छत्तीसगढ़ केवल एक जनजातीय क्षेत्र ही नहीं है। यह एक ऐसा वैचारिक केन्द्र भी रहा है,जहाँ से एक सामाजिक परिवर्तन का सूत्रपात हुआ। शोषित उपेक्षित दलित समाज को मुख्यधारा में जोड़नेे का कार्य जहां से प्रारंभ हुआ, वह छत्तीसगढ़ ही है। इसमें पंडित सुन्दरलाल शर्मा की एक महती भूमिका रही है। वे एक तरफ राष्ट्रीय जागरण के लिए मंत्र दे रहे थे, तो दूसरी ओर अछुत समझे जाने वाले दलित समाज को अपना बनाकर उसे मुख्यधारा से जोड़ने के कार्य में भी लगे हुए थे।
19वीं सदी में जाति-पाँति, छुआछूत चरमसीमा पर थीं। दलित समाज उपेक्षित और असमर्थ था। उसका जीवन काँटों पर चलने के समान था। परंपरावादी हिंदू दलित समाज को अपने से अलग मानते थे। पर उस समय भी कुछ चिंतनशील व्यक्ति, राजनेता, समाज सेवक, साहित्यकार उस व्यवस्था को तोड़ने के लिए अपने-अपने स्तर से प्रयास कर रहे थे।
जाति व्यवस्था और सामाजिक कुरीतियों पर साहित्य भी लिखा जा रहा थाऔर कुछ समाजसेवी अपने स्तर से उसे सुधारने का प्रयास भी कर रहे थे। छत्तीसगढ़ में पंडित सुन्दरलाल शर्मा दलितों के मसीहा बने हुए थे। उनका शासन,प्रशासन तथा कट्टर पंथियों द्वारा हर स्तर पर विरोध किया जा रहा था, किन्तु वे रूके नहीं, झुके नहीं, टूटे नहीं। वे दलितों का मंदिरों में प्रवेश करा रहे थे। उन्होंने दलित समाज को सम्मान दिलाने के लिए हर स्तर पर विरोधों का सामना किया। उन्होंने स्व प्रयास से रायपुर में सतनामी आश्रम की स्थापना की, जब महात्मा गाँधी दलित उद्धार पर विचार कर रहे थे, तब वे घर-घर जाकर जनेऊ बाँट रहे थे।
महात्मा गाँधी पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रयास से 1933 में जब छत्तीसगढ़ आए तब राजिम नवापारा की सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘पंडित सुन्दरलाल शर्मा उम्र में मुझसे छोटे हैं, लेकिन दलितों के उद्धार में मुझसे बड़े है।’’ यह ही नहीं उन्होंने दलित उद्धार के क्षेत्र में पंडित सुन्दरलाल शर्मा को अपना गुरू निरूपित किया।
पंडित सुन्दरलाल शर्मा का जन्म 21 दिसम्बर सन् 1881 ई0 मं छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक नगरी राजिम के पास चमसुर (चंद्रसूर) नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता जियालाल तिवारी और माता देवमती थी। उनके पिता कांकेर रियासत के वकील थे। पिता के विचारों का प्रभाव पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा पर भी पड़ा। उनके पिता जियालाल तिवारी अच्छे साहित्यकार भी थे।
उस समय शिक्षा का विशेष प्रचार-प्रसार नहीं होने के कारण पं. सुन्दर लाल शर्मा जी की स्कूली शिक्षा पर्याप्त नहीं हो पायी। औपचारिक स्कूली शिक्षा केवल प्राथमिक स्तर तक ही हुई, किन्तु शिक्षा में गहन रुचि होने के कारण उन्होंने संस्कृत, बंगला, मराठी, उड़िया और उर्दू आदि भाषाएँ सीख लीं। वे सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए शिक्षा को आवश्यक समझते थे।
पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ के अग्रदूत थे। वे एक अच्छे कवि, सामाजिक कार्यकर्ता, समाज सेवक, इतिहासकार, स्वतंत्रता-संग्राम-सेनानी तथा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे गुणों के पिटारा थे, एक ही व्यक्ति में इतने सारे गुणों का संयोजन दुर्लभ था। उनके गुणों पर चर्चा करते हुए लोग उन्हें चमत्कारी पुरूष भी कहते थे।
समग्रता में यदि हम पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा को देखें तो वे व्यक्ति नहीं संस्था थे। यही नहीं वे एक मूर्तिकार, चित्रकार, त्यागी, तपस्वी, बलिदानी, सत्य के पुजारी, कृषि वैज्ञानिक तथा दानवीर भी थे। उनके जीवन का लंबा समय दलितों के उद्धार में बीता।
पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के प्रथम स्वप्न दृष्टा थे, जिसे आज़ादी के बाद छत्तीसगढ़ पृथक प्रदेश मांग करने वालों ने आगे बढ़ाया। उन्होंने छत्तीसगढ़ प्रांत की भौगोलिक सीमा को इस ढ़ंग से रेखांकित किया। ‘‘जो भाग उत्तर में विंध्य श्रेणी व नर्मदा से दक्षिण की ओर इंद्रावती नदी से ब्राह्मणी नदी तक है, जो पश्चिम में वैन गंगा के मध्य में अवस्थित है, जहाँ गढ़ नामवाची ग्राम संज्ञा है, जहाँ सिंग बाजा का प्रचार है, जहाँ स्त्रियों का पहनावा व वस्त्र प्रणाली प्रायः एक है, जहाँ कृषि में धान प्रधान उपज है।’’ छत्तीसगढ़िया स्वाभिमान को उच्च स्थान प्रदान करने के लिए वे छत्तीसगढ़ी बोली को भाषा का दर्जा देने के प्रबल पक्षधर थे। उनकी छत्तीसगढ़ी रचनाओं से छत्तीसगढ़ की संस्कृति, राजनैतिक, सामाजिक जागरण को नई पहचान मिली।
पंडित सुन्दरलाल शर्मा के साहित्यिक अवदान को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने चार नाटक, तीन जीवनी, एक उपन्यास, एक कहानी, चौदह काव्य तथा सैंकड़ों स्पुट काव्य लिखकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा में तीन काव्य ग्रंथों की भी रचना की। पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा को छत्तीसगढ़ी का आदि कवि कहा जाता है। उन्होंने छत्तीसगढ़ ग्राम्य बोली को भाषा का रूप प्रदान किया।
सन् 1906 में उनकी अमर कृति ‘दान लीला’ प्रकाशित हुई जिसने पूरे छत्तीसगढ़ में धूम मचा दी। पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा एक गंभीर चिंतक और भविष्य दृष्टा थे। उन्होंने समाज में व्याप्त अज्ञानता, अंधविश्वास तथा कुरीतियों को मिटाने के लिए शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर विशेष बल दिया। इस हेतु उन्होंने राजिम में एक संस्कृत पाठशाला, वाचनालय स्थापित किया।
पंडित सुन्दरलाल शर्मा के राजनैतिक अवदान को युगों तक याद किया जाएगा। जब देश के राजे-राजवाड़े, देशी रियासतें और सम्पन्न वर्ग अंग्रेजी हुकूमत के कृपाकांक्षी थे, तब पंडित सुन्दरलाल शर्मा आम लोगों को लेकर देश को स्वतंत्रता दिलाने में लगे हुए थे। वे लगातार यात्रा करते हुए लोगों के हृदय में राजनैतिक चेतना जागृत करने में संलग्न थे।
सन् 1905 में जब बंग-भंग के कारण देशव्यापी आंदोलन हुआ, तब पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा जनसभाओं के माध्यम से जनचेतना जागृत करने में लगे हुए थे। वे अपने निकटतम सहयोगी नारायण लाल मेघावाले के साथ धमतरी से कोकोनाड़ा पैदल यात्रा करके पहुँचे थे, जो वहाँ से 700 किलोमीटर दूर था।
आरंभ में उनके निकटतम सहयोगी नारायण राव जी मेघावले, नत्थू जी जगताप, भवानी प्रसाद मिश्र, माधव राव जी सप्रे, अब्दुल रऊफ, हामिद अली, वामनराव लाखे आदि थे। बाद में उन्हें त्यागमूर्ति ठाकुर प्यारे लाल सिंह, लक्ष्मीनारायण दास महन्त, यति यतनलाल, खूबचंद बघेल अजीरदास, बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव जैसे कर्मठ नेताओं का भी सहयोग प्राप्त हुआ फलस्वरूप छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आन्दोलन की गति निरन्तर तीव्र होती चली गई।
सन् 1917 में पं. सुन्दरलाल शर्मा ने सिहावा के बीहड़ जंगलों एवं कन्दराओं को जंगल कानून तोड़ने का केन्द्र बनाया। वहाँ के वनवासी गरीब तथा पिछड़े हुए लोग थे। वन विभाग के कर्मचारी तथा अंग्रेजी पुलिस उनका शोषण करती थी एवं उन पर अमानुषिक अत्याचार करती थी। इस क्षेत्र के आदिवासियों को शर्मा जी ने संगठित किया। उनकी प्रेरणा से सिहावा के आदिवासियों ने वन-विभाग के कानून की अवहेलना कर जंगल की कटाई शुरू कर दी।
परिणाम स्वरूप पं. सुन्दरलाल शर्मा अंग्रेजी हुकूमत द्वारा सन् 1922 में गिरफ्तार कर लिए गए तथा उन्हें एक वर्ष के लिए सश्रम कारावास की सजा दी गई। उसके पीछे श्री नारायण राव मेघावाले, भवानी प्रसाद मिश्र, अब्दुल रऊफ आदि भी गिरफ्तार हुए। छत्तीसगढ़वासियों की आज़ादी की लड़ाई के इस सेनापति ने प्रथम जेल यात्री के रूप में कारावास में प्रवेश किया। कारावास में उन्हें यातनायें दी गई।
उदार एवं चेतन मन पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा ने साहित्य के माध्यम से मात्र वैचारिक बीज ही नहीं बोये, बल्कि मन और कर्म दोनों से ही राष्ट्र की सेवा की। वे अच्छे सामाजिक संगठक थे। उन्होंने 1919 में राजिम में छत्तीसगढ़ी किसानों की एक सभा का आयोजन किया जिसमें सैकड़ों धनपति एवं हजारों किसानों ने हिस्सा लेकर किसानों पर हो रहे अत्याचारों का विरोध किया तथा नहर से पानी देने में जो अन्याय पूर्ण कार्यवाही की जा रही थी उस पर भी विचार किया।
पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा की गतिविधियों पर विचार करते हैं तो ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था, जिस पर वे कार्य नहीं करते थे। उनका हर पल समाज सेवा और राष्ट्र सेवा में समर्पित था। दलित उद्धार के कार्य में समर्पित भाव से कार्य करने के कारण न जाने उन्हें कितना अपमान सहना पड़ा। उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया।
लोगों के द्वारा उन्हें ‘सतनामी ब्राह्मण’ के विशेषण से संबोधित किया गया, किन्तु वे कभी भी हतोत्साहित नहीं हुए और न ही उन्होंने लोगों से प्रतिशोधात्मक व्यवहार किया। उनका लक्ष्य तो सामाजिक रूढ़ियों को समाप्त कर एक समतामूलक समाज की स्थापना करना तथा उसे एक सूत्र में पिरोना था। उनका जीवन लोक के लिए ही समर्पित था। प्रत्येक कार्य को वे यज्ञ की भांति पवित्रमन से करते थे।
उनके राष्ट्रीय जागरण के कार्य एक आलेख में समेटना दुःसाहस होगा। वे स्वतंत्रता संग्राम के कर्मठ सिपाही थे। समग्र व्यक्तित्व के धनी पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा ने कई उल्लेखनीय कार्य किए। उनकी मान्यता थी कि दलितों को भी समाज के सवर्णों की भांति राजनैतिक सामाजिक और धार्मिक अधिकार हैं। उन्होंने दलित समाज को बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए हर संभव प्रयास किया।
उनका निधन 23 दिसम्बर 1940 में हो गया। पूरा छत्तीसगढ़ उन्हें छत्तीसगढ़ के गाँधी के रूप में स्मरण करता है। छत्तीसगढ़ शासन ने आँचलिक साहित्य रचना को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी स्मृति में राज्य स्तरीय पंड़ित सुन्दरलाल शर्मा सम्मान स्थापित किया है।
संदर्भ :- 1. छत्तीसगढ़ के रत्न, डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा,
2. युग प्रवर्तक पं. सुन्दरलाल शर्मा, ललित मिश्रा
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