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विजयी भारत के प्रेरणास्रोत : छत्रपति शिवाजी महाराज

पूरे उत्तर भारत में मुगलों का शासन था। औरंगजेब जैसा राजा दिल्ली के तख्त पर था। दक्षिण में निजामशाही थी। हिन्दू धर्म खतरे में था। छोटे-बड़े हिन्दू राजा, सेनापति जो अपना पराक्रम, शौर्य मुगलों के लिए खर्च करते थे। ऐसे समय पर 15 वर्षीय बालक शिवाजी सामान्य परिवारों के अपने मित्रों के साथ हिंदवी स्वराज्य की स्थापना का शपथ लेते हैं। न उनके पास धन है, न उनके पास प्रशिक्षित सैनिक, न हाथी न घोड़े। फिर भी उनके पास क्या था जिसके भरोसे उन्होंने हिंदवी स्वराज्य स्थापित करने का प्रण किया। बालक शिवाजी के पास था उनका साहस, माँ जिजाबाई के संस्कार। उसी विचारों से शिवाजी महाराज ने सामान्य जनता को चेतना दी। लोग इस युवा राजा को देवता की तरह मानते थे। आज भी मानते हैं और सदा मानते रहेंगे, ऐसा उनका कार्य था।

दासता की जंजीरों को तोड़नेवाले, मुगलों और दख्खन के राजाओं को चुनौती देनेवाले सोलहवीं शती के महान राजा थे – छत्रपति शिवाजी महाराज। जिस तरह वनवास काल में भगवान श्री राम ने सामान्य से लगने वाले वानर सेना को साथ लेकर लंका के रावण पर विजय प्राप्त की, उसी तरह गरीब लोगों के सहयोग से शिवाजी महाराज ने मुगलों की लंका ध्वस्त कर दी।

6 अप्रैल, 1627 में पुणे के पास शिवनेरी दुर्ग पर शिवाजी का जन्म हुआ। जन्म के समय हिन्दुस्तान पर सब तरफ मुगलों का शासन था। दिल्ली पर शाहजहाँ, अहमदनगर पर निजामशाही, बीजापुर में आदिलशाह और गोवलकोंढा में कुतूबशाही का राज था। शिवाजी महाराज के पिता शहाजी राजे बीजापुर दरबार में सेनापति थे। पिताजी के कारण शिवाजी को पुणे की जागीर मिली। लेकिन उन्हें गुलामी मंजूर नहीं थी। उन्होंने पुणे के आस-पास के गाँवों के सामान्य नागरिक को छापामार युद्ध सिखाया और उनके सामने हिंदवी स्वराज्य का ध्येय रखा, और फिर उन्हीं की सहायता से उस ध्येय को पूरा किया।

युद्ध नीति

छापामार युद्ध में बहुत कम सैनिकों की जान जाती थी। इसलिए उन्होंने हजारों सैनिक आमने-सामने लड़े ऐसा युद्ध कभी नहीं किया। वे छापामार युद्ध से दुश्मनों को डराते और उन्हें भागने के लिए मजबूर करते, और इस तरह लड़ाई जीतते थे। वे एक भी युद्ध हारे नहीं। सैनिकों को व्यर्थ मरते वे देख नहीं सकते थे। इसलिए समय देखकर चतुराई से वे शत्रुओं से वार्ता करने जाते और अपनी कुशल नीति से दुश्मनों पर हावी होते। उदाहरण तो बहुत हैं, लेकिन कुछ प्रसंगों का यहां उल्लेख करना आवश्यक है। जैसे- अफजल खान को महाराज ने बड़ी चतुराई से मारा।

अफजल खान ने शिवाजी महाराज की कुलदेवी तुळजा भवानी कुलदेवी का मंदिर ध्वस्त करवाया, पंढरपुर में बिठोबा का मंदिर तोड़ा गया। लोगों ने कहा, “क्या कर रहे हो, कैसे राजा हो?” पर छत्रपति शिवाजी महाराज की योजना में जल्दबाजी को स्थान नहीं था। पूर्ण नियोजन के साथ अफजल खान के सम्मुख शरण आने का नाटक रचा, और उन्हें प्रतापगढ़ के समीप बुलाया, जहां उन्होंने उस दुष्ट अफजल का वध किया। छत्रपति ने शाहीस्ते खान की उँगलियाँ काटीं और उसे भागने के लिए मजबूर किया। आगरा में औरंगजेब के कारागार से कड़ी सुरक्षा के बावजूद बड़ी चतुराई से और बिना युद्ध किये शिवाजी महाराज बाहर निकल आए। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। यह संभव हुआ उनके उत्तम नियोजन से!

पुणे के पास रानेगांव का जागीरदार पाटिल अत्याचारी था। उसने एक महिला के साथ दुर्व्यवहार किया तो पकड़ मंगवाया। उसके हाथ-पैर दोनों काटने के आदेश दिए। इस कठोर दंड के बाद मराठा राज में वह गलती फिर से किसी ने नहीं की। लोगों को प्रेरित करना, उन्हें निर्भय बनाना और उन्हें स्वराज्य के कार्य में लगाना, आवश्यकता पड़ने पर अपने सैनिकों की रक्षा के लिए अपने प्राण की बाजी लगाना, योग्य समय, योग्य स्थान पर योग्य व्यक्ति की नियुक्ति करना, यह शिवाजी महाराज की विशेषता थी।

बैदनी नायक औरंगजेब के यहां की खबरें निकालकर लाते रहे। सब तुकाराम के भजन गाते। ईश्वर को सिर पर (मस्तक पर) धारण करो, फिर पराक्रम करो। शिवाजी महाराज के मात्र 300 सैनिक 5000 शत्रु दल पर टूट पड़े, और उस गोवळकोंडा लड़ाई में शिवाजी के मात्र 23 सैनिक शहीद हुए। छापामार युद्ध की यह विशेषता थी। 

शिवाजी महाराज के मावले

शुद्ध मन से किया गया प्रयत्न सफल होता है, यही कारण है कि शिवाजी को ऐसे अद्भुत पराक्रमी साथी मिले। शिवाजी महाराज की सेना में नवयुवकों के साथ ही 60 वर्ष के अनुभवी साथी भी थे। सामान्य परिवार के तानाजी मालुसरे, बाजी पसाळकर, बाजीप्रभू देशपांडे जैसे पराक्रमी योद्धा उल्लेखनीय हैं।   

बेटे रायबा की शादी का निमंत्रण देने आए थे तानाजी। पर सिंहगढ़ जीतना पहले जरूरी यह मानकर वे युद्धभूमि में जा पहुंचे, और विजय दिलाकर वीरगति को प्राप्त हुए! शिवाजी के मुंह से निकला – “गढ़ तो आया पर सिंह गया।” बाजीप्रभू देशपांडे ने कहा, “प्राण निकल जाए लड़ता रहूंगा।” शीश कटा पर देह लड़ी थी, कोंढाणा पर गाज गिरी थी। हजारों के साथ 20-22 रणबांकुरे लड़े। सिर विहीन धड़ लड़ता रहा। बालाजी निम्बालकर, कान्होजी आंग्रे – पराक्रम की मालिका।

चिपलुण में परशुराम मंदिर तोड़ा गया तो वहां जाकर उन्होंने छोटी लड़ाई लड़ी। वहां के शिलालेख में तारीख एवं प्रसंग अंकित है। यह सब करते हुए भी और अधिक करने की चुनौती उनके सामने थी। शिवाजी महाराज कुतुबशाह से मिलने बीजापुर गए वहां महाराज के वीर युवा मावले येशाजी कंक ने उसके पहलवान को परास्त किया।

हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना 

1674 ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी के दिन रायगढ़ के विशाल प्रांगण में राजे-रजवाड़ों की सहभागिता तथा जीजा माता तथा शम्भाजी की उपस्थिति में शिवराय का राज्याभिषेक हुआ। राज्याभिषेक के समय भी यह स्मरण रहा कि किस विचार को लेकर कार्य कर रहे हैं। उसे शिव राज्याभिषेक नहीं कहा, हिन्दवी स्वराज्य कहा। उत्तर में बादशाह, दक्षिण में 5 सुल्तान फिर भी स्वराज्य बनें, यह श्री की इच्छा, भगवान की इच्छा; कितना उदात्त विचार था महाराज का! समर्थ रामदास ने शिवराय को पत्र भेजा, “कैसा चलना, बोलना, निश्चय का महादेश, सबके लिए अवतार, श्रीमंत योगी, उपभोग शून्य स्वामी, म्लेच्छ संहारक।” शिवराय ने आज्ञापत्र जारी किया, – “कर प्रणाली, शासन के कर्तव्य, गौहत्या बंदी, कम जमीन वालों के लिए कम कर, अधिक जमीन वालों के लिए अधिक कर।”

उस समय प्रत्येक जागीरदार की अपनी सेना हुआ करती थी। मनसबदार भी हजार दस हजार सेना रखते थे। शिवराज ने व्यवस्था बदली। और आदेश दिया कि सेना सिंहासन की है, हिन्दवी स्वराज्य की है। समुद्र में विजय दुर्ग, सिंधु दुर्ग बने। कैसे बने होंगे, सोचकर हैरत होती है। सामान्य लोगों को साथ लेकर उन्हें तज्ञ बनाकर ये असंभव कार्य किये।

महाराज ने खेती में पानी पहुंचाने के लिए नदियों पर बांध बनवाए, नागरिकों की सुविधा के लिए मार्ग बनवाए, ऐसे असंख्य योजनाओं को उन्होंने कार्यान्वित किया था। राज चलाने के लिए धन लगता था, इसके लिए उन्होंने दुश्मनों के अड्डे पर छापे मारे। लेकिन किसी भी महिला की छेड़छाड़ नहीं होने दिया, जबकि उनके सैनिकों द्वारा पकड़ कर लाई गई शत्रु दल की सुन्दर स्त्री का उन्होंने सम्मान किया और आदरपूर्वक उन्हें वापस उनके स्थान पर भेजने की व्यवस्था की। महाराज के इस शुद्ध आचरण का स्मरण कर महिलाएं आज भी शिवाजी महाराज का वंदन करती हैं।

न्यायमूर्ति रानडे ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में ‘हिस्ट्री ऑफ ग्रेट मराठा’ नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने पुस्तक लिखने का कारण भी लिखा कि देश की भावी पीढ़ी में पराजय की हीन भावना की छाया भी नहीं रहना चाहिए। पुस्तक की अंतिम कड़ी है विजय ही विजय – शिव राज्याभिषेक।

सजग दृष्टि

हीरकणी नामक एक महिला महल में दूध बेचने आती थी। एक बार सूर्यास्त के बाद दरवाजे बंद हो जाने के कारण रात को घर नहीं जा पाई। घर पर बीमार बच्चा अकेला था। ममता की मारी किसी प्रकार दीवार फांदकर घर पहुंच गई। शिवाजी को मालुम हुआ तो उसे बुलाया। उसकी ममता का तो सम्मान किया किन्तु उससे वह मार्ग भी पूछा जहां से वह गई थी। जब वो जा सकती है तो शत्रु भी उस मार्ग से आ सकता है। वहां आज भी खिरकिणी बुर्ज है। इतनी सतर्क दृष्टि।

शिवाजी महाराज शत्रु का सम्मान भी करते थे। अफजल खान का वध करने के बाद वहीं पर उसकी मजार बनाई गई और वहाँ के व्यवस्था के लिए अपने खजाने से खर्चा किया। इसी कारण दुश्मन के सैनिक भी शिवाजी का सम्मान करते थे। महाराष्ट्र के बाबा साहेब पुरंदरेजी का शिवाजी महाराज पर एक महानाट्य ‘जाणता राजा’ में औरंगजेब कहता है, “दुश्मन हो तो शिवा जैसा” जो कहीं झुकता नहीं, रुकता नहीं और चाल-चलन एक राजहंस जैसा शुद्ध!  

शत्रु भी जिनकी प्रशंसा करे, ऐसा राजा होना दुर्लभ है। शिवाजी महाराज की प्रत्येक योजना अचूक होती थी। पीछे हटने से जीत मिलती है तो वे थोड़े समय के लिए अपने कदम पीछे भी लेते, और फिर शत्रु दल के संभलने से पहले उनपर आक्रमण कर देते। यह विशेष तरीका महाराज ने अपनाया था।

शिवाजी महाराज से लें प्रेरणा

छत्रपति शिवराय का प्रयास था – समाज के खोए आत्मविश्वास पुनः जागृत करना। शिव राज्याभिषेक के बाद इतिहास साक्षी है कि उससे प्रेरणा लेकर देश के अन्य भागों में भी सफल प्रयत्न हुए। उत्तर से कवि भूषण दक्षिण में आए और शिवबा के पराक्रम पर “शिवा बावनी” नामक काव्य रचा। राजस्थान में दुर्गादास राठौर ने कलह मिटाकर सब राजाओं को जोड़ा और राज्य कायम किया। छत्रसाल पिता की मृत्यु के बाद छत्रपति शिवराय से मिले और बाद में शिवाजी महाराज की प्रेरणा से ही बुंदेलखंड के राजा बनें। असम में चक्रधर सिंह, कूच बिहार में सत्य सिंह इन सबके प्रेरणास्रोत थे – शिवाजी महाराज। महाराज का प्रयत्न था सबको जोड़ना। निजी महत्वाकांक्षा उनमें लेशमात्र भी नहीं था। इसलिए मिर्जा राजा जयसिंह को पत्र लिखा – “चाहो तो आप राजा बन जाओ पर शत्रु की चाकरी मत करो।”

लोकमान्य तिलक ने भी सार्वजनिक रूप से गुलामी काल में “हिन्दू साम्राज्य दिवस” के नाम से यह उत्सव प्रारम्भ किया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने शासनकाल में कहीं भी कोई गलती नहीं की, इसी वजह से शिवाजी महाराज का अध्ययन करनेवाले दुनियाभर के विद्वान् उन्हें महान शासक मानते हैं और भारतीय जनमानस बड़ी श्रद्धा से उनका स्मरण करते हैं। आज परिवेश भिन्न है और चुनौतियां विविध रूपों में हमारे सामने खड़ी है। इसलिए शिवाजी महाराज के समान पराक्रम के लिए समाज के संगठन की आवश्यकता है। इसलिए पराक्रमी इतिहास की पुनरावृत्ति होनी चाहिए। एक भारत-विजयी भारत।


आलेख

प्रो. चंद्रकान्त रागीट
नागपुर (महाराष्ट्र)

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