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ऐसी भक्ति करै रैदासा : माघ पूर्णिमा विशेष

एक समय था जिसे भारत में भक्ति का काल कहा जाता है तथा हिन्दी साहित्य में भी यह भक्ती का काल माना जाता है। हिंदी साहित्य का भक्तिकाल 1375 वि. से 1700 वि. तक माना जाता है। यह युग भक्तिकाल के नाम से प्रख्यात है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।

रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गया –

जाति-पांतिपूछेनहिंकोई।

हरि को भजै सो हरि का होई।।

इसी भक्ति काल में निर्गुण परम्परा के कई संत हुए जिनमें कबीर, कमाल, रैदास या रविदास, धर्मदास, गुरू नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जब, मलूकदास, अक्षर अनन्य, जंभनाथ, सिंगा जी, हरिदास निरंजनी आदि प्रमुख संत थे।

संत परंम्परा के संत कवि रविदास जी का जन्म ईस्वी सन की पन्द्रहवीं सदी माना गया है। आपका जन्म माघी पूर्णिमा के दिन वाराणसी में हुआ था।आपके जन्म के बारे में एक दोहा प्रचलित है—

“चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास।

दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।।”

आप रैदास, रविदास, आदि नामों से भी जाने जाते हैं। कबीर के गुरु रामानन्द जी के बारह शिष्यों में से एक रैदास भी थे। आप उच्च कोटि के संत कवि थे, तभी तो कबीर ने इन्हे “संतन के रविदास”कह कर मान्यता दी।

रैदास जूते बनाने का  का व्यवसाय किया करते थे।उन्होंने अपने आचरण और व्यवहार से प्रमाणित कर दिया की मनुष्य जन्म  व व्यवसाय  से महान नही  होता। रैदास बिना पैसे लिए ही साधु -संतों के लिए जूते बना कर दे आते  थे।

जिसके कारण पिता की नाराजगी का सामना करना पडा,उन्होंने रविदास जी  को घर से अलग कर दिया पर वे अपना कार्य बड़ी  लगन और परिश्रम से करते थे। ईश्वर भजन  करते हुए साधू -संतों की संगति से व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया।

एक प्रसिद्ध कहावत जो आज तक  कही जाती है “मन चंगा तो कठौती में गंगा” कहा जाता है ये कहावत रैदास की ही है, एक प्रसंगानुसार ,एक बार किसी पर्व पर सभी गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो उनके शिष्य ने उनसे भी चलने को कहा तो उन्होंने कहा कि मैं  गंगा स्नान को अवश्य चलता परन्तु मैंने किसी व्यक्ति को जूते बनाकर देने का वचन दिया है, मेरा मन तो यहां लगे रहेगा तो पुण्य की प्राप्ति कैसे होगी? इसलिये मन जो काम करने के लिए अंतःकरण से तैयार हो जाये वही करना उचित है। मन साफ व निश्छल हो तो कठौती में रखा जल भी गंगा जल के सामान पवित्र है और इस जल से ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त हो जायेगा।

रविदास जी की वाणी भक्ति एवं प्रेम तथा सर्वकल्याण की भावना से ओत-प्रोत है। इनके भजनों व उपदेशों ने लोगों के हृदय को प्रभावित किया क्योकि उन्हें अपने जीवन की समस्याओं और शकाओं का समाधान व उत्तर उसी में मिल जाता था और लोग स्वतः ही उस अद्भुत शक्तिपुंज की ओर आकर्षित होकर उनके अनुयायी बन जाते थे।

इनकी वाणी का व्यापक प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर पड़ा। इनकी भक्ति भावना से प्रभावित होकर मीरा बाई ने    इन्हें अपना गुरु मान   लिया।इनके उपदेश समाज कल्याण और उत्थान के लिए मार्ग दर्शक हैं।

इन्होंने अपनी रचनाओं में लोकवाणी का अद्भुत प्रयोग किया। जनसाधारण की ब्रज भाषा, राजस्थानी, खड़ी बोली, रेख़्ता, उर्दू, फारसी की मिश्रित भाषा का प्रयोग बड़ी सरलता एवं व्यवहारिकता के साथ किया। रैदास जी के चालीस पद गुरु ग्रंथ साहिब में मिलते है। जिसका संपादन गुरु अर्जुन सिंह देव जी ने 16 वीं सदी में किया।

रविदास जी की के पद वर्तमान में भी प्रासंगिक और समसामयिक है। सामाजिक बुराइयां, कुप्रथाएं, जाति-पाँति, बाह्याडम्बर, तीर्थाटन, छुआछूत इत्यादि के दुष्प्रभाव को उजागर करते हैं। जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाने वालों में पहले संघर्ष प्रतीक माने जाते हैं। जाति के लिए उन्होंने कहा है-

“जाति-जाति में जाति है,जो केतन के पात।

रैदास मानुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात ।।

धर्म, जाति के लेकर होने वाले सांप्रदायिक दंगों और समाज में अशांति ,अराजकता फैलाने वाले को एकता – सद्भावना  तथा भाई-चारे का संदेश देते हुए उन्होंने कहा कि राम, कृष्ण, रहीम, करीम, राघव सब एक ईश्वर के ही नाम हैं, जिनका गुणगान सभी ग्रंथों ,वेद, पुराण,कुरान में मिलता है।

“कृस्न ,करीम ,राम,हरि, राघव जब लव एक देखा।

वेद कतेब कुरान, पुरान न सहज एक नहि देखा।

उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम के मध्य अभेद को बताते हुए कहा  –

“हिन्दू तुरक नहीं कछू भेदा, सभी मह एक रक्त और मासा।

दोऊ एकऊ दूजा नाही, पेख्यों सोइ रैदासा।। 

रैदास जी ने बाह्याडम्बर, जातिगत एवं धर्मगत आडंबर पूर्ण भक्ति को सारहीन बताते हुए त्यागने पर जोर दिया।

“कहा भयौ जू मूँड़ मुंडायौ,बहु तीरथ ब्रत कीन्हें।

स्वामी दास भगत अरुख्येक जो परम् तत नहीं चिन्हें।।

अहंकार, क्रोध जैसे अमानवीय भावों से मानव जीवन और समाज सदैव खतरे में रहता है अतः रैदास जी ने हाथी और चींटी के दृष्टान्त से अभिमान को त्याग कर ईश्वर भक्ति का पात्र बनने  का सरल मार्ग बताया है-

“कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।

तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।

मनुष्य के जीवन में संगति का महत्वपूर्ण स्थान है। वर्तमान में भी जहाँ संसार अपने चरम उत्कर्ष में है वहीं युवा पीढ़ी  में कुसंगति और इसके दुष्प्रभाव को बताना अति आवश्यक हो गया है ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी सुरक्षित रहे। संत रैदास जी ने अपनी दूरदर्शिता से संगति के प्रभाव एवं महत्व को गली के जल और स्वाति-नक्षत्र की वर्षा बूंद के द्वारा बखान कर समस्त मानव का मार्ग दर्शन भी किया है-

“प्रभू जी तुम संगति सरन तिहारी, जग-जीवन राम मुरारी।।

गली-गली को जल बहि आयो,सुरसरि जाय समायो।

संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।

स्वाति बूँद बरसे फनि ऊपर, सोई विज होई लाई।

ओही बूँद के मोती निपजै,संगति की अधिकाई।।

रैदास जी के पद गेय हैं जिन्हें हम आज तक सुनते हैं –

प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी ,जाकी अंग-अंग बास समानी

प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

हिंदी साहित्य में ज्ञानाश्रयी संत कवि रविदास या रैदास जी के प्रादुर्भाव काल से लेकर अद्यतन समस्त परिस्थितियां प्रायः यथावत ही हैं । देश ,समाज बाह्य व आंतरिक लड़ाइयां, धार्मिक उन्माद, आडंबर, ऊंच-नीच आदि से त्राहि-त्राहि कर रहा है स्वरूप बदला परंतु समस्याएं नही। इन विषम परिस्थितियों में आज भी संत कवि रैदास जी के पद मानव -मानव को जोड़ने, भाई-चारा बढाने तथा समाज में शांति व प्रेम का संदेश देते हैं। संत रविदास जयंती पर उनके अनुयायी पवित्र नदियों  में स्नान करते हुए उनसे प्रेरणा लेते हैं। वार्षिक उत्सव के रूप में मनाते हुए उनके भजन, कीर्तन, दोहा गाये जाते है ।

निरंजन निराकार निरलेपहि  निरबिकार निरासी,

काम कुटिल ताहि कहि गावंत, हर हर आवै हासी।।

इस तरह समय-समय धरती पर समाज को दिशा देने के लिए महापुरुष अवतरित होते हैं, जो तत्कालीन समाज को मनुष्य बनाने के लिए यत्न पूर्वक उपदेश देते हैं। इन्हीं में से निर्गुण ब्रह्म के उपासक संत रैदास को सादर नमन, उनकी वाणी आज भी समाज के लिए प्रासंगिक है, जिसका अनुशरण कर जीवन की कठिनाईयों को दूर किया जा सकता है।

आलेख

श्रीमती रेखा पाण्डेय
व्याख्याता हिन्दी, अम्बिकापुर

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