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लोक जीवन की शक्ति, लोक पर्व अक्ति

हमारा भारत का देश गाँवों का देश है। गाँव की गौरव गरिमा लोक परम्पराएं तीज त्यौहार, आचार विचार आज भी लोक जीवन के लिए उर्जा के स्रोत हैं। गाँव की संस्कृति लोक संस्कृति कहलाती है। जनपदों लोकांचलों में विभक्त ये गाँव अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को सांसों में बसाए हुए हैं। भारत भूमि के प्रत्येक प्रदेश और लोकांचल की अपनी लोक परम्पराओं व लोक संस्कृति के कारण पृथक पहचान है।

यूँ तो पूरे भारत में अक्षय तृतीया का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। अक्षय तृतीया को मनाने के पीछे कई कारण हैं। अक्षय तृतीया नागर जीवन और लोक जीवन दोनों में ही परिव्याप्त है। शिष्ट परम्पराओं के अनुरुप अक्षय तृतीया को परशुराम जयंती के रुप में मनाया जाता है। लेकिन लोक में इस पर्व को मनाने की पृथक पृथक स्थानीय परम्पराएं प्रचलित हैं। अक्षय तृतीया अर्थात अक्ति के संबंध में छत्तीसगढ़ की अपनी अलग ही लोक मान्यताएं एवं लोक परम्पराएं है। जिनका पालन यहाँ का लोक जीवन प्राचीन काल से कर रहा है।

अनूठा लोक पर्व अक्ति

अक्षय तृतीया का लोकरुप अक्ति है। लोक पर्व अक्ति सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में किंचित भिन्नताओं के साथ मनाया जाता है। अक्ति के मूल में कृषक जीवन के श्रम एवं शृंगार का भाव सन्निहित है। यदि इसे कृषकों का प्रथम त्यौहार कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अक्ति के दिन से ही कृषि कार्य का प्रारंभ माना जाता है। कृषि कार्य की दृष्टि से यह नये वर्ष का प्रारंभ दिवस है। लोक पर्व अक्ति बैशाख शुक्ल पक्ष की तीज को मनाया जाता है।

जल कलशों का प्रयोग

अक्ति के दिन प्रात: काल से आबाल वृद्ध, नारी पुरुष स्नान कर कुम्हार के घर से लाये करसी, करसा व पोरा (मिट्टी से लाल घड़े) में जल भरकर लाते हैं। इस दिन बच्चों में अधिक उत्साह होता है। वे अपने बुजुर्गों के साथ हंवला या बाल्टी में जल भरकर उसमें नीम की डाली डालकर देवालयों में जल अर्पित करते हैं। नीम का वृक्ष आरोग्य प्रदान करता है। इसमें लोक ही नहीं विज्ञान की भी सहमति है। लोक के अपने-अपने देवी देवता हैं जैसे सांहड़ा देव, ठाकुर देव, माता देवाला आदि। लोकपूजित देवताओं के साथ ही गाँव के अन्य मंदिरों में भी जल चढ़ाकर घर परिवार और गाँव की सुख समृद्धि की मंगलकामना की जाती है। मृत व्यक्ति के समाधि स्थल पर भी पोरा में जल रखा जाता है। इसके पीछे यह लोक मान्यता है कि भीषण गर्मी पितरों की प्यास बुझे। उन्हें पानी की तकलीफ़ न हो।

अक्ति के दिन से ही छत्तीसगढ़ में लोग करसी के शीतल जल का प्रयोग करते हैं, अक्ति के पहले चाहे कितनी भी भीषण गर्मी क्यों न पड़े। धार्मिक आस्था वाले लोग करसी का पानी नहीं पीते, इसी दिन से ही लोग राउत जो कि पानी भरने का काम करता है, के माध्यम से देवालयों में पानी डलवाते हैं तथा भानजों के घर पानी भरवाते हैं। छत्तीसगढ़ में चूंकि भानजे श्रीराम के रुप में पूजित हैं इसलिए यह पुण्य का कार्य माना जाता है। प्याऊ घर भी खोले जाते हैं। इन सबके पीछे लोक कल्याण की भावना समाहित है। चिड़ियों के लिए ओरवाती में परई बांधकर जल व हाता (धान की बालियों से बना कलात्मक झालर) बांधकर अन्न की व्यवस्था की जाती है। यह छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की उदारता और उसके प्रकृति प्रेम का प्रतीक है। इन्हीं कारणों से यहाँ का लोक शिष्ट से विशिष्ट बनता है।

छाहुर बंधान की परम्परा

जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है अक्ति कृषकों के लिए नये वर्ष का प्रारंभ है, इस दिन गाँव में ग्राम प्रमुखों की राय पर कोटवार द्वारा मुनादी की जाती है कि छाहुर बंधाए बर चलो हो……। तब गाँव के कृषक अपनी-अपनी कोठी से सात या पाँच प्रकार के अन्न (बीज) चुरकी या महुआ के दोनों में लेकर ठाकुर दइहा जाते हैं। जब सभी कृषक एकत्रित हो जाते हैं तब बैगा के मार्गदर्शन में बीजों को मिलाकर धरती पर बिखेर दिया जाता है। तत्पश्चात धरती को नागर के लोहे (हल के फ़ाल) से खोदा जाता है। फ़िर दोने में जल भरकर उस पर सिंचाई की जाती है। प्रतीकात्मक रुप में सारी प्रक्रिया खेत में बीज बोने, हल चलाने व सिंचाई करने की है। शेष बीजों को कृषक अपने अपने खेतों में ले जाकर बोते हैं और धरती माता से भरपूर अन्न तथा सुख समृद्धि के प्रतिदान की कामना के साथ कृषि कार्य मुहरुत करते हैं। चूंकि कृषक अक्ति के दिन से कृषि कार्यों को प्रारंभ करता है इसलिए इसे कृषक जीवन का नव वर्ष भी माना जाता है। अक्ति के दिन जहाँ ग्रामीण छाहुर बंधाने का कार्य करते हैं वहीं धान कटाई के बाद छाहुर छुड़ाने का कार्य भी करते हैं।

चोंगी माखुर परम्परा

छत्तीसगढ़ में मालिक-सेवक की स्वस्थ परम्परा कायम है। जिन किसानों की जमीनें अधिक हैं। वे कृषि कार्य के लिए सेवक रखते हैं, जिन्हें सौंझिया कहा जाता है। अक्ति के दिन ही पुराने सेवकों को उपहार देकर उनकी विदाई की जाती है। उन्हें पुन: कार्य पर रखा जाता है या नये सौंझियों की व्यवस्था की जाती है। अक्सर सौंझिया बदलने की परम्परा कम ही दिखाई पड़ती है इसलिए पुराने सौंझिया द्वारा ही अपना पुराना हिसाब-किताब अक्ति के दिन से नये सिरे से कर कार्य प्रारंभ किया जाता है। मालिक द्वार चोंगी-माखुर अर्थात बीड़ी देने की परम्परा है। सौंझिया ने बीड़ी ले लिया तो इसका आशय यह हुआ कि सौंझिया पुन: कार्य करने के लिए तैयार है। चूंकि छत्तीसगढ़ का कृषि मजदूर बड़ी ईमानदारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है इसलिए नौकर बदलने की परम्परा कम दिखाई पड़ती है। ईमान सौंझिया के जीवन का गहना है। उसी प्रकार से उसके प्रति प्रेम, दया व सहानुभूति मालिक का आभुषण है। सौंझिया अपने मालिक के सुख-दुख का साथी बन जाता है। पूरे जीवन भर स्वामीभक्ति का परिचय देता है, ऐसे कई उदाहरण गांव में देखने को मिलते हैं। किन्तु यह भी कटु सत्य है कि ये आजीवन दीन-हीन बने रहते हैं तथा गरीबी में ही जीवन बसर करते हैं।

पुतरी पुतरा बिहाव

छत्तीसगढ़ में अक्ति के दिन पुतरा पुतरी बिहाव (मिट्टी से बने गुड्डे गुड़ियों का ब्याह) सम्पन्न होता है। हालांकि बच्चे इसे खेल के रुप में खेलते हैं लेकिन पुतरी पुतरा बिहाव में जो आनंद मंगल और उत्साह दिखाई पड़ता है उसमें गाँव की सहभागिता होती है। यह केवल बच्चों का गुड्डे गुड़ियों का खेल ही नहीं अपितु यह लोक परम्पराओं का बोधक है। कुम्हार के कुशल हाथों से बने पुतरी पुतरा, दर्जी घर की कतरनों से बने कपड़े, छिंद की पत्तियों व सनपना (रंग बिरंगी पन्नी) से बने मऊर सबमें लोक का ही प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। विवाह गीतों की स्वर लहरी, गड़वा बाजा की गमक वातावरण को लोक की अनमोल गंध से भर देती है। गड़वा बाजा नहीं तो बच्चों द्वारा टीन कनस्तर या सूपा को बाजा की तरह बजाने का अभिनय बड़ा हृदयग्राही और मनोरंजक होता है। पुतरी पुतरा बिहाव में मंगनी, चुलमाटी, तेलचग्घी, लंहडोरी, बारात स्वागत, भांवर, टिकावन व विदाई के सारे नेग एक ही दिन में सम्पन्न होते हैं। लोक का यह अलौकिक पक्ष गाँव में ही देखने को मिलता है।

समरसता और सहकार का प्रतीक

पुतरी पुतरा का बिहाव गाँव में समरसता और सहकार का प्रतीक है। इस दिन गाँव के सारे लोग जाति और धर्म को भूलकर पुतरी पुतरा का विवाह सम्पन्न करते हैं। गाँव के दो अलग-अलग घरों में पुतरी और पुतरा के लिए आम व गुलर की डाल से मंडप बनाये जाते हैं। मड़वा गड़ाया जाता है। यथा शक्ति सब टिकावन टिकते हैं। परस्पर सहयोग से राशि एकत्र कर खर्च की व्यवस्था की जाती है। पंगत दिया जाता है, लाड़ू परोसे जाते हैं। कोई छोटा न कोई बड़ा, कोई मालिक न कोई नौकर, सब एक बराबर। यही लोक जीवन की शक्ति, उसकी ऊर्जा और उसकी शास्वतता का पुख्ता प्रमाण है।

युवामन और मनोरंजन

गंडई अंचल के मरार जाति बाहुल्य गाँव में अक्ति का अलग ही आनंद दृष्टिगोचर होता है। पुतरी पुतरा के बिहाव में छोटे-छोटे बच्चों और प्रौढों के साथ ही युवामन भी जुड़ा रहता है। विवाह सम्पन्न होने के पश्चात पुतरी पुतरा विसर्जन के लिए लड़कियाँ गाँव के बाहर परसाझाऊ (पलाश की झाड़ियाँ) की ओर जाती हैं। तब लड़कों का झुण्ड तलवारनुमा लकड़ी लेकर परसा की डालियों को प्रतीकात्मक रुप से काटते जाते हैं। ऊपर से लड़कियों के झुण्ड पर फ़ुड़हर (आक) फ़ल को तोड़कर उन पर वार करते हैं। लड़कियों का प्रयास होता है कि वे सुरक्षित परसाझाऊ में पुतरी पुतरा (जोकि कपड़े के बने होते हैं) को विसर्जित करें। दूसरी ओर लड़कों की कोशिश होती है कि कोई भी परसाझाऊ अछूता न रहे, उनमें प्रतियोगिता सी होती है। लड़कियाँ लड़कों से कम नहीं, अंतत: वे लड़कों को छकाकर अपने उद्देश्य में सफ़ल हो जाती हैं। इस बीच युवामन हँसी ठिठोली में खोया रहता है। देखने वालों का मनोरंजन होता है, सारे वातावरण में उत्साह, आनंद एवं मनोरंजन की झलक मिलती है।

अक्ति की लोक मान्यता

कोई भी लोक पर्व क्यों न हो, लोक में मनाये जाने के पीछे उसकी कोई न कोई लोक मान्यता अवश्य होती है। अक्ति लोक पर्व की भी अपनी लोक मान्यता है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में रतनपुर राज्य में नि:संतान राजा और रानी रहते थे। उनके पास संतान सुख को छोड़कर संसार के सारे सुख थे। संतानहीनता के कारण वे दुखी रहते थे। राजदरबार सेवकों से भरा था पर हँसी खुशी नहीं थी। एक सेवक था बइठमाल, बड़ा अलाल। एक दिन बइठमाल समय पर राजदरबार की सफ़ाई करना भूल गया। राज उस पर नाराज हो गये। उसे चले जाने के लिए कहा। बइठमाल जाने लगा तो रानी ने उसकी दीनदशा देखी, रानी दयालु थी, उसने उसकी गलती को अपने ऊपर ले लिया। इससे बइठमाल और भी लज्जित हुआ, वह राजदरबार छोड़कर चला गया। अक्ति का दिन करीब आया, राजा ने सारे सेवकों को बुलाकर कहा, अब तुम्हारे काम के दिन पूरे हो गये हैं इसलिए तुम्हें मेरे यहाँ काम करना हो तो चोंगी माखुर झोंक लेना। नहीं तो तुम्हें जहाँ काम करना हो, जा सकते हो। राजा का फ़ैसला सुनकर सारे सेवक आश्चर्य से भर गये, दुखी होकर उन्होंने चोंगी माखुर स्वीकार नहीं किया और अपने-अपने घर चले गये।

इधर एक ही दिन में सारा राजदरबार श्मशान की तरह लगने लगा, चहल पहल खत्म हो गई। संतानहीन रानी की आँखों से आँसू की बूंदे टपकने लगी। राजा भी दुखी, आखिर वे अपनी पीड़ा किससे कहें। प्रजा उन्हें प्रिय थी, प्रजा को उन्होंने अपनी संतान के समान प्यार और दुलार दिया था पर राजा अपने ही निर्णय के कारण सारे सेवक और प्रजा से दूर होकर अपने आप को नि:सहाय पा रहे थे। रानी ने राजा से विचार विमर्श किया और कहा कि हम नि:संतान हैं क्यों न हम गुड्डे गुड़ियों का ब्याह रचाएं। रानी ने अपनी प्रजा और सेवकों को पुतरी पुतरा के बिहाव का न्यौता भेज दिया। सारे सेवक उपस्थित हो गये, सारी प्रजा मुग्ध हो गई। पुतरी पुतरा का बिहाव धूमधाम से सम्पन्न हुआ। कुछ समय पश्चात राजा-रानी को संतान की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि तभी से यहाँ पुतरी पुतरा के बिहाव की परम्परा प्रचलित हुई।

संतान प्राप्ति की कामना

ग्राम जेवड़न कला जिला कबीरधाम के वरिष्ठ कलाकार और ग्राम कोटवार श्री जीवन गंधर्व ने बताया कि उनके गाँव में भी पुतरी पुतरा का बिहाव बड़े उत्साह के साथ सम्पन्न होता है। ऐसी बहुएं जिनकी शादी हुए दस बारह साल हो गये थे और नि:संतान थी, उन्होंने पुतरी पुतरा को अपनी संतान मानकर उनका विवाह रचाया तो उन्हें संतान सुख की प्राप्ति हुई। ऐसा सुखद संयोग यहाँ कई परिवारों के साथ जुड़ा है। आज भी कवर्धा अंचल में यह लोक मान्यता प्रचलित है।

देव लग्न एवं करसा विवाह

अक्ति को देव लग्न मानकर विवाह कार्य के लिए उत्तम मुहुर्त माना जाता है, ब्राह्मण के परामर्श या पंचाग देखे बिना ही अक्ति को विवाह के लिए श्रेष्ठ माना गया है। इसलिए छत्तीसगढ़ में अक्ति के दिन अधिकतर विवाह सम्पन्न होते हैं। अक्ति और पुतरा पुतरी के विवाह प्रसंग पर ग्राम टकरीपारा गंडई की लगभग चालिस साल पहले की एक घटना याद आती है। जब अक्ति के दिन एक अर्ध विक्षिप्त भागिया नामक युवक का विवाह करसा के साथ किया गया था। भागिया बालाघाट जिले से आया था, गाँव के कार्यों में सहयोग करता, किसी की गाय चराता तो किसी की भैंस। मजदूरी केवल भरपेट खाना और पुराने कपड़े। दिमाग सनक जाता तो जिसके घर खाता उसे ही गाली देता। फ़िर भी वह गाँव भर का चहेता था। तब समलिया दास मानिकपुरी की दूसरी पत्नी डेरहीन बाई बरसों से नि:संतान थी। भागिया के न बाप का पता था न माँ का, न घर का पता, न गाँव का। तब भला भागिया को कोई अपनी लड़की क्यों देता। भागिया कंवरबोड़का (कुंवारा न रहे) इसलिए करसा के साथ अक्ति के दिन उसकी शादी की गई थी। विषम परिस्थियों में करसा या कटार के साथ यदा कदा भांवरे पड़ती हैं। करसा के साथ भागिया की भांवरे पड़ी तब समलिया दास और डेरहीन बाई ने उसके माता पिता के रुप में दायित्व का निर्वहन किया था। इस विवाह में गाँव भर के लोगों ने सहभागिता की थी। सुखद संयोग देखिए कि साल डेढ साल बाद डेरहीन बाई की कोख हरी हो गई और उसने स्वस्थ लड़की को जन्म दिया। यह लोक का अपना विश्वास है और उसकी अपनी मान्यता। कर भला, हो भला। जो आज भी कमोबेश लोक में प्रचलित है।

लोक का विज्ञान और वर्षा परीक्षण

लोक का ज्ञान केवल कला, संस्कृति, साहित्य एवं समाज तक ही सीमित नहीं है बल्कि मौसम और विज्ञान के संबंध में भी उसकी अपनी धारणाएं हैं, अपने विचार हैं। फ़िर घाघ भड्डरी कहावतें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं जिसमें लोक वृहद अनुभव समाया हुआ है। ग्रामीण जन आज भी अपने इन्हीं ज्ञान व अनुभवों के आधार पर मौसम की भविष्यवाणी करते हैं जो सच होती हैं जैसे सावन माह में पूर्व दिशा और भादो में पश्चिम दिशा से हवाएं चलने पर दुष्काल आशंका की जाती है। यह लोक का विज्ञान है, अक्ति के दिन वर्षा परीक्षण के लिए इस लोक विज्ञान का सहारा लिया जाता है। इस दिन धान की कोठी के नीचे चारों दिशाओं में मिट्ठी के ढेले रख कर उसके ऊपर पानी भरा कलशा रखकर उसे परई से ढक दिया जाता है। शाम होने पर उसका अवलोकन किया जाता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि जिस दिशा का ढेला सूखा रह जाता है, उस दिशा में अकाल पड़ेगा और जिस दिशा के ढेले गीले होते हैं उस दिशा में भरपूर बारिश होगी, ऐसी मान्यता है। अक्ति के दिन होने वाली वर्षा को शुभ एवं भविष्य में अच्छी वर्षा होने का संकेत माना जाता है। लोक विज्ञान की प्रमाणिकता समय पर सिद्ध होती है।

अक्ति लोक मानस के आचार विचार में बसा है, उसके क्रिया व्यापार और लोक संसार में बसा है। यह लोक जीवन को सदैव प्रभावित करता रहा है। लोक की आस्था और उसके विश्वास का साक्षी भी है। अक्ति पर्व लोक जीवन में जीवन रस का संचार करता है। अत: यह उक्ति लोक जीवन की शक्ति लोक पर्व अक्ति सभी दृष्टिकोणों से सार्थक प्रतीत होती है।

आलेख

डॉ. पीसी लाल यादव
‘साहित्य कुटीर’ गंडई पंड़रिया जिला राजनांदगांव(छ.ग.) मो. नं. 9424113122

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