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आदिवासी वीरांगनाओं की स्मृति में भरता है यह कुंभ जैसा भव्य मेला

मेदाराम दंडकारण्य का एक हिस्सा है, यह तेलंगाना के जयशंकर भूपालापल्ली जिले में गोदावरी नदी की सहायक नदी जामपन्ना वागु के किनारे स्थित है। यहाँ प्रति दो वर्षों में हिन्दू वनवासियों का विश्व का सबसे बड़ा (जातरा) मेला भरता है। गत वर्ष 2018 के चार दिवसीय मेले में लगभग एक करोड़ से अधिक लोगों ने उपस्थित होकर देवी सम्माक्का एवं सरलाम्मा की पूजा अर्चना की एवं जामपन्ना वागो नदी में स्नान किया।


कुंभ के बाद अगर कहीं मनुष्यों का बड़ा जमावड़ा होता है, वह स्थान मेदाराम ही है। यह जातरा मेला लोकदेवी सम्माक्का एवं सरलाम्मा को समर्पित है। यहाँ पर इनका 12 वीं शताब्दी में निर्मित मंदिर है, जहाँ प्रत्येक दो वर्ष में श्रद्धालु जुटते हैं एवं सुख समृद्धि की कामना लेकर देवियों की पूजा करते हैं तथा अपने वजन के बराबर गुड़ का प्रसाद वितरण करते हैं।

यह स्थान छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले स्थित भोपालपत्तनम से लगभग 115 किमी की दूरी पर है। इस जातरा में तेलंगाना के अतिरिक्त छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के एक करोड़ से ज्यादा लोग सम्मिलित होते हैं, जो इस जातरा मेला को भव्यता प्रदान करते हैं। 1976 से पूर्व यहाँ तक पहुंचने के लिए सड़क का साधन नहीं था। श्रद्धालु कच्चे मार्ग से बैलगाड़ियों में एवं पैदल आते थे।

सम्मक्का सरलाम्मा मंदिर के मुख्य देवता दो बहादुर महिलाएं हैं जो अपने समुदाय और इसकी बेहतरी के लिए खड़ी हुई हैं और युद्ध में शहीद हो गयी। सम्मक्का की शक्तियों के विषय में बहुत सारी किंवदन्तियाँ एवं कथाएं जनमानस में प्रचलित हैं। कहते हैं कि यह जातरा मेला एक अन्यायपूर्ण कानून के खिलाफ शासक शासकों के साथ एक माँ और बेटी, सममक्का और सरलाम्मा की लड़ाई की याद दिलाता है।

किंवदंती के अनुसार, एक बार कोया आदिवासी समुदाय की एक टुकड़ी एक यात्रा से लौट रही थी, जब टुकड़ी के प्रमुख ने एक छोटी लड़की को बाघिन के साथ खेलते हुए देखा तो उसकी बहादुरी से प्रभावित होकर, उसने उसे अपनाया और उसका नाम समक्का रखा।

बाद में उसने एक पड़ोसी आदिवासी समूह के एक मुखिया से शादी की और उसकी एक बेटी, सरलाम्मा थी। दोनों माँ और बेटी ने काकतीय राजाओं का विरोध किया जिन्होंने जनजातियों को करों का भुगतान करने के लिए मजबूर किया। दोनों महिलाओं ने बहादुरी से लड़ाई की और कथित तौर पर अपनी जान गंवाई। कोया समुदाय ने इस मंदिर का निर्माण दोनों बहादुर महिलाओं की समृति स्वरुप किया।

कहते हैं कि जामपन्ना आदिवासी योद्धा और आदिवासी देवी सममक्का के पुत्र हैं। नदी की इस धारा को काकतीय सेना के खिलाफ लड़ाई में मारे जाने पर जम्पन्ना वागू के नाम से जाना जाने लगा। लोग मानते हैं कि युद्ध के कारण बहे रक्त के कारण जाम्पन्ना नदी का रंग अभी भी लाल है।

वनवासियों का मानना है कि जम्पन्ना वागु के लाल पानी में एक पवित्र डुबकी लेना उन्हें अपने देवताओं के बलिदान को याद दिलाता है, जो उन्हें बचाते हैं और उनकी आत्माओं में भी साहस पैदा करते हैं। यहाँ लोग देवी-देवताओं को अपने वजन के बराबर बेलम (गुड़) चढ़ाते हैं और जम्पन्ना वगु (धारा) में पवित्र स्नान करते हैं। अब यह मेला 2020 में होगा।

(फ़ोटो – मेदाराम डॉट कॉम से साभार)

आलेख

ललित शर्मा
इंडोलॉजिस्ट

 

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