मानसून की पहली फ़ुहार के साथ वर्षा ॠतु आगमन हो गया है। मई-जून की भीषण गर्मी में जिस तरह लोगों ने जल संकट का सामना किया उसे देखकर लगता है कि आने वाले भविष्य में जल संकट भयानक रुप लेने वाला है। वर्षा जल का संग्रहण आवश्यक हो गया है। वर्षा का जल व्यर्थ ही बह जाता है और मनुष्य के काम भी नहीं आता। इसलिए वर्षा जल संग्रहण के समुचित उपाय करना आवश्यक है।
वर्तमान में जल संकट का सामना ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरों तक मनुष्य को करना पड़ रहा है। नदियाँ सूख रही हैं, कूप एवं तालाब सूख जाते हैं, बांधों में जल का स्तर कम हो जाता है, घर घर में बोरवेल के कारण भूजल का स्तर भी रसातल तक पहुंच रहा है। जहाँ दस हाथ की खुदाई से जल निकल आता था वहाँ हजार फ़ुट में भी जल निकलने की संभावना नजर नहीं आती।
इसके साथ ही हर वर्ष ग्रीष्म काल में जल संकट से वन्य प्राणियों के जान गंवाने के समाचार निरंतर आते रहते हैं, परन्तु लोग इस ओर ध्यान नहीं दे रहे। नलकूपों द्वारा जल का असीमित दोहन हो रहा है। दिनचर्या में सम्मिलित ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो जल के बिना सम्पन्न हो सके। जहाँ भी जल संकट आता है वहां के लोग शासन प्रशासन को लानते भेजना प्रारंभ कर देते हैं परन्तु स्वयं की जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं।
पहाड़ों की ये स्थिति है कि वहाँ भी पेयजल नहीं है। मीलों दूर से जल की व्यवस्था करने पर मजबूर हैं। चीड़ ने पहाड़ों का सारा जल निचोड़ लिया है। लोग मैदानों की तरफ भागे आ रहे हैं, पर कब तक चलेगा यह सब। इसकी भी एक सीमा है। जल के संसाधन पहाड़ों पर भी बचाने होंगे।
आज से तीस बरस पहले मीठे पानी का एक कुंआ ही गाँव भर की प्यास बुझा देता था, निस्तारी के लिए तालाब का जल उपयोग में आता था। जब आज सब नल जल के भरोसे हो गए तो कुंए, बावड़ियों, तालाबों आदि की दुर्दशा देखी नहीं जाती। कभी पेयजल का स्रोत रहे इन साधनों में वर्तमान में लोग कूड़ा कचरा फ़ेंकते दिखाई देते हैं।
प्राकृतिक जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं या बंद हो गए हैं। तालाबों की भूमि अतिक्रमण के कारण सिमटती जा रही है और आबादी बढती जा रही है। लोग शतुरमुर्ग की तरह भूमि में गर्दन गड़ाए सभ्यता को समूल नष्ट करने वाले तूफ़ान की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
जब भी किसी कुंए या प्राकृतिक जल स्रोत की दुर्दशा देखता हूँ तो आत्मा कलप जाती है और सोचता हूं कि मुर्ख मनुष्य अपनी ही जाति के समूल नाश का उद्यम कर रहा है। रजवाड़ों के काल में शासक, जमीदार एवं धनी मानी व्यक्ति कुंए, बावड़ियाँ, पुष्करी, तालाब आदि लोककल्याण के भाव से निर्मित करवाते थे तथा इस कल्याण का कार्य करने के लिए शास्त्र भी नेति-नेति कहकर उन्हें प्रोत्साहित करते थे। परन्तु वर्तमान में सब खत्म होते जा रहा है।
आज एक लीटर पानी की कीमत 20 रुपए हो गई है, जो लोग सहर्ष लेकर पीते हैं, घरों में आर ओ का जल आ रहा है। लोगों ने घरों में जल शुद्धि के आर ओ मशीने लगवा ली हैं। जबकि आर ओ में एक लीटर जल शोधन करने के लिए तीन लीटर जल व्यर्थ जाता है। इस वर्तमान को देखकर भविष्य की चिंता होती है कि आने वाला कल कितना भयानक हो सकता है।
पर्यावरण रक्षा के लिए असली नकली गुहारें होती दिखाई देती हैं। मानता हूँ कि पर्यावरण के साथ इको सिस्टम भी सुधारना आवश्यक है। परन्तु सबसे पहले गाँवों एवं शहरों के पुराने पेयजल के स्रोतों को भी बचाना आवशयक है। जो कुंए, तालाब बावड़ियाँ हैं, उनकी सफ़ाई करके उनका जल प्रयोग में लाना प्रारंभ करना चाहिए, जिससे वर्षाजल से धरती सींचित हो सके एवं भूजल का स्तर बढता रहे।
छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाके में तालाबों की कमी नहीं है, प्रत्येक गांव में तीन से चार तालाब मिल जाएंगे। बड़े तालाबों का पानी ग्रीष्म ॠतु में गंदा हो जाता है तथा छोटे तालाबों का पानी सूख जाता है। इसे बचाने के लिए बड़े तालाबों की गाद निकालना चाहिए तथा छोटे तालाबों का गहरीकरण करना चाहिए। साथ ही तालाबों को साफ़ सुथरा रखने की व्यवस्था भी होनी चाहिए।
वर्षा जल के संरक्षन के प्राचीन पद्धति अपनाना आवश्यक है। वर्तमान में जो रेन हार्वेटिंग करने पर जोर दिया जा रहा है, वह पानी भूमि में समा जाएगा। वर्षा के इस बहुमूल्य जल को टंकी बनाकर साल भर के लिए सुरक्षित किया जा सकता है। जो कि जल संकट के समय काम आएगा।
पक्की छत वाले घरों की छत को पहले साफ़ करके चूने से पोतना चाहिए, इसके पश्चात पहली एवं दूसरी बरसात का पानी भूमि में जाने देना चाहिए। तीसरी बरसात से पहले एक बार फ़िर छत की सफ़ाई करके इसका जल संग्रहण करना चाहिए, यह पीने के साथ घर के अन्य कामों में भी प्रयोग में लिया जा सकता है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में यह प्रणाली प्राचीन काल से अपनाई जा रही है।
स्थानीय शासन एवं सामाजिक संस्थाओं को सबसे पहले इस ओर ध्यान देना चाहिए। जो जल के प्राचीन स्रोत हैं, उनकी सफ़ाई करवा कर मरम्मत करवानी चाहिए जिससे उनका संरक्षण हो सके। अभी भी समय है, यह आवाज हर जगह उठनी चाहिए। जल है तो सब कुछ है, यह चराचर सृष्टि है, प्राण है, जीवन है, वन्य प्राणी हैं। इको सिस्टम है, वरना सब नष्ट हो जाएगा।
अगर वर्षा जल संरक्षण को अभी नहीं अपनाया गया तो बहुत देर हो जाएगी और आने वाली पीढी आपको कोसने एवं लानते भेजने के अलावा क्या कर सकती है। सरकार को भी चाहिए कि वह प्राचीन जल के स्रोतों को बचाने की कोई योजना बनाए जो कारगर हो एवं इसका लाभ जन जन को हो, इसके जल संरक्षण की प्राचीन पद्धति अपनाना श्रेयकर होगा।
बहुत सुन्दर जानकारी सर सामाजिक सरोकार लिए हुए..