मनुष्य की बसाहट के लिए स्थान विशेष पर जल की उपलब्धा होना आवश्यक है। प्राचीन काल में मनुष्य वहीं बसता था जहाँ प्राकृतिक रुप जल का स्रोत होता था। पूरे भारत में जहाँ भी हम देखते है वहाँ प्राचीन काल की बसाहट जल स्रोतो के समीप ही पाई जाती है। जल स्रोत नदी नालों के रुप में हो या पहाड़ों में एकत्रित वर्षा जल हो। पहाड़ में एकत्रित वर्षा जल बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ लेता है और वह चूआ या ढ़ोढी कहलाता है। ऐसे अनेक स्थान उत्तराखंड, से लेकर भूटान तक दिखाई देते हैं। ये जल स्रोत बड़ी आबादी की जल निस्तारी के लिए पर्याप्त होते हैं।
ऐसा ही एक जल स्रोत सरगुजा जिले के लखनपुर सदियों पुराना है जो गेल्हा चूआ ढोढी के नाम से आज भी पथिकों, पशु-पक्षियों की प्यास बुझा रहा है। लखनपुर झिनपुरी पारा के समीप से गुजरने वाली चुल्हट नदी के किनारे एक विशाल वृद्ध आम वृक्ष जड़ के नीचे विद्यमान अत्यंत मनोरम गेल्हा चूआ ढ़ोढी अपने बीते कल के इतिहास को समेटे हुए है।
समय ने गेल्हा चूआ ढोढी के अतीत को बहुत नजदीक से देखा है इस जलस्रोत का कोई लिखित इतिहास नही है लेकिन यह अपने आप में इतिहास है। सर्वप्रथम किन लोगों के द्वारा इस ढोढ़ी को ढूंढा गया होगा इस बात का कोई प्रमाण नहीं है संभवतः बीते अतीत काल में सघन जंगल के बीच बहने वाली चुल्हट नदी किनारे बसने वाले बस्ती के जरूरतमंद लोगों ने अपने प्यास बुझाने के लिए नदी किनारे के मिट्टी को हटा कर ढ़ोढी को प्रकाश में लाया गया होगा।
अकसर लोग वही बसते हैं जहां जल स्रोतों की सुविधा होती है। यह भी कहा जाता है कि पहले जमाने में मीलों पैदल सफर करने वाले मुसाफिर जरूरत पड़ने पर नदी किनारे की ऊपरी परत रेत या मिट्टी को हटाकर एक छोटा जलकुंड बनाते तथा जल के साफ होने पर उस पानी से अपनी प्यास बुझाकर अपने गंतव्य की ओर बढ़ जाते थे, जिसे चूआ या ढोढी कहा जाता था।
सदियों से पुस्त दर पुस्त लखनपुरवासियों ने इस ढ़ोढी के पानी से अपनी प्यास बुझाई है, भीषण अकाल के दिनों में भी इसने अपने गांव के लोगों का साथ नहीं छोड़ा। लखनपुर ही नहीं वरन आसपास दूरदराज गांव के लोग भी अपनी प्यास बुझाने इस ढोढ़ी से पानी ले जाते थे।
यह भी बताया जाता है कि भीषण सूखे के दिनों में नदी, तालाब, सरोवर सुख जाते थे लेकिन गेल्हा चूआ ढोढी से पानी का प्रवाह नहीं रूकता था। हमारे भारतीय संस्कृति में प्रत्येक जल स्रोतों को पतित पावन मां गंगा का दर्जा प्राप्त है। ऐसी सोच रखने वाले उस काल के आस्थावान गांववासियों ने गेल्हा चूआ ढोढी को पूजनीय स्थल का दर्जा दे दिया।
आज भी नगर में जब कोई शादी विवाह जैसे मांगलिक कार्य किसी के घरों में होते हैं तब इस ढोढी के पानी ले जाया जाता है। जब दूसरे गांव या नगर से किसी स्त्री को लखनपुर-में ब्याहकर लाया जाता है तो सर्वप्रथम उस महिला के ससुराल वाले नवविवाहिता को पूरे सोलह श्रृंगार से सुसज्जित कर विधिवत ढोढी गेल्हा चूआ का दर्शन पूजन कराते हैं ताकि आने वाले भविष्य में ढोढी रूपी दैवीय शक्ति की कृपा दृष्टि उस दुल्हिन के घर परिवार पर बनी रहे।
बताया यह भी जाता है कि रियासत काल मे गेल्हा चूआ ढोढ़ी का पानी गढ़ी में भी पीने के उपयोग में लाया जाता था। ग्रामवासी सदैव इस ढोढी की साफ सफाई पूजा अर्चना करते थे और करते रहे हैं। कालान्तर में शुद्ध पेयजल के अनेकों ससाधन उपलब्ध हो जाने के बाद भी बसाहट के कुछ लोग ढोढी का ही पानी पीते हैं।
दरअसल गेल्हा चूआ ढोढी को पूजनीय रासढोढी माना जाता है और इसके पानी को उपयोग में लाना शुभ समझा जाता है। यह भी मान्यता है कि जिस घर में इस ढोढी के जल का उपयोग होता है उस घर में सुख समृद्धि तो आती ही है। धन धान्य की भी वृद्धि होती है घरों में बनने वाले भोजन में बढ़ोतरी होती है।
ढोढी के पवित्रता को बनाए रखने के लिए पुराने जमाने के ग्रामवासियों ने कुछ खास नियम बना रखे थे। ढोढी के पानी को जूठा नहीं करना, स्नान करने पर प्रतिबंध, ढोढी परिसर में रजस्वला स्त्री के प्रवेश पर प्रतिबंध, ढोढी परिसर में जूता-चप्पल पहन कर जाने पर मनाही थी। परन्तु समय परिवर्तन के साथ नियमों को तोड़कर तार तार कर दिया है।
किसी नियम पर पहरा नहीं रह गया। पहले के नियम कायदों का आवरण ही शेष रह गया है। गेल्हा चूआ ढोढी के अतीत से जुड़ी जनश्रुति है कि ढोढ़ी के अंदर मणि धारी नाग नागिन रहते थे जो रात के अंधेरे में निकल कर ढोढी के आसपास विचरण करते थे। किस्सों में यह भी बताया जाता है कि किसी जमाने में गांव के बैगा को ढोढ़ी के देवता अपनी दुनिया में ले गये थे जहां उसकी खातिर तवज्जो की गई।
बैगा को देवताओं द्वारा यह आशीर्वाद देकर लौटाया गया कि लखनपुर गांव सदैव धन-धान्य से परिपूर्ण रहेगा। खैर ढ़ोढ़ी के विषय में कुछ भी कहानी और किवंदन्तियाँ हों, परन्तु यह तो तय है कि यह जल स्रोत सदियों से जनमानस की प्यास बुझा रहा है।
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