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रमई पाट में राम जानकी

दक्षिण कोसल के लोक साहित्य में राम

छत्तीसगढ़ी प्रहेलिकाओं में त्रेतायुगीन चरित्रों का भी संकेत मिलता है। राम यहां के जन जीवन में रमें हुए दिखाई देते हैं। विद्वानों का कथन है कि इस भू-भाग भगवान राम ने अपने वनवास का काफ़ी समय व्यतीत किया। छत्तीसगढ़ी की प्रहेलिकाओं में राम और सीता का स्थायीकरण हुआ है।

राम अलौकिक होकर भी लोक साहित्य में लौकिक धरातल पर गृहित हुए हैं। भगवान रामचंद्र का पुरुषोत्तम के रुप में उल्लेख नहीं होता वे एक कृषक के रुप में यहां उपस्थित हैं। एक पहेली में उनको हल चलाते हुए दिखाया गया है। जगत मात सीता भी छत्तीसगढ़ी कृषक पत्नी के समान खेत पर रामचंद्र को बासी (जल लवण युक्त भात) पहुंचाती है।

इसके माध्यम से पहेलीकार ने अलौकिक देवी-देवताओं का जो साधारणीकरण किया है वह दृष्टव्य है……

राम गिस नांगर फ़ांदे
सीता ला दिस बासी
बिन बीज के साग लान दे
हमूं खाबो बासी।

अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र श्री राम और वधु सीता पति पत्नी हैं, लक्ष्मण राम के छोटे भाई हैं। लोक साहित्य में इन दोनों भाईयों की जोड़ी शोभायमान होती है। दशरथ और सुमंत का उल्लेख राम बनवास के संदर्भ में हुआ है –

राज पूछही त बताहौ का
एक अंधेर कबले चलिही
जबले चलिही तबले चलिही
नई चलिही त अपन घर चल दिही।

सुमंत दशरथ के मंत्री हैं, सुमंत को रामचंद को वन पहुंचा देने की आज्ञा मिलती है। लोक साहित्य ने रामचंद्र जी के बनवास के कष्टों को आज भी अपनी स्मृति में संजोए रखा है। इसीलिए उसमें कैकई और राजा दशरथ को लांछित किया गया है।

छत्तीसगढ़ी की एक प्रहेलिका में सीता के वन प्रवास का उल्लेख हुआ है। सीता पुन: वनवासिनी हो जाती है। वन में उन्हें वाल्मिकी का आश्रय प्राप्त होता है। छत्तीसगढ़ी की एक प्रहेलिका में सीता और वाल्मीकि से संबंधित एक घटना का उल्लेख किया गया है। एक दिन सीता लव को वाल्मीकि की देख-रेख में पालने पर सुला कर नदी चली जाती है। नदी पर सीता एक बंदरिया को देखती है, जो अपने बच्चों को छाती से चिपका कर वृक्ष की ऊंची ऊंची शाखाओं पर कूद रही है।

सीता उससे कहती है- बंदरिया तुम अपने नन्हे नन्हे बच्चे को लेकर इतनी ऊंचाई से क्यों कूद रही हो। तुम अपने बच्चे को घर पर ही क्यों नहीं छोड़कर आती। बंदरिया कहती है, यदि मैं इसे घर में छोड़कर आऊं और उधर हिंसक पशु उठा ले गये तब? तब सीता का ध्यान तत्काल अपने शिशु की ओर जाता है और वह सोचती है कि कहीं वाल्मीकि सो तो नहीं गये या कहीं चले तो नहीं गये। उनके शिशु को कोई उठा तो नहीं ले गया।?

सीता तत्काल आश्रम लौटती है और शिशु को लेकर पुन: स्नान के लिए नदी पर लौट आती है। उधर वाल्मीकि जब अर्ध निद्रा से उठते हैं तब पालने में लव नहीं मिलता। उन्हें चिंता होती है कि जब सीता लौटकर आएगी और वह जब अपने बच्चे को पालने पर नहीं पाएगी तब उसे मर्मांतक पीड़ा होगी। वाल्मीकि सीता के कष्ट की कल्पना मात्र से द्रवित हो उठते हैं। वे अपने शरीर के कल्मष से एक बालक की मूर्ति बनाते हैं और अपनी मंत्र साधना से कुश को जल सिंचन कर उसे सप्राण कर देते हैं। इस बालक को पालने पर सुलाकर आश्वास्त होते हैं।

सीता अपने शिशु लव के साथ जब स्नान कर लौटती है तो वहां कुश को पालने में देखती है। आश्चर्यचकित हो उठती है कि यह दूसरा बालक कौन है। तब वाल्मीकि उसे सारी कथा सुनाते हैं और उपरांत सीता कुश को भी अपना पुत्र मान लेती है। इस तरह प्रहेलिका के द्वारा कुश के जन्म का वृतांत सत्यापित होता है-

निरसंखी को संसो भयो
बिना बाप के पूत
उहू पूत कब?
माता नी रहिस तब।

छत्तीसगढ़ी की प्रहेलिकाओं में लंका नरेश रावण और उनकी रानी मंदोदरी का भी उल्लेख हुआ है-

खटिया गाँधे तान बितान,
तू सुतईया बाईस कान॥

रावण असूरों का राजा था, लंका द्वीप उसकी राजधानी थी। लोक श्रुति और रामचरित मानस में रावण को सीता जी का हर्ता व्यक्ति बतलाया गया है। पहेलियों में रावण के दस सिरों और बीस कानों का साक्ष्य मिलता है। इनमें राम रावण युद्ध के भी संकेत मिलते हैं-

जनमति टुरा के लागे है टोपी
राम मारिन रावण ला उही में
किरिस्न मोहिन गोपी ल उही मे
भात खाएन आज हमन उही में॥

उस पौराणिक युद्ध में रावण, राम के हाथों मारा जाता है और इस तरह रावणत्व पर रामत्व की तथा असत्य पर सत्य की विजय होती है।

छत्तीसगढ़ की एक प्रहेलिका में पवन देवता अंजनी और हनुमान का उल्लेख मिलता है। उसमें हनुमान को पवन एवं अंजनी का पुत्र बतलाया गया है। किंवदन्ति है कि अंजनी और पवन के प्रत्यक्ष संसर्ग से हनुमान का जन्म हुआ था। पुराणों में पवन, अंजनी और हनुमान को अविवाहित माना गया है। पवनपुत्र हनुमान ही महावीर हैं। गांवों में हनुमान के मंदिर पर्याप्त मात्रा में निर्मित हैं। बल प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति तो हनुमान के परम भक्त होते हैं। इनकी पूजा प्रत्येक परिवार में होती है। हनुमान को राम का भक्त बतलाया जाता है। इसलिए लोगों की आस्था हनुमान पर विशेष रुप से हैं-

बाप कुँआरा, बेटा कुँआरा
अऊ कुँआरी महतारी\
कोरा म लइका होवय
बताओ न वेदाचारी॥\

छत्तीसगढ़ के जन जीवन में रामचरित मानस का महत्वपूर्ण स्थान है, यहाँ की जनता उसे धर्म ग्रंथ के रुप में मानती है। यहाँ लोग एक मंच पर बैठकर रामायण का गान करते हैं। रामायण पाठ और गायन को भक्ति का कार्य माना जाता है। लोक मान्यता है कि जहाँ रामायण होती है वहाँ पे दुख और दारिद्र दूर हो जाते हैं और नित्य श्रवण करने से लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

छत्तीसगढ़ी की एक प्रहेलिका में रामचरित मानस का उल्लेख एक पेड़ के रुप में हुआ है और उसकी शाखाओं में लगने वाले फ़लों का स्वाद को मानस के रसास्वादन से होने वाली आत्म शांति का पर्याय बताया गया है-

एक पिंहड़न मोल, सबमें अलग-अलग डारा।
सबमा फ़र लगिस त सबमा अलग-अलग सुवाद॥

नहडोरी

सीता जो मांगे अजोधिया के राज\
सरजू नहाय के बड़ आस
यहो राम सरजू…
सरजू नदी तीर अवध नगरिया
जहाँ बसे राम लखन दोनों भइया
यहो राम जहाँ बसे …
दसरथ जइसे ससूर मिलही
रानी कौसिल्या जस सास
यो राम रानी कौसिल्या……
सुमंत जइसे मंत्री मिलही\
सेऊक मिले हनुमान
यहो राम सेऊक…
लछमन जइसे देवरा मिलही
पति मिले सिरी भगवान
यहो राम पति मिले……
सीता जो माँगे अजोधिया के राज
सरजू नहाय के बड़ आस

सीता जी मन ही मन कामना करती है कि वह अयोध्या की बहू बने, उनकी सरयू नदी में स्नान करने की बड़ी इच्छा है। सरयू नदी के किनारे अयोध्या नगरी स्थित है। जहाँ पर श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण रहते हैं। अयोध्या में राजा दशरथ जैसे ससूर मिलेंगे और रानी कौसिल्या सास बनेगी। सुमंत जैसे मंत्री और भक्त हनुमान जैसे सेवक मिलेंगे। लक्ष्मण जैसे देवर मिलेंगे और स्वयं भगवान रामचंद्र जी पति के रुप में मिलेंगे-

गाँव के तीरे-तीरे
नानमुन डबरी, नानमुन डबरी
सीता करई असनांदे, रे भाई
सीता करई असनांदे
जय हो सीता…
डबरी अंटईगे
सीता झपईगे
सीता झपईगे\
के कइसे करवं
असनांद रे भाई
कइसे करवं असनान
जय हो कइसे करवं …

गाँव के समीप छोटा तालाब (पोखर) है, उस पोखर में सीता जी स्नान करती हैं। पोखर सूख गया, सीता जी उसमें कूद गई अब उसमें कैसे स्नान करे?

कोने कोड़ावै ताले सगुरिया
ताले सगुरिया……।
कोने बंधाए ओखर पारे सजन मोर
कोने बंधाए पारे……।
रामें कोड़ाइथे ताले सगुरिया
ताले सगुरिया……।
लखन बंधावै ओखर पारे सजन मोर
लखन बंधावे ओखर पारे…
कोने लगइथे लख अमरइया
लख अमरइया……
कोने हवय रखवारे सजन मोरे
कोने हवय रखवारे………
रामे लगइथे लख अमरइया
लख अमरइया………
लखन हवय रखवारे सजन मोरे
लखन हवय रखवारे…

किसने तालाब खोदवाया और किसने उस तालाब के तट बंधवाये? श्री राम जी ने तालाब खोदवाये श्री लखनलाल जी ने तालाब के तट बंधवाये। उस तालाब के तट पर किसने आम के लाख वृक्ष लगवाये और कौन उनकी रखवाली कर रहे हैं? श्री राम जी ने आम के लाख वृक्ष लगवाये और उसकी रखवाली श्री लखनलाल जी कर रहे हैं।

दे तो ओ दाई खूराधरी लोटा
के गंगा नहाय ल जाबो दाई ओ
गंगा नहाय ल जाबो
जय हो गंगा नहाय ल जाबो
गंगा जमना गये तिरबेनी
अऊ सरजू म करेंव असनांदे दाई ओ
सरजू करेंव असनांदे
जय हो सरजू में……
घुरुवा ऊपर के
करुहा तुमा करुहा तुमा
सकल तीरथ आए दाई ओ
सकल तीरथ ………
गंग जमना……
गिये तिरबेनी……
गिये तिरबेनी
जभो करुहापन न जाय दाई ओ
करुहापन नइ जाय
जय हो जभो……

माँ मुझे खुरावाला खुराही लोटा दो, मैं गंगा नहाने के लिए जाऊंगी, गंगा जाऊंगी और जमना त्रिवेणी संगम भी जाऊंगी। सरयू नदी में स्नान करुंगी। घूरे की कड़वी लौकी सारे तीर्थों को घूम आई, गंगा, यमुना त्रिवेणी गई लेकिन उसका कड़वापन नहीं गया।

इसके अलावा भी यहाँ के लोक साहित्य में
आवत घानी सीताराम, जावत घानी सीताराम।
आवत जावत बोल रे भैया, मीठा बानी सीताराम॥
या
तोर भजन बिना राम, मोर बीत गे जिनगानी।
जाय के बेरा हो गे राम, कइसे कर डरेंव नादानी॥

जैसी सैकड़ों रचनाएं हैं, जो यहाँ के लोक जीवन में राम को बारम्बार प्रणाम करती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। कुछ छत्तीसगढ़ी विद्वानों ने रामायण के अलग-अलग प्रसंगों को छत्तीसगढ़ी में लिखा है। मेरी जानकारी में एक नाम है बागबाहरा के खोपली के स्व: श्री मेहतरराम साहू जी का, जिन्होंने कैकई प्रसंग को छत्तीसगढ़ी में लिखा है। जिसके अंतर्गत “रत्ना बपरी” शीर्षक से वो लिखते हैं…

रामायन रच तैं सब पाये
तोर रत्ना लहूट के नइ आय
हे स्वामी! रटत रटत मर गे
तैं जान के रत्ना हर तर गे।

पंडित शुकलाल प्रसाद पाण्डेय ने छत्तीसगढ़ को गौरवशाली बताया है। माता कौसिल्या के कारण उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखा कि ……

राम के महतारी कौसिल्या इंहे के राजा के बिटिया
हमर भाग कइसन बढिया
इंहे हमर भगवान रामे के कभु रहिस ममिओर
कुछ विद्वानों ने तो रामचरित मानस को छत्तीसगढ़ी में लिखने का प्रयास भी किया।

आलेख –

श्री धनराज साहू
डॉली फ़ैंसी मेन रोड़, बागबाहरा छत्तीसगढ़

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