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बस्तर की महान क्रांति का नायक गुंडाधुर: भूमकाल विद्रोह

रायबहादुर पंडा बैजनाथ (1903 – 1910 ई.) राज्य में अधीक्षक की हैसियत से नियुक्त हुए थे। पंडा बैजनाथ का प्रशासन निरंकुशता का द्योतक था जबकि उनके कार्य प्रगतिशील प्रतीत होते थे। उदाहरण के लिये शिक्षा के प्रसार के लिये उन्होंने उर्जा झोंक दी किंतु इसके लिये आदिवासियों को विश्वास में लेने के स्थान पर शिक्षकों को निरंकुश बना दिया। पुलिस तक को जबरन बच्चों को स्कूल में पहुँचाने के निर्देश दिये गये।

वन नीति के सख्ती से प्रतिपादन के बाद आदिवासियों के पास ऐसी कोई वस्तु शेष नहीं रही थी जिसे बेच कर वे व्यापारियों से नमक, कपड़ा, तेल या इसी तरह की दूसरी आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करें। इसी प्रकार की जबरदस्ती धीरे धीरे सुलग कर आदिवासी इतिहास के महानतम विद्रोह – भूमकाल (1910) का कारण बनी।

इस आन्दोलन का शीर्ष नेतृत्व गुण्डाधुर, डेबरीधुर तथा आयतु माहरा जैसे आदिवासी नेताओं से सज्जित था साथ ही राजमाता सुबरन कुँअर तथा पूर्व दीवान लालकालेन्द्र सिंह ने भी अपनी उपेक्षा से नाराज हो कर इस आन्दोलन के योजनाकारों और प्रोत्साहकों की भूमिका निभाई थी।

अक्टूबर 1909 को रानी सुबरन कुँअर ने ताडोकी में एक विशाल आदिवासी जन सभा को सम्बोधित किया तथा अंग्रेज साम्राज्य को बस्तर से बोहारने (झाड़ कर बाहर निकालने) का वहाँ संकल्प लिया गया। इसी सभा में गुण्डाधुर को इस संघर्ष का सर्वमान्य नायक घोषित किया गया (फारेन पोलिटिकल इंटरनल नेशनल आर्काईव ऑफ इंडिया, 1911)।

महान भूमकाल आंदोलन की स्मृति काष्ठ स्तंभ – फ़ोटो – राजीव रंजन प्रसाद

इसके अलावा परगना स्तर पर विद्रोह के संचालन के लिये विविध जाति समूहों से माझियों का चयन किया गया जिनमें अंतागढ़ से ‘आयतू माहरा’, कोंडागाँव से ‘भागी’, दंतेवाड़ा से ‘डिंड़ा’ और ‘कुराटी मासा’, सुकमा से ‘बोड़की बिरी’ और ‘दनिया’, कोण्टा से ‘धनीराम हल्बा’, बारसूर से ‘कोरिया माझी’ और ‘जेकरा पेद्दा’ प्रमुख थे।

गुण्डाधुर ने अगले दो माह तक सम्पूर्ण रियासत की यात्रा की। वह एक घोटुल से दूसरे घोटुल भूमकाल का संदेश प्रसारित करता घूमता रहा। जन-जन तक उसकी इस अविश्वसनीय तरीके से पहुँच ने किंवदंति प्रसारित कर दी कि गुण्डाधुर को उड़ने की शक्ति प्राप्त है।

गुण्डाधुर के पास पूंछ है। वह जादुई शक्तियों का स्वामी है। जब भूमकाल शुरु होगा और अंग्रेज बंदूख चलायेंगे तो गुण्डाधुर अपने मंतर से गोली को पानी बना देगा। भूमकाल आरंभ करने में सम्मिलित होने के प्रतीक की तरह लाल मिर्च बंधी आम की डाल गाँव गाँव भेजी जा रही थी। इसी बीच ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट दि ब्रेट ने बस्तर राज्य का दौरा किया। उन्हें कहीं से भी इस तूफान के आने की भनक नहीं लगी।

1 फरवरी, 1910 को सम्पूर्ण बस्तर रियासत में एक साथ महान क्रांति की आग सुलगी। पहले कदम के तौर पर पुलिस चौकियों, फोरेस्ट के सभी ऑफिस और गाँवों में बने स्कूल आग के हवाले कर दिये गये। टेलीग्राफ के तार काट दिये गये।

जगदलपुर में कुछ अफगानों की दुकाने लूट ली गयी तथा सरकारी अधिकारियों को पीटा गया। देखते ही देखते आधी से ज्यादा रियासत पर गुण्डाधुर और उसके साथियों का अधिकार हो गया। तीन-फरवरी को जगदलपुर से पास चिंगपाल गाँव में विद्रोहियों ने बहुत बड़ी सभा की। इसके बाद चार-फरवरी को कोकानार का बाजार लूटा गया। यहाँ भी एक अफगान की हत्या कर दी गयी।

पाँच-फरवरी को करंजी का बाजार और गाँव लूटा गया। पुलिस थाना और सरकारी दफ्तर आग के हवाले कर दिये गये। इस बीच सबसे बड़ी घटना छ:-फरवरी की है; पण्डा बैजनाथ के न पकड़े जाने से बौखला कर राजमाता सुवर्ण कुँअर ने दीवान को खोजने और उनके दोनों हाँथ काट डालने का आदेश दे दिया। दीवान की तलाश में विद्रोही गीदम में घुसे और बिना लड़े ही उनका इस कस्बे पर अधिकार हो गया।

विद्रोहियों को पहला प्रतिरोध बारसूर में मिला। यहाँ बैजनाथ हलबा के नेतृत्व में जमीन्दार ने विद्रोहियों की खिलाफत कर दी। बतीसा मंदिर के सामने भयानक युद्ध छिड़ा जिसमें विद्रोहियों को विजय मिली। चार दिनों से कोण्टा की घेरेबंदी की गयी थी; वहाँ के जमीन्दार के सशस्त्र प्रतिरोध ने भूमकालियों को आगे बढ़ने से रोक दिया। भोपालपट्टनम में भी जमीन्दार कुछ हद तक व्यवस्था बनाये रखने में सफल रहा।

डेबरीधुर को कोण्टा में मिली असफलता के बाद उसे कुटरू के विद्रोही दल को सहयोग करने के लिये भेजा गया। चतुर डेबरीधुर ने कुटरू में रसद की आपूर्ति को पूरी तरह से काट दिया था। असहाय हो कर जमीन्दार ‘सरदार बहादुर निजाम शाह’ को समझौते के लिये विद्रोहियों के पास संदेश भेजना पड़ा। अगली सुबह विजय के उन्माद में उत्साही विद्रोहियों ने दंतेवाड़ा पर हमला कर दिया।

वहाँ विद्रोही दंतेवाड़ा को अपने आधीन करने में सफल न हो सके तो कुँआकोण्डा की ओर बढ़ गये और देखते ही देखते एक और नगर मुरियाराज का हिस्सा बन गया। वहाँ तीन पुलिस वालों की हत्या कर दी गयी। जगरगुण्डा का जमीन्दार और उसके अधिकारी विद्रोहियों के नगरप्रवेश से पहले ही भाग गये। इधर उसूर को अपने अधिकार में लेने के बाद विद्रोहियों ने हाँथ आये एक पुलिस अधिकारी और उसकी पत्नी की हत्या कर दी।

राज्य के बिलकुल दूसरे छोर पर अबूझमाड़ भी भूमकाल की आग में जल रहा था। छोटा डोंगर में आयतु माहरा के नेतृत्व में आन्दोलन को शक्ति मिली। आयतु की पहली विजय थी अंतागढ़। इसके बाद आयतू ने नारायणपुर जेल पर हमला कर सभी कैदी मुक्त करा लिये गये। जब विद्रोही नारायणपुर में मुरियाराज की घोषणा करने के बाद डोंगर की ओर लौट रहे थे, उन्हे पहली बार ब्रिटिश प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।

अंग्रेज अधिकारी डूरी घात लगा कर बैठा था। आठ से दस राउंड़ गोलियाँ चली; तीन विद्रोही ढ़ेर हो गये। डूरी ने अचानक नगाड़ों की आवाज़ सुनी आस पास के गाँवों से एकाएक हजारो विद्रोही एकत्रित हो गये। अपने चार सिपाहियों की मौत के बाद डूरी को पीछे हटना पड़ा। अगली सुबह जब आयतु माहरा के नेतृत्व में विद्रोही ‘कुतुल’ की ओर बढ़ रहे थे; कैप्टन डूरी ने एक बार फिर दुस्साहस भरी कार्यवाही की।

एक सौ चवालिस राउंड़ गोलियाँ चली। जंगल रक्त से नहा गया। दर्जनों विद्रोही शहीद हो गये। डूरी के सिपाही भी हताहत हुए। एक पूरी बटालियन की जगह उसके पास केवल अठारह सैनिक रह गये थे। अब यह दूसरा मौका था जब विद्रोही हावी हो गये और डूरी को फिर पीठ दिखा कर भागना पड़ा।

मुकुन्द देव माछमारा का मोर्चा कोण्डागाँव से ले कर केशकाल की घाटियों तक था। असिस्टैण्ट डिप्युटि सुप्रिंटेंडेंट ऑफ पोलिस जे ए ड्यूक अपने सिपाहियों के साथ केशकाल की घाटियों तक तो पहुँच गये किंतु आदिवासी प्रतिरोध के आगे असहाय हो गये।

ड्यूक ने हिम्मत नहीं हारी। तीन असफल कोशिशों के बाद, पुलिस बल दो समानांतर पर्वत चोटियों पर चढ़ने में कामयाब रहा। लेकिन वे वहाँ फँस गये क्योंकि विद्रोहियों ने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। बस्तर में पहले भी प्रशासक रह चुके जी गब्लू गेयर को अब इस आन्दोलन के दमन के लिये विशेष रूप से पदस्थ किया गया। गेयर राज्य का नक्शा समझता था; फिर भी विद्रोही उसे केशकाल में ही रोके रखने में सफल रहे।

अब कैप्टन रैडाल के नेतृत्व में अब एक बड़ा सैन्यदल केशकाल घाटियों की ओर रवाना किया गया। अगली सुबह के साथ ही ड्यूक, राडाल और गेयर की संयुक्त सेना विद्रोहियों पर टूट पड़ी। कई घंटो का भीषण संघर्ष चला। अनेकों वीर विद्रोही हताहत हुए और तब कहीं अंग्रेज बस्तर की सीमा में प्रवेश कर सके। इन्द्रावती नदी के किनारे खड़कघाट पर सेना तथा विद्रोहियों के बीच भयावह संघर्ष हुआ जिसमें सैंकडो विद्रोहियों को बलिदान देना पड़ा। इसके पश्चात ही ब्रिटिश सेना जगदलपुर पहुँच सकी।

जगदलपुर पहुँचने के बाद भी सीधे विद्रोहियों से लड़ने की जगह कूटनीति की बिसात बिछाई गयी। अतिरिक्त सेनाओं की रियासत में की जा रही प्रतीक्षा तक आदिवासियों से बातचीत का नाटक खेला गया तथा गेयर ने मिट्टी हाँथ में उठा कर कसम खाई और आदिवासियों को विश्वास दिलाया कि वे अपनी लड़ाई जीत गये हैं। अब आगे का शासन उनके अनुसार ही चलाया जायेगा।

24 फरवरी की सुबह-सुबह मद्रास और पंजाब बटालियन जगदलपुर पहुँच गयी। देर से मिली सूचना के बाद भी जबलपुर, विजगापट्टनम, जैपोर और नागपुर से भी 25 फरवरी तक सशस्त्र सेनायें जगदलपुर आ पहुँची थी। राजधानी की सड़कों पर फ्लैग मार्च किया गया। यह एक अपराजेय ताकत थी। विद्रोही राजधानी और आसपास से खदेड़ दिये गये।

गेयर तक खबर पहुँच गयी कि विद्रोही अब अलनार में एकत्रित हो रहे हैं। आधी रात को आदिवासियों पर कायराना-अंग्रेज आक्रमण किया गया। भोर की पहली किरण के साथ ही युद्ध समाप्त हो सका। अलनार गाँव से विद्रोही पलायन कर गये। गुण्डाधुर गेयर की पकड़ में नहीं आया।

गेयर ने गुण्डाधुर को पकड़ने के लिये दस हजार और डेबरीधुर पर पाँच हजार रुपयों के इनाम की घोषणा की थी। विद्रोहियों के तितर बितर होते ही दि ब्रेट ने छब्बीस-फरवरी को ताडोकी पर हमले का आदेश दे दिया। आधे घंटे की गोलाबारी के बाद ही लाल कालेन्द्रसिंह गिरफ्तार किये जा सके। उनके मकान में आग लगा दी गयी। अब तक मुकुन्ददेव माछमारा, मूरतसिंह बख्शी, कुँअर बहादुर सिंह, दुलन सिंह, बाला प्रसाद जैसे गैरआदिवासी क्रांतिकारी भी पकड़ लिये गये थे।

पाँच-मार्च को तैयारी के साथ राजमाता सुबरन कुँअर के आवास पर छापा मारा गया। राजमाता को गिरफ्तार कर राजमहल लाया गया; उन्हें नजरबंद कर दिया गया। 25 मार्च, 1910 को उलनार भाठा के निकट सरकारी सेना का पड़ाव था। गुण्डाधुर को जानकारी दी गयी कि गेयर भी उलनार के इस कैम्प में ठहरा हुआ है।

डेबरीधुर, सोनू माझी, मुस्मी हड़मा, मुण्डी कलार, धानू धाकड़, बुधरू, बुटलू जैसे राज्य के कोने कोने से आये गुण्डाधुर के विश्वस्त क्रांतिकारी साथियों ने अचानक हमला करने की योजना बनायी। एक घंटे भी सरकारी सेना विद्रोहियों के सामने नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई। लेकिन उसी रात यह विजय अंतिम पराजय में बदल गयी। किसी लालच के वशीभूत गुण्डाधुर का ही एक विश्वासपात्र साथी सोनू माझी, गेयर से मिल गया तथा उसकी सूचना के आधार पर विद्रोही सेना का दमन कर दिया गया।

सुबह इक्सीस लाशें माटी में शहीद होने के गर्व के साथ पड़ी हुई थी। गुण्डाधुर को पकड़ा नहीं जा सका लेकिन डेबरीधूर और अनेक प्रमुख क्रांतिकारी पकड़ लिये गये। गेयर बाजार में नगर के बीचो-बीच इमली के पेड़ में डेबरीधूर और माड़िया माझी को लटका कर फाँसी दी गयी। यह भूमकाल का अंत नहीं अपितु आरम्भ था। आज भी गुण्डाधुर बस्तर में प्रत्येक आन्दोलन के प्रेरणास्त्रोत व प्रतीक बने हुए हैं।

आलेख

राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार




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