अमरकंटक मेकलसुता रेवा का उद्गम स्थल है, यह पुण्य स्थली प्राचीन काल से ही ॠषि मुनियों की साधना स्थली रही है। वैदिक काल में महर्षि अगस्त्य के नेतृत्व में ‘यदु कबीला’ इस क्षेत्र में आकर बसा.
वैदिक ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र के 50 शापित पुत्र भी यहाँ आकर बसे। उसके बाद, अत्रि, पाराशर, भार्गव आदि का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ। नागवंशी शासक नर्मदा की घाटी में शासन करते थे।
मौनेय गंधर्वों से जब संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इच्छ्वाकु वंश नरेश मान्धाता ने अपने पुत्र पुरुकुत्स को नागों की सहायता के लिए भेजा जिसने गंधर्वों को पराजित किया। नाग कुमारी नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स के साथ कर दिया गया।
इसी वंश के राजा मुचकुंद ने नर्मदा तट पर अपने पूर्वज मान्धाता के नाम पर मान्धाता नगरी स्थापित की थी। यदु कबीले के हैहयवंशी राजा महिष्मत ने नर्मदा के किनारे महिष्मति नगरी की स्थापना की। उन्होंने इच्छवाकुओं और नागों को पराजित किया।
कालांतर में गुर्जर देश के भार्गवों से संघर्ष में हैहयों का पतन हुआ। उनकी शाखाओं में तुण्डीकैर (दमोह), त्रिपुरी, दशार्ण (विदिशा), अनूप (निमाड़) और अवंति आदि जनपदों की स्थापना की गयी। महाकवि कालिदास इसी अमरकंटक शिखर को अपने अमर ग्रंथ मेघदूत में आम्रकूट कहकर सम्बोधित करते हैं।
अमरकंटक का में कलचुरी राजा कर्ण ने मंदिरों का निर्माण कराया था, इन्हें कर्ण मंदिर समूह कहा जाता है। कर्ण मंदिर समूह तीन स्तरों पर है। परिसर में प्रवेश करते ही पंच मठ दिखाई देता है। इसकी शैली बंगाल एवं असम में बनने वाले मठ मंदिरों जैसी है।
इससे प्रतीत होता है कि यह स्थान कभी वाममार्गियों का भी साधना केन्द्र रहा है। इस तरह के मठों में अघोर एकांत साधनाएँ होती थी। पंच मठ के दाएँ तरफ़ कर्ण मंदिर एवं शिव मंदिर हैं। शिवमंदिर में श्वेतलिंग है तथा इससे समीप वाले मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है।
इन मंदिरों के सामने ही जोहिला (नदी) मंदिर एवं पातालेश्वर शिवालय है। इसके समीप पुष्करी भी निर्मित है।, इन मंदिरों से आगे बढने पर उन्नत शिखर युक्त तीन मंदिरों का समूह है जिनका निर्माण ऊंचे अधिष्ठान पर हुआ है। यहाँ भी कोई प्रतिमा नहीं है तथा द्वार पर ताला लगा हुआ है। इन मंदिरों का निर्माण बाक्साईट मिश्रित लेट्राईट से हुआ है।
पातालेश्वर मंदिर, शिव मंदिर पंचरथ नागर शैली में निर्मित हैं। इनका मंडप पिरामिड आकार का बना हुआ है। पातालेश्वर मंदिर एवं कर्ण मंदिर समूह का निर्माण कलचुरी नरेश कर्णदेव ने कराया। यह एक प्रतापी शासक हुए,जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था।
सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे। इनका काल 1041 से 1073 ईस्वीं माना गया है।
वैसे इस स्थान का इतिहास आठवीं सदी ईस्वीं तक जाता है। मान्यता है कि नर्मदा नदी का स्थान निश्चित करने के लिए सूर्य कुंड का निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था। अमरकंटक का यह कर्ण मंदिर दर्शनीय पुरातात्विक स्थल है। अमरकंटक आने पर इसे अवश्य देखना चाहिए।
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