भारत मे अनेक वीरांगनाएं अवतरित हुई जिन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। एक प्राकृतिक तथ्य है कि नारी स्वभाव से ही कोमलकांत होने साथ कर्मठ और सहनशील होती है। धैर्य, साहस, आत्मविश्वास से भरी होती हैं इसलिए राष्ट्र निर्माण के कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ऐसी ही वीरंगना रानी दुर्गावती थीं, जिन्होंने राज्य की रक्षा के लिए मुगलों से लोहा लिया था।
रानी दुर्गावती, कलिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र सन्तान थीं। बाँदा जिले के कालिंजर किले में 5 अक्टूबर 1524 ईस्वीं की दुर्गाष्टमी के दिन जन्म होने के कारण इनका नाम दुर्गावती रखा गया। अपने नाम के अनुरूप ही तेज,साहसी, शौर्य, अत्यंत सुंदर थीं इसलिए इनके सौन्दर्य की ख्याति चारों ओर थी।
दुर्गावती बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में रुचि रखती थीं ।इन्होंने अपने पिता के यहां घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवारबाज़ी जैसी युद्ध कलाओं में महारत हासिल की। अक़बर नामा में अबुल फजल ने दुर्गावती के बारे में लिखा है ”वह बंदूक और तीर से निशाना लगाने में बहुत उम्दा थीं और लगातार शिकार पर जाया करती थीं।”
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रानी दुर्गावती चंदेल वंश की थीं। कहा जाता है की इनके वंशजों ने खजुराहों मंन्दिर का निर्माण करवाया था। जिन्होंने महमूद गजनवी के आगमन को भारत में रोका था। परंतु 16 वीं शताब्दी के आते-आते चंदेल शासकों की ताकत बिखरने लगी।
रानी दुर्गावती की सुंदरता की प्रसिध्दि से प्रभावित होकर गोंडवाना साम्राज्य के राजा संग्राम शाह मडावी ने 1542 में 18 साल की उम्र में अपने पुत्र दलपतशाह मडावी से विवाह करके अपनी पुत्रवधु बनाया था। मध्यप्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में रहने वाले गोंड वंशज चार राज्यों पर राज्य करते थे, जिसमें गढ़मंडला, देवगढ़, चन्दा और खेरला था।
दलपत शाह का अधिकार गढ़मंडला पर था। दुर्गावती के मायके और ससुराल की जाति भिन्न थी और यह शायद पहली बार था, जब एक राजपूत राजकुमारी का विवाह गोंड़वंश में हुआ था। विवाह के चार वर्ष बाद ही दलपत शाह का निधन हो गया। इनका एक पुत्र नारायण जो तीन वर्ष का था इसलिए रानी ने संरक्षिका के रूप में गढ़ मंडला का शासन संभाल लिया।
रानी दुर्गावती एक बेहतरीन शासक के रूप में उभरीं। उन्होंने अपने शासनकाल में अनेक मठ, कुएँ, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाई। वर्तमान जबलपुर जो उनके राज्य का केंद्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरी ताल, अपने नाम पर रानी ताल एवं अपने विश्वासपात्र दीवान आधार सिंह के नाम पर आधार ताल बनवाया।
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अपने राजदरबार में मुस्लिम लोगों को अच्छे पदों में रखा। अपनी राजधानी को चौरागढ़ से स्थानांतरित कर सिंगौरगढ़ किया क्योंकि राजनैतिक रूप से यह स्थान महत्वपूर्ण था। अपने पूर्वजों की भांति इन्होंने अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाया।
15वीं शताब्दी में शहंशाह अकबर के नेतृत्व में मुगल साम्राज्य पूरे भारत में परचम लहरा रहा था। बहुत से हिन्दू राजाओं ने उनकी सत्ता स्वीकार कर ली थी और कुछ राजाओं ने अपना राज्य बचाने के लिए डटकर मुकाबला किया।
राजपुताना के बाद अकबर की नजर मध्य भारत पर पड़ी जिसे जीतना इतना आसान नहीं था क्योंकि गोंडवाना जहां एक हिन्दू रानी अपने पूरे स्वाभिमान और साहस के साथ अपने राज्य को बचाने के लिए अडिग थी।
रानी दुर्गावती ने अपने पहले युद्ध से ही भारत वर्ष में अपना नाम रोशन किया था। शेरशाह की मृत्यु के बाद सूरत खान ने कार्यभार संभाला जो मालवा गणराज्य पर शासन कर रहा था। सूरत खान के बाद उसके पुत्र बाज बहादुर ने बागडोर अपने हाथ ली। जो रानी रूपमती के प्रेम के लिए प्रसिद्ध हुआ।
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उसे महिला शासक को हराना बहुत आसान लग रहा था। उसने रानी दुर्गावती के साम्राज्य पर हमला कर दिया। कमजोर समझने की भूल के कारण उसे हार का सामना करना पड़ा। उसके कई सैनिक घायल हो गए थे। बाज बहादुर के साथ इस युद्ध मे जीत से रानी दुर्गावती का डंका बज गया।
रानी दुर्गावती के राज्य पर मुगल सूबेदार अब्दुल मजिद खान की नजर थी। जो असफ खान के नाम से जाना जाता था।उसने अकबर को रानी दुर्गावती के खिलाफ भड़काया। अकबर उसकी बातों में आकर दुर्गावती के राज्य को हड़प कर रानी को अपने रनवासे की शोभा बढ़ाना चाहता था।
उसने रानी को पत्र लिखकर उसके प्रिय सफेद हाथी सरमन और उसके विश्वस्त वजीर आधार सिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसपर अकबर ने आसफखां के नेतृत्व में गोंडवाना में हमला बोल दिया। एक बार पराजित होने के बाद आसफ़ खान ने दुगुनी सेना और तैयारी के साथ हमला किया।
रानी दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने राज्य की रक्षा के लिए योजनाएं बनाई। उनके एक दीवान ने बताया कि मुगल सेना के सामने हम कुछ नहीं है। रानी ने कहा कि “शर्मनाक जीवन जीने की तुलना में सम्मान से मरना बेहतर है।” फिर उन्होंने युद्ध का फैसला लिया और जबलपुर के नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया और पुरुषवेश में युद्ध का नेतृत्व किया। दुर्गावती की युद्धशैली ने मुगलों को भी चौंका दिया। इस युद्ध में 3000 मुगल सैनिक मारे गए। लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई।
अगले दिन24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला किया। रानी का पक्ष दुर्बल था उसने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान भेज दिया और स्वयं युद्ध संभाला। रानी के पास केवल 300 सैनिक बचे थे। रानी को एक तीर उनकी भुजा पर लगा जिसे उन्होंने निकाल फेंका। दूसरा तीर उनकी आंख को बेध दिया रानी ने उसे भी निकाल फेंका। परन्तु उसकी नोक आंख में ही रह गई। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में धंस गया।
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रानी ने अपना अंतिम समय निकट देख अपने वजीर आधार सिंह से आग्रह किया कि वह तलवार से उनकी गर्दन काट दे परंतु वह तैयार नहीं हुआ तो रानी ने स्वयं ही अपने सीने में कटार भोंककर आत्मबलिदान के पथ पर बढ़ गई। इस दिन को बलिदान दिवस के नाम से जाना जाता है।
रानी की मृत्यु के बाद के बाद उनके बेटे ने युद्ध जारी रखा, लेकिन शीध्र ही वीरगति को प्राप्त हुआ और गढ़मंडला का विलय मुगल सम्राज्य में हो गया। अपनी मृत्यु से पहले रानी दुर्गावती ने 15 वर्षों तक शासन किया।
कुछ सूत्रों के अनुसार 1564 में हुई रानी दुर्गावती की यह अंतिम लड़ाई सिंगरामपुर जो वर्तमान में मध्यप्रदेश के दमोह जिले स्थित है वहाँ हुईं थी। रानी दुर्गावती की मृत्यु के बाद गोंड राज्य आज भी रानी के साहस और पराक्रम को याद करता है। रानी का शरीर मंडला और जबलपुर के बीच स्थित पहाड़ियों में गिरा था, इसलिए यहीं स्थित बरेला में इनकी समाधि बनाई गई है जहां लोग दर्शन के लिए आते है।
रानी दुर्गावती के सम्मान में बहुत जगहों का नामकरण किया गया है। सन 1993 में जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम “रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय” कर दिया गया। साथ ही उनके नाम का डाक टिकट भी जारी किया गया है। इसके अलावा बुंदेलखंड में रानी दुर्गावती कीर्ति स्तम्भ, रानी दुर्गावती संग्रहालय एवं मेमोरियल और रानी दुर्गावती अभ्यारण्य है। वीरांगना रानी दुर्गावती को उनके जन्म दिवस पर शत शत नमन।
आलेख
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हिन्दी व्याख्याता अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़
जानकारी परक आलेख
बहुत अच्छा आलेख।
ज्ञानवर्धक आलेख