा” भी कहा जाता है। इस लोकपर्व को देशी पूस माह की शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस त्यौहार को समाज के सभी वर्ग परम्परागत रुप से मनाते हैं।
सरगुजा के ग्रामीण अंचल में लोग इस त्यौहार को पखवाड़े भर तक मनाते है। छेरता त्यौहार को लेकर किवदंती चाहे कुछ भी हो, इस त्यौहार की धार्मिक मान्यता किसी भी रूप में हो लेकिन हकीकत तो ये है कि किसान वर्ग मेहनत के बाद खेतों से धान का नया फसल लाता है। कटाई मिसाई के बाद धान का एक-एक दाना घर में सहेज कर रखता है। घर में नई फ़सल आने की खुशी में यह त्यौहार मनाया जाता है।
छेरता त्यौहार के लिये ग्राम स्तर पर एक सप्ताह पहले ही कोटवार के द्वारा मुनादी करा दी जाती है कि छेरता त्यौहार नियत तिथि को मनाया जाएगा। खासकर इस त्यौहार को बच्चों, बुजुर्गों का त्यौहार माना जाता है। इसके साथ ही त्यौहार में महिलायें भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती है।
सबेरे बच्चे टोली बनाकर ‘‘छेर छेरता,कोठी के धान हेर देता‘‘ कहते हुए गांव गलियों में घर-घर जाकर छेरता मांगते है। अपने गांव मोहल्ले के बच्चों को लोग धान देते है। बच्चों के साथ बुजुर्ग भी घर-घर छेरता मांगने पहूंचते हैं। उन बुजुर्गों को गुड़ चुड़ा, चावल के आटे से बना रोटी खिलाई जाती है। कहीं-कहीं ग्रामीण अंचले में कच्ची शराब भी मेहमानी के तौर पर पिलाई जाती है ताकि छेरता का आनंद कम न हो।
बच्चे छेरता मांगने के बाद टोली बना किसी तालाब या सरोवर के पास छेरता रांधने-खाने जाते हैं। चावल, दाल, सब्जी इत्यादि बनाकर पहले तैयार किया जाता है। बाद इसके टोली के एक लड़के को छेरता कौंवा बनाया जाता है। सर्वप्रथम बने हुए खाने में से एक दोना में सभी व्यंजनो को निकालकर दूर एक किनारे में रखा जाता है।
छेरता कौंवा बना वह लड़का व्यंजन से भरे दोना को उठा ले भागने का प्रयास करता बार-बार करता है, जिसपर छेरता कौंवा बने हुए उस लड़के को चूल्हे की जलती हुई लकड़ी से मारने का चलन भी इस दौरान रहा है। लड़का व्यंजन का दोना लेकर भाग जाता है, जिसे वह टोली से अलग होकर खाता है। व्यंजन खा लेने के पश्चात उसे पुनः टोली में शामिल कर लिया जाता है।
गाते बजाते, खुशियाँ मनाते बच्चे शाम होते ही अपने अपने घरों को लौटते है। फिर दौर चलता है लोकड़ी मांगने का। लोकड़ी में भी बुजुर्ग,महिलाऐं एवं बच्चे अधिकतर मात्रा में भाग लेते है। अलग अलग वेषभूषा से सुसज्जित कोई जोकर तो कोई बंदर, लोमड़ी तो कोई साधु के वेश में दिखाई पड़ता है। फिर एक बार दरवाजे-दरवाजे जाकर लोकड़ी मांगने का दौर प्रारंभ होता है। लोकड़ी मांगने के दौरान कुछ इस तरह बच्चे लोकड़ी गीत गाकर लोगो का मनोरंजन करते हुए सुनाई देते हैः-
उधम झूरी उधम झूरी,कौवा लोरे झूरी।
हालू हालू विदा करिहा,जाय बर बड़ दूरी।
बांस पताई रटपट, हमला दिहा झटपट।
लोक लोकड़ी लोकड़ खोरसा।
ककईया गोथली मनके देवरा ।
एैसे कई सारे सरगुजिहा लोकड़ी गीत लोकड़ी मांगने के दौरान गाये जाते हैं। मोहल्ले टोले के घर वाले इन लोकड़ी मांगने वाले लोगो को चावल धान पैसा देकर विदा करते है। यह सिलसिला मोहल्ले के सभी घरों में देर रात तक जारी रहता है, जहां लोकड़ी मांगने वाली यह टोलियां घर-घर जाकर लोकड़ी मांगती है।
देर रात तक लोकड़ी मांगने के बाद यह टोली अपने अपने घरों को लौटने लगती है। पूस के महिने की सर्द रात धीरे-धीरे ढलने लगती है और छेर छेरता का कोलाहल रात के सन्नाटों में कहीं गुम सा हो जाता है।
इसके पश्चात छेरता का भोज होता है। गांवो में किसी खास मित्र के छेरता के रोज त्यौहार मनाने नहीं पहूंच पाने के कारण बुलावे पर सप्ताह भर तथा पखवाड़े के मध्य रिश्तेदार, जान-पहचान के लोग एक दूसरे के गांव छेरता मनाने पहूंचते है। जहां त्यौहार के निमित खातिरदारी, खाने खिलाने पीने-पिलाने के साथ की जाती है।
इस त्योहार में गुड़ चुड़े का खास महत्व होता है। कालांतर में मूर्गा-दारू भी काफी मात्रा में चलन में है जहां बड़ी संख्या में लोग त्योहार के दौरान कच्ची शराब का सेवन करते हैं तथा उत्साह के साथ छेरता त्यौहार मनाते हैं। इस तरह सरगुजा का छेरता त्यौहार सप्ताह भर तक मनाया जाता है।
आलेख
sargujiya boli bhut suhatha.