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दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा

पंडित राम प्रसाद विस्मिल का जन्म दिवस विशेष आलेख

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों की भूमिका अग्रणी रही है। हजारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों को होम कर दिया। इनमें कई ऐसे क्रांतिकारी रहे हैं जो क्रांति का पर्याय बन चुके हैं। इनमें पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनकी लिखी हुई कविताएं आज भी गाहे बगाहे जनमानस की जुबान पर आ जाती है।

पंडित राम प्रसाद विस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को उन्होंने यूपी के शाहजहांपुर में जन्म हुआ था पूरा देश उन्हें बड़ी शिद्दत से याद करता है वहीं गोरखपुर के लिए बिस्मिल एक अलग पहचान है अपने जीवन के आखिरी चार महीने और दस दिन उन्होंने यहां की जिला जेल में बिताए थे यह वक्त उनके आध्यात्मिक सफर का भी अंतिम पड़ाव था फांसी के तीन दिन पहले ही उन्होंने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय पूरा किया था।

19 दिसंबर 1927 की सुबह 6:30 बजे गोरखपुर जिला जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की और मंत्र पढ़ते हुए फंदे पर झूल गए। 19 दिसंबर 1927, रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी के तख्ते के निकट ले जाया गया…बिस्मिल ने फांसी के फंदे को देखकर कहा-
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे..

और फिर उन्हें वो शानदार शहादत मिली जिसकी चाहत भारत के सच्चे सपूतों को हमेशा रहती रही है. जब बनारसी दास चतुर्वेदी के द्वारा लिखित किताब ‘आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल’ में यह बातें पढ़ते हैं तो मूछों पर ताव देता एक नौजवान का चेहरा नज़र आने लगता है जो ब्रितानियां हुकूमत की आंखों में आंखें डाल कर कह रहा है..
‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है’

उनके जानने वाले बताते हैं कि अंतिम दिनों में गोरखपुर जेल उनकी साधना का केंद्र बन गई थी 30 साल के जीवनकाल में उनकी कुल 11 पुस्तकें प्रकाशित हुईं थी जिनमें ज्यादातर अंग्रेजों ने नष्ट करा दी गोरखपुर जेल में रहकर उन्होंने बहुत सारी रचनाएं भी लिखी लेकिन उसे भी जेल प्रशासकों ने जलवा दिया बिस्मिल अंग्रेजों की इस करतूत से वाकिफ थे तभी तो उन्होंने फांसी के पहले उनकी आत्मकथा किसी मिलने आए करीबी के हाथ बाहर भिजवा दी थी।

बिस्मिल को छह अप्रैल 1927 को काकोरी कांड का अभियुक्त मानते हुए सजा सुनाई गई वे पहले लखनऊ जेल में रखे गए इसके बाद उन्हें अंग्रेजों ने 10 अगस्त को 1927 को गोरखपुर जेल भेज दिया यहां वे कोठरी संख्या सात में रहते थे इस कोठरी को अब बिस्मिल कक्ष के नाम से जाना जाता है।

बिस्मिल बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे। नियमित पूजा-पाठ उनके जीवन का हिस्सा था उनका जन्म एकादशी के दिन हुआ था और एकादशी के ही दिन वे बलिदान हुए यह महज संयोग नहीं था बल्कि उनकी धार्मिक प्रवृत्ति की बड़ी वजह भी थी।

चौरीचौरा कांड के बाद अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया इसके कारण देश में फैली निराशा को देखकर उनका कांग्रेस के आजादी के अहिंसक प्रयत्नों से मोहभंग हो गया फिर तो नवयुवकों की क्रांतिकारी पार्टी का अपना सपना साकार करने के क्रम में बिस्मिल ने चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ गोरों के सशस्त्र प्रतिरोध का नया दौर आरंभ किया।

लेकिन सवाल था कि इस प्रतिरोध के लिए शस्त्र खरीदने को धन कहां से आये? इसी का जवाब देते हुए उन्होंने नौ अगस्त 1925 को अपने साथियों के साथ एक ऑपरेशन में काकोरी में ट्रेन से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूटा तो थोड़े ही दिनों बाद 26 सितंबर 1925 को पकड़ लिए गए और लखनऊ की सेंट्रल जेल की 11 नंबर की बैरक में रखे गए मुकदमे के नाटक के बाद अशफाक उल्लाह खान–राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रौशन सिंह के साथ उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई।

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की माता मूलरानी ऐसी वीरमाता थीं जिनसे वे हमेशा प्रेरणा लेते थे शहादत से पहले बिस्मिल से मिलने गोरखपुर वे जेल पहुंचीं तो पंडित बिस्मिल की डबडबाई आंखें देखकर भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया कलेजे पर पत्थर रख लिया और उलाहना देती हुई बोली-अरे मैं तो समझती थी कि मेरा बेटा बहुत बहादुर है और उसके नाम से अंग्रेज सरकार भी थरथराती है मुझे पता नहीं था कि वह मौत से इतना डरता है।

उनसे पूछने लगी–तुझे ऐसे रोकर ही फांसी पर चढ़ना था तो तूने क्रांति की राह चुनी ही क्यों? तब तो तुझे तो इस रास्ते पर कदम ही नहीं रखना चाहिए था। इतिहासकार बताते हैं कि इसके बाद बिस्मिल ने बरबस अपनी आंखें पोंछ डालीं और कहा था कि उनके आंसू मौत के डर से नहीं उन जैसी बहादुर मां से बिछड़ने के शोक में बरबस निकल आए थे।

बिस्मिल बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे उन्होंने कुल 11 पुस्तकें लिखी थी वे इन पुस्तकों को स्टॉल लगाकर खुद भी बेचते थे उनकी पुस्तकों में स्वाधीनता का अंश होता था यही कारण है कि उनकी पुस्तकों को लोग ज्यादा पसंद करते थे बहुत कम ही लोग जानते होंगे कि उन्होंने क्रांतिकारी बनने के बाद पहला तमंचा अपनी किताब की बिक्री से मिली राशि से ही खरीदा था।

बिस्मिल के जीवन को नई पीढ़ी तक ले जाने की कोशिशों में जुटे गुरुकृपा संस्थान के बृजेश त्रिपाठी कहते है बिस्मिल एक रचनाकार–कवि और साहित्यकार भी थे। वे अपने जीवन में गुरु भाई परमानंद और दादी मां के स्वाभिमान से बहुत प्रेरित थे इसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी किया है। बृजेश कहते है उनकी भावनाओं में देशभक्ति कूट-कूटकर भरी थी वे बहुत पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन साहित्य के मर्मज्ञ थे।

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल द्वारा लिखी पांच कविताएं

तराना-ए-बिस्मिल

बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से,
लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।

लबे-दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी,
तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।

खुली है मुझको लेने के लिए आग़ोशे आज़ादी,
ख़ुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।

कभी ओ बेख़बर तहरीके़-आज़ादी भी रुकती है?
बढ़ा करती है उसकी तेज़ी-ए-रफ़्तार फांसी से।

यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी

ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो

ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कान्तिमय हो

अज्ञान की निशा में, दुख से भरी दिशा में
संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो

तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो
तेरी प्रसन्नता ही आनन्द का विषय हो

वह भक्ति दे कि ‘बिस्मिल’ सुख में तुझे न भूले
वह शक्ति दे कि दुःख में कायर न यह हृदय हो

गुलामी मिटा दो

दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा,
एक बार ज़माने को आज़ाद बना दूंगा।

बेचारे ग़रीबों से नफ़रत है जिन्हें, एक दिन,
मैं उनकी अमरी को मिट्टी में मिला दूंगा।

यह फ़ज़ले-इलाही से आया है ज़माना वह,
दुनिया की दग़ाबाज़ी दुनिया से उठा दूंगा।

ऐ प्यारे ग़रीबो! घबराओ नहीं दिल मंे,
हक़ तुमको तुम्हारे, मैं दो दिन में दिला दूंगा।

बंदे हैं ख़ुदा के सब, हम सब ही बराबर हैं,
ज़र और मुफ़लिसी का झगड़ा ही मिटा दूंगा।

जो लोग ग़रीबों पर करते हैं सितम नाहक़,
गर दम है मेरा क़ायम, गिन-गिन के सज़ा दूंगा।

हिम्मत को ज़रा बांधो, डरते हो ग़रीबों क्यों?
शैतानी क़िले में अब मैं आग लगा दूंगा।

ऐ ‘सरयू’ यक़ीं रखना, है मेरा सुख़न सच्चा,
कहता हूं, जुबां से जो, अब करके दिखा दूंगा।

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं,

खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं,

जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो,

देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?

चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है

चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है,
देखना है ये तमाशा कौन सी मंजिल में है ?

कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो
ज़िन्दगी का राज़े-मुज्मिर खंजरे-क़ातिल में है

साहिले-मक़सूद पर ले चल खुदारा नाखुदा
आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है

दूर हो अब हिन्द से तारीकि-ए-बुग्जो-हसद
अब यही हसरत यही अरमाँ हमारे दिल में है

बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फना
‘बिस्मिल’ अब इतनी हविश बाकी हमारे दिल में है

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