सृष्टि के प्रारंभ में विंध्याचल के दक्षिण का भू-भाग सबसे पहले अस्तित्व में आया। मानव सभ्यता के उदगम का यही स्थान बना। वैज्ञानिक मतों के अनुसार सिहावा पर्वत (शुक्तिमत) जो ‘बस्तर क्रेटॉन’ के अंतर्गत है, यह आद्य महाकल्प में निर्मित चट्टानों से बना है। जिस की औसत आयु 300 करोड़ वर्ष से अधिक है। महानदी (चित्रोत्पला), पैरी (प्रेतोद्धारिणी) और सोंढूर (सुन्दराभूति) नदियों का संगम स्थल राजिम है। यह अनादि काल का ॐ संगम है। छत्तीसगढ़ में सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा मानव सभ्यता के विकास के आदि चरणों के साथ ही आरंभ हुई।
पांच सभ्यताओं के साक्ष्य
कमलतीर्थ के वृहत्ताकार क्षेत्रफल को समेटे भगवान राजीव लोचन और शिव को समर्पित नगरी राजिम अपने आगोश में अनेक पौराणिक आख्यानों को समेटे हुए हैं। इस राजिम में ईसापूर्व दूसरी से ग्यारहवीं बारहवीं सदी तक के पुरावशेष हमारे सामने आ चुके हैं और खोज कार्य चल ही रहा है।
मौर्य काल के पश्चात छत्तीसगढ़ में अंधकार युग था! इतिहासकारों का यह कथन गलत साबित हुआ। राजिम के पांच काल के पुरावशेष अब तक मिल चुके हैं। कालक्रम के अनुसार पहला मौर्यकाल के पूर्व सभ्यता, दूसरा मौर्य कालीन सभ्यता, तीसरा सातवाहन कालीन सभ्यता, चौथा शरभपुरिया पांडु वंशी कालीन सभ्यता, पांचवीं कलचुरी कालीन सभ्यता के पुरावशेष मिल चुके हैं। पुराविद डॉ. अरुण कुमार शर्मा ने इसकी पुष्टि की है उन्होंने बताया कि प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर मौर्यकालीन पूर्व सभ्यता के अवशेषों से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय यहां ज्यादा विकसित लोग निवास करते थे।
संगम पर कुलेश्वर महादेव-
सिहावा पर्वत से निकली चित्रोत्पला गंगा कहलाने वाली महानदी, सोढ़ूर और पैरी नदी के संगम में भगवान कुलेश्वर का अभिषेक करती नजर आती है। त्रिवेणी संगम में बने कुलेश्वर मंदिर को केंद्र मानकर चंपेश्वर महादेव, बम्हणेश्वर महादेव, फिंगेश्वर महादेव, कोपेश्वर महादेव और पाटेश्वर महादेव तक के भूमि खंड को विस्तार देकर धार्मिक तीर्थ बनाया गया है। राजिम के पद्मक्षेत्र की प्रदक्षिणा को पंचकोशी यात्रा का स्वरूप दिया गया है। ‘चरैवेति चरैवेति’ के वैदिक उदघोष को आत्मसात करते हुए श्रद्धालु पंचकोशी की प्रदक्षिणा कर संगम में स्नान कर अपने आप को धन्य मानते हैं। इस बारे में कहा भी गया है,
” उत्तर कोसले देशे भारत संज्ञा के विंध्यस्व दक्षिण भागे आर्यावितौ तमक्षिते कमलाकारम मले पंचक्रोशपुरं महत महानदीमया दृष्टवा समीपे तस्य शोभना।”
प्राचीन नगरी राजिम विभिन्न धार्मिक, ऐतिहासिक, संस्कृति और कला से परिपूर्ण अनूठी है। राजिम के हर एक मंदिर और मूर्तियों के साथ जुड़ी है उन महान राजाओं की कथा, जिन्होंने राजिम की धर्म, कला, संस्कृति और परंपरा को आगे बढ़ाया । अभी तक हम नदी संगम पर बना कुलेश्वर मंदिर और राजीव लोचन मंदिर को ही सब कुछ मानते रहे थे पर हाल ही में उत्खनन के साथ प्राचीन राजिम का इतिहास उभर कर सामने आ रहा है। ऐतिहासिक महत्व के आधार पर राजिम के मंदिरों को चार श्रेणियों में बांट कर देखा जाता है। पूर्वी समूह में राजीव लोचन मंदिर, पश्चिम समूह में कुलेश्वर महादेव दक्षिण में वामन मंदिर, नरसिंह मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, दानेश्वर मंदिर और राजिम तेलिन मंदिर हैं। उत्तरी समूह में सोमेश्वर मंदिर आता है।
राजीवलोचन मंदिर-
भारत के राम मंदिरों से अलग हटकर राजीव लोचन मंदिर अपनी विशेषता लिए हुए हैं। मंदिर निर्माण काल के बारे में पुराविदों की एक राय नहीं है, इस मंदिर का निर्माण पांचवी सदी के अंतिम चरण का माना गया है, जब रायपुर क्षेत्र में आमरार्य कुल के राजा नरेंद्र का शासन था। जिसकी पुष्टि लिखित प्रमाणों के आधार पर होती है। इसलिए या तो राजा नरेन्द्र अथवा उनके उत्तराधिकारियों ने राजीव लोचन मंदिर का निर्माण कार्य किया था। एम. जी. दीक्षित का मत है कि मंदिर का निर्माण कोसल के शरभपुरीय शासकों के राजस्व काल में पांचवीं ईसवी सन के आसपास हुआ है।
राजीव लोचन मंदिर आज जिस स्वरुप में है वह पहले ऐसा नहीं था। यह मंदिर की विन्यास कला को देखने से सहज ही अंदाज ही होता है। परिवर्ती अनेक राजाओं ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और मंदिर की संरचना में परिवर्तन भी कराया। प्राप्त शिलालेखों से यह पता चलता है। श्रीपुर के पांडुवंशीय राजा के समय पहला जीर्णोद्धार हुआ। आठवीं- नौवीं सदी के दौरान नलवंश के राजा विकासतुंग ने भी इसे संवारा, जिनका शिलालेख मंदिर में आज भी है। 12वीं शताब्दी के मध्य कलचुरी राजा पृथ्वीदेव जी के सामंत जगपाल देव ने भी मंदिर के मूल स्वरूप में कुछ परिवर्तन कराया। 3 जनवरी 1145 ईस्वी सन् के एक शिलालेख से यह पता चलता है।
राजीवलोचन मंदिर की प्रतिमाओं को पुराविदों ने नलवंश काल की माना है। भगवान राजीवलोचन की प्रतिमा से अलग हटकर दूसरी मूर्तियों में सोमवंशी स्थापत्य कला की झलक मिलती है, परंतु मूर्तियों की भाव-भंगिमा और चेहरे की सुघड़ता में जो अनगढ़ रूप दिखता है वह उसे सोमवंशी कला से अलग भी करता है। राजीव लोचन मंदिर पंचायतन शैली में बना मंदिर है, जिसके उत्तर व दक्षिण दिशा में प्रवेश द्वार बने हुए हैं। मंदिर विस्तृत आकार लिए हुए स्थित है जिसके चारों ओर छोटे-छोटे मंदिर निर्मित हैं। गर्भगृह में भगवान विष्णु की चतुर्भुज प्रतिमा सिंहासन आरूढ़ है। प्रतिमा के हाथों में शंख, गदा, चक्र और पद्म ये चार आयुध हैं। लोक मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु यहां ‘ राजीव लोचन’ के नाम से ख्यात है जिनके साथ कई किवदंतियां जुड़ती चली आई हैं। मंदिर के स्तंभों में गंगा, यमुना नदी देवी के साथ वाराह नरसिंह, सूर्य और देवी दुर्गा की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। मंदिर के पुजारी राजपूत वंश के हैं जिनके पास पांडुवंश के महाशिव देव का ताम्रपत्र धरोहर में है। जिसमें उन्होंने दक्षिण कोसल की तत्कालिक राजधानी श्रीपुर (सिरपुर) से जारी किया था। ताम्रपत्र लिख कर पिपरीपड़क (पिपरौद) गांव मंदिर में अर्पित किया।
कुलेश्वर महादेव शिवालय
त्रिवेणी संगम की बीच धारा में ऊंची जगती पर पंचमुखी शिवलिंग है जो कुलेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हें भी उत्पलेश्वर महादेव भी कहा गया है। जनश्रुति के अनुसार राम वनवास गमन पर यह स्थान पड़ा था। यहीं पर सीता माता ने बालू से शिवलिंग बना पूजा अर्चना की थी जिन्होंने पांच उंगलियों के मध्य से जलधारा अर्पित की और पंचमुखी शिवलिंग हो गये। इस कारण इन्हें उत्पलेश्वर महादेव कहा गया। सीता माता ने अपने कुल तर्पण के लिए यहां पूजा की थी इसलिए इन्हें कुलेश्वर महादेव कहा गया है। तदनुसार छत्तीसगढ़ के लोग अपने पूर्वजों के तर्पण के लिए राजिम आते हैं।
कुलेश्वर मंदिर अष्टभुजाकार है। ब्रह्मसूत्रीय व्यवस्था अनुसार मंदिर अधिष्ठान, जंघा, शिखर और मस्तक जो क्रमशः उंचाई पर संकरा होते चला गया है। मंदिर नागर शैली के वास्तुशिल्प का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है जहां विष्णु के दशावतार का अंकन विशेष महत्वपूर्ण है। यहीं ब्रह्मा, कार्तिकेय आदि देव प्रतिमा उत्कीर्ण हैं इसके अलावा कई मिथुन प्रतिमाएं भी यहां अंकित की गई हैं। बाएं बाजू के अंतिम छोर पर नर- नारी की युगल प्रतिमा अंकित है।
मंदिर का निर्माण कलचुरियों की रायपुर शाखा के राजाओं ने किया है। मंदिर के महामंडप की पार्श्व दीवाल पर लगा शिलालेख जिसे पूर्ण रूप से पढ़ा नहीं जा सका है इस पर केवल पांचवीं पंक्ति में ‘श्री संगम’ शब्द पढ़ा जा सका है। शिलालेख की लिपि से अनुमान लगाया गया है कि इसका निर्माण आठवीं नवमीं सदी के दौरान हुआ होगा।
जनश्रुतियों के अनुसार मंदिर के गर्भगृह में एक सुरंग थी, जो लोमस ऋषि के आश्रम तक जाती है। मंदिर के दक्षिण -पश्चिम दिशा में लगभग 150 गज की दूरी पर लोमस ऋषि का आश्रम है जिसे बेल पेड़ की अधिकता के कारण ‘बेलाही’ के नाम से जाना जाता है। लोमस ऋषि के शिष्य श्रृंगी ऋषि हुए। श्रृंगी ऋषि को गुरु ने महानदी के उदगम स्थल नगरी- सिहावा में तपस्या करने का आदेश दिया था, जहां श्रृंगी ऋषि का आश्रम है।
लक्ष्मी नारायण मंदिर-
राजीव लोचन मंदिर के समीपस्थ लक्ष्मी नारायण का मंदिर है जहां लक्ष्मी विष्णु की प्रतिमा सिंहासन आरूढ़ है और आगे नतमस्तक गरूड़ की मूर्ति है। मंदिर की दीवारों पर प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। मंदिर का निर्माण करने वाले भांडगे दंपत्ति की मूर्ति है। मंदिर में हनुमान की मूर्ति के बायीं ओर एक पुराना कुंड है। उत्तर दिशा में राधा कृष्ण मंदिर है जिसमें राजीव लोचन की बाल प्रतिमा स्थापित है। गर्भ गृह में राधा-कृष्ण की बाल्यावस्था की मूर्तियां हैं। राजीव लोचन मंदिर के पूर्व में महामाया का मंदिर है जहां चैत्र व क्वांर मास में विशेष पूजा-अर्चना होती है।
दत्तात्रेय मंदिर-
गरियाबंद मार्ग पर दत्तात्रेय मंदिर है। मंदिर में दत्तात्रेय ब्रह्मा के साथ शिव और विष्णु की मूर्तियां हैं। दत्तात्रेय के वाहन श्वान की भी मूर्ति बनी है। यहां एक प्राचीन बावड़ी है। इस जगह पर हर बरस मड़ई का आयोजन होता है।
राजिम के मंदिर-
जगन्नाथ मंदिर का निर्माण चौदहवीं शताब्दी का माना गया है जो उत्तरी कोने पर स्थित है। गर्भगृह में जगन्नाथ जी का विग्रह है। इसी के समीप नरसिंह मंदिर है। राजीव लोचन मंदिर के सामने दानेश्वर मंदिर व राजेश्वर मंदिर बने हैं। राजिम तेलिन इनका मंदिर भी यही है जिसके साथ अनेक किंवदंतियां जुड़ी हैं। इसी के साथ काल भैरव मंदिर, भगवान विश्वकर्मा मंदिर गरीब नाथ मंदिर, माता शीतला मंदिर बनाए गए हैं। सोमेश्वर नाथ का मंदिर पूर्वी भाग में बना है यह प्राचीन मंदिर है।
राजिम प्राचीन नगरी होने के साथ पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहां त्रिवेणी संगम में स्नान कर पुण्य का भागी बनना पौराणिक का कर्म है। माघ पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा में त्रिवेणी में लाखों लोग स्नान कर भगवान का दर्शन कर मोक्ष पाने की कामना से यहां एकत्र होते हैं। भक्तों का तीर्थ बना राजिम मेला हर बरस लगता है। माघ पूर्णिमा और शिवरात्रि पर्व में राजीव लोचन, कुलेश्वर महादेव के दर्शन कर श्रद्धालु धन्य हो उठते हैं। पर्वों पर लगने वाला राजिम का मेला अपने आप में धार्मिक, ऐतिहासिक संस्कृति को तत्कालीन समाज को संजोए नजर आता है।
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