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आराध्या भक्त शिरोमणी माता कर्मा

भक्त माता कर्मा जयंती चैत्र मास कृष्ण पक्ष एकादशी के दिन मनाई जाती है जिसे पापमोचनी एकादशी भी कहा जाता है । छत्तीसगढ़ में इस परंपरा की शुरुआत साहू समाज द्वारा सन 1974 में रायपुर से की गई थी । बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के किसी सामाजिक पत्रिका में भक्त माता कर्मा जी जीवनी प्रकाशित हुई थी । उस जीवनी को परिमार्जित कर नए कलेवर में प्रस्तुत करने का कार्य भिलाई स्पात संयंत्र के जनसंपर्क अधिकारी, भाषाविज्ञानी, साहित्यकार स्व डॉ मनराखन लाल साहू को दायित्व सौंपा गया था । स्व डॉ साहब ने अपनी बौद्धिक क्षमता अनुसार कहानी को परिमार्जित कर साहू समाज के विभिन्न मंचों में लोक भाषा में प्रचार-प्रसार किया।

जानकार लोगों का मत है कि भक्त माता कर्मा की कहानी के कथानक का स्रोत 17 वीं सदी के संत नाभाजी कृत “भक्त माल” ही है, जिसमें कर्मा बाई नामक कृष्ण भक्त महिला का संक्षेप में चित्रण है । भक्त माल की कर्मा बाई का जाति-वंश का कोई विवरण नहीं है लेकिन वह श्रीकृष्ण की मीरा बाई की तरह बावरी थी । कर्मा बाई कृष्ण भक्ति में सामान्य प्रचलित आचरण नियमों का अनदेखी करते हुए नित्य प्रातः बिना स्नान किये खिचड़ी बनाकर भोग लगाती थी । एक दिन एक साधु नें उसे बिना स्नान शुद्धि के भोग लगाते हुए देखकर टोका और स्नान उपरांत ही खिचड़ी बनाकर भोग लगाने उपदेश किया। भक्त कर्मा बाई दूसरे दिन स्नान करने उपरांत खिचड़ी बनाने लगती है, इस कार्य में हुए विलम्ब से यह सोंचकर व्यथित हो जाती है कि उसके बाल-गोपाल प्रातः से भूखे होंगे । खिचड़ी बन जाने के बाद वह व्यथित मन से बाल-गोपाल का आव्हान करती है, श्रीकृष्ण आकार खिचड़ी ग्रहण करते हैं । खिचड़ी ग्रहण उपरांत श्रीकृष्ण बिना मुंह धोये ही प्रस्थान कर जाते हैं । वह साधु श्रीकृष्ण को मुंह में खिचड़ी चिपके हुए झूठे मुंह जाते देखकर दुखी होता है । साधु अपने उपदेश पर पश्चाताप करते हुए कर्मा बाई को पूर्ववत प्रातःकाल भोग लगाने कहता है ।

भक्तमाल की कर्मा बाई को उत्तर भारत का जाट समुदाय अपनी पूर्वज मानता है और कर्मा बाई की इसी कहानी पर एक हिंदी फिल्म भी बन चूकी है । भक्तमाल के इस कहानी में काल गणना और उसका निर्धारण नहीं है।

छत्तीसगढ़ में साहू समाज के अलावा महानदी के तट पर राजिम-आरंग क्षेत्र में बसे सारथी समाज के लोग भी भक्त कर्मा माता को अपनी कुलदेवी स्वीकार कर भाद्रपद माह में 11 दिवसीय “कर्मा महोत्सव” का आयोजन करता है । सारथी समाज दावा करता है कि यह आयोजन पीढ़ियों से उनके पूर्वज करते आ रहे हैं । सारथी समाज में प्रचलित कहानी के अनुसार भक्त कर्मा दल्ली-राजहरा क्षेत्र से उनके बीच राजिम आई थी और उनके आशीर्वाद से समाज को आध्यात्मिक लाभ हुआ था । वे नहीं जानते हैं कि कर्मा बाई की जाति-वंश क्या था । छत्तीसगढ़ में विगत 45 वर्षों में भक्त कर्मा माता की जयंती विस्तारित होकर कस्बों और गांवों तक पहुंच गई है । इस दिन साहू समाज द्वारा शोभायात्रा, यज्ञ, सभा-सम्मलेन के साथ-साथ सामूहिक विवाह का आयोजन किया जाता है । यदि इस पर्व के विस्तार की गणना करें तो छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक जनभागीदारी वाला जयंती बन चुका है ।

छत्तीसगढ़ के कुछ जनजातीय समूहों में भी कर्मा उत्सव और करमसेनी त्यौहार मनाने की परंपरा है । साहू समाज द्वारा मनाये जाने वाले भक्त माता कर्मा जयंती पर मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व अर्जुन सिंह जी ने सन 1984 में ऐच्छिक अवकाश स्वीकृत किया था जो छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण उपरांत प्रभावशील है ।

छत्तीसगढ़ में भक्त कर्मा माता की कहानी को साहित्यकार समय-समय पर संशोधित, परिमार्जित करते रहे हैं । वर्तमान में प्रचलित कहानी इस प्रकार है –

दसवीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के झांसी नगर में सुप्रसिद्ध तेल व्यापारी रामशाह अपनी पत्नी कमलाबाई के साथ रहते थे। धार्मिक, निष्ठावान, दयालु, मिलनसार, परोपकारी और सहयोगी स्वभाव के कारण वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। नित्य प्रति ईश्वर की आराधना, पूरे लगन के साथ अपने व्यवसाय में ध्यान देना एवं जरूरतमंदों की सहायता के लिए सदैव तैयार रहना, यही उसकी दिनचर्या थी। विवाह के कई वर्षों पश्चात भी उसके घर का आंगन सुना था। श्रद्धा भाव से दोनों ने एकादशी व्रत का संकल्प लिया और प्रतिदिन बेतवा नदी में प्रातः स्नान करके साधु-संतों की सेवा करते हुए दिन की शुरुआत करते थे। भगवान श्री कृष्ण की पूजा के पश्चात ही अन्य कार्य करते थे। उनके नित्य सेवा भाव से बेतवा नदी के किनारे समाधिस्थ एक साधु ने प्रसन्न होकर उन्हें सुयोग्य कन्या का वरदान दिया। श्रद्धा, विश्वास, भजन-पूजन, सुकर्म और सेवा की ही परिणीति से उन्हें एक सुंदर कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। चैत्र कृष्ण पक्ष पापमोचनी एकादशी संवत 1073 ( सन 1016) को जन्मी कन्या कर्मा अपने माता पिता के संस्कार के प्रभाव से धार्मिक कार्यों में हाथ बटाना, कथा श्रवण करने में बचपन से ही रूचि लेने लगी। उनके मन में भगवान श्री कृष्ण के प्रति अटूट श्रद्धा भाव उत्पन्न हो गई और वह अपने हर कार्य को भगवान श्री कृष्ण के प्रति समर्पण भाव से करती।

जब माता कर्मा 10 वर्ष की थी। वह अपनी सहेलियों के साथ स्नान करने तालाब गई। सहसा उनकी एक सहेली तालाब में डूबने लगी तब माता कर्मा ने अपने साहस का परिचय देते हुए अपनी सहेली को गहरे पानी से बाहर निकाना। वहां पर अनेक लोग एकत्र हो गए और उस बच्ची के पेट से पानी निकालने लगे परंतु उनको होश नहीं आया। तभी माता कर्मा अपनी सहेली को अपनी गोद में लिटा कर आंख बंद करके भगवान श्री कृष्ण को याद करने लगी। श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान से विनती करती रही। लगभग 5 घंटे पश्चात उनकी सहेली को होश आया। वहां उपस्थित लोगों ने माता कर्मा की प्रशंसा करते हुए उनकी सराहना किये। यह बात पूरे मोहल्ले और गांव में फैल गई और माता कर्मा कृष्ण के अनन्य भक्त के रूप में पहचाने जाने लगी। ऐसी ही एक अन्य घटना यह है कि एक बार उनकी सहेली नंदिनी जिनके माता-पिता दूध बेचने का व्यवसाय करते थे, वे किसी कार्यवश बाहर गए और नंदनी को उनकी सहेली कर्मा के संरक्षण में छोड़ कर गए। अगले दिन दूध बेचने का दायित्व उनकी सहेली नंदिनी पर था। नंदनी जैसे ही दूध बेचने के लिए दूध की मटकी लेकर निकलने वाली थी तभी माता कर्मा ने अपने घर में स्थित नीम वृक्ष के पतली टहनियों को तोड़ कर उसकी एक गुड़ी बनाई और अपनी सहेली के सर पर रख दिया। उस दिन उसकी सहेली को उस मटकी के दूध से बहुत अधिक कमाई हुई। इस प्रकार बाल सुलभ लीला, भगवत भक्ति, दीन-दुखियों की सेवा करते माता कर्मा का बचपन और किशोरावस्था बीता।

युवा अवस्था में माता कर्मा का विवाह नरवरगढ़ के एक संपन्न घराने के व्यापारी के पुत्र चतुर्भुज शाह से हुआ। पति अपने व्यापार के सिलसिले में व्यस्त रहते थे। उसने अपनी पत्नी कर्मा के कृष्ण आराधना में कोई व्यवधान उत्पन्न होने नहीं दिया। चतुर्भुज शाह का व्यापार दूर-दूर तक फैला हुआ था। दूरस्थ क्षेत्रों के व्यापारियों का भी उनके घर आना-जाना लगा रहता था। चतुर्भुज शाह ने सर्वजन हितार्थ जगह जगह धर्मशाला, सराय, कुएं, अस्पताल, सड़क और पुलों के निर्माण किया था। चतुर्भुज शाह के इन्हीं गुणों के कारण उनके परिवार की ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी चारों ओर फैलने लगी। जिससे कुछ व्यापारी उनसे जलने लगे और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में स्वयं को अक्षम जानकर चतुर्भुज शाह की प्रतिष्ठा को धूमिल करने, उन्हें किसी तरह से गिराने का षड्यंत्र करने लगे।

दूर्योग से उन्हीं दिनों नरवर राजवंश के कीर्तिराज-सुमित्र के हाथी को असाध्य खुजली रोग हो गया। वैद्य सभी प्रकार की इलाज करके थक गए परंतु उनके प्रिय हाथी की खुजली ठीक न हो सका। तभी षड्यंत्रकारी व्यापारियों को मौका मिला और उन्होंने राजा के कान इस प्रकार भरे कि नरवर गढ़ के जितने भी तैलिक परिवार हैं वे अपने तेल से मोतिया ताल के बड़े कुंड को भरें और उसी कुंड के तेल में हाथी को स्नान कराने से खुजली रोग ठीक होगा। व्यापारियों ने राज ज्योतिषी को भी षड्यंत्र में शामिल कर लिया। जिससे राजा ने यह अविवेकपूर्ण आदेश दे दिया कि समस्त तैलिक परिवार अपने तेल को ना बेचकर कुंड को पूरा भरें । कई दिन बीत जाने पर भी कुंड है भरने का नाम ही नहीं ले रहा था। नरवरगढ़ के तैलिक परिवारों की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई। अब वे इस संकट से उबरे कैसे? सभी को एकमात्र विकल्प मां कर्मा की कृष्ण भक्ति में दिखा । इसीलिए सभी तैलिक परिवार चतुर्भुज शाह के घर पहुंचे और माता कर्मा से अनुनय-विनय किए। माता कर्मा ने राज आज्ञा के प्रति रोष प्रकट करते हुए उपस्थित तैलिक समुदाय को विश्वास दिलाया कि प्रभु श्री कृष्ण की कृपा से कोई ना कोई रास्ता जरूर मिलेगा। अगले दिन ईश्वरीय प्रेरणा से माता ने तेल का पात्र लेकर उस कुंड की ओर प्रस्थान किया। माता कर्मा ने जैसे ही पात्र से तेल को कुंड में डाला तो कुंड तेल से लबालब भर गया। तैलिक परिवारों ने माता कर्मा की जय जयकार किया ।

इस घटना के बाद माता ने संकल्प लिया कि वे ऐसे अन्यायी शासक जो अपने स्वार्थ के लिए प्रजा को पीड़ित और शोषित करते हैं, का पूर्णरूपेण बहिष्कार करेंगे। नरवरगढ़ के समस्त तैलिक परिवार चतुर्भुज शाह के नेतृत्व में राजस्थान की ओर विस्थापन किए और मेहनत लगन एवं सहकार से पुनः धन वैभव अर्जित किए। इसी बीच माता कर्मा ने अपने प्रथम पुत्र को जन्म दिया।

अब माता कर्मा के ऊपर ईश्वर भक्ति के अलावा समाज सेवा और अपने पुत्र के लालन-पालन की भी जिम्मेदारी आ गई। कर्मा अपनी सारी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को बखूबी निर्वहन करती। इस प्रकार सुख पूर्वक दांपत्य जीवन व्यतीत होने लगे। परंतु भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। विधाता के लेख को तो कोई टाल नहीं सकता। चतुर्भुज शाह को एक बीमारी ने घेर लिया और उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। पति के शोक में व्याकुल माता कर्मा ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया परंतु उन्हें ईश्वरादेश हुआ कि कर्मा तुम अभी गर्भवती हो इसलिये अपने गर्भस्थ शिशु की रक्षा करो। तुम्हें अभी लोकहित के कार्य करने हैं। धैर्य रखो मैं तुम्हें दर्शन दूंगा। भगवान के आदेश को शिरोधार्य कर प्रभु दर्शन की आशा में दिन गुजरने लगे। अपने दूसरे पुत्र को जन्म देने के बाद माता कर्मा का पूरा समय व्यापारिक, समाजिक जिम्मेदारी के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा व श्री कृष्ण भक्ति में गुजरने लगी। समय धीरे-धीरे बीतता गया। अब उनका बड़ा पुत्र वयस्क हो चुका था और अपने पैतृक व्यवसाय को बखूबी संभाल रहा था। माता ने एक सुयोग्य कन्या ढूंढ कर उनका विवाह किया और व्यवसाय एवं छोटे भाई की जिम्मेदारी उनको सौंप करके मुट्ठी भर चावल और दाल लेकर रात्रि काल में ही जगन्नाथ पुरी की यात्रा पर निकल पड़ी । माता कर्मा दिन-रात चलती रही चलती रही उसे सिर्फ धुन था प्रभु के दर्शन का और वह आगे बढ़ती गई।

बहुत दिनों तक भूखे प्यासे पैदल चलने के पश्चात माता कर्मा नगरी-सिहावा पहुंची। वहां सप्तर्षियों के दर्शन करने के पश्चात मां कर्मा नदी मार्ग से जगन्नाथ जाने का निश्चय करती हैं और करमसेनी वृक्ष के तने की नाव बनाकर नदी मार्ग से आगे बढ़ जाती है। भाद्रपद एकादशी का दिन था, जब वह नदी मार्ग से राजिम पहुंचती है। वहीं नदी तट पर एक सारथी अपने घोड़े को धो रहा था। अचानक उसकी नजर माता कर्मा पर पड़ती है, उसे माता के तपोबल के तेज से देवी के स्वरूप में दिखाई देती है। वह व्यक्ति माता को हाथ जोड़कर प्रणाम करता है और उनसे विनती करता है कि वह नदी के पास ही उसकी कुटिया में पहुंचकर उनके परिवार को आशीर्वाद दें ताकि उसके परिवार एवं कुटुम्ब का जीवन धन्य हो जाए। उस व्यक्ति की प्रार्थना को माता स्वीकार करती है और उसके घर जाने को तैयार हो जाती है। तभी वह व्यक्ति माता को नदी के तट पर ही बैठा कर अपने परिवार के लोगों को सूचना देने बस्ती में पहुंचता है । सारथी के परिजन गाजे बाजे के साथ माता को फूलों की वर्षा करते हुए अपनी बस्ती की ओर ले जाते हैं। वहां उपस्थित उनके समुदाय के समस्त लोग माता के तेज से प्रभावित होते हैं और उनके दर्शन से सबको असीम शांति का अनुभव होता है। सभी लोग माता को अपने-अपने घर ले जाने के लिए प्रार्थना करते हैं। तब कर्मा माता बोलती है कि मैं सभी के घर तो नहीं जा पाऊंगी इसलिए आप सब गांव के किसी एक जगह मेरी सेवा कर सकते हैं। सब लोग मिलकर एक चबूतरा का गोबर से लिपाई करते हैं और वहां सुंदर आसन बिछाकर माता को बैठाते हैं। सभी लोग सेवा सत्कार करके मां को भोजन कराकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। कर्मा माता सभी को आशीर्वाद देते हुए अपनी यात्रा पुनः प्रारंभ करने की बात कहती हैं। गांव के कुछ लोग बोलते हैं कि हे माता अब शाम हो रही है रात्रि में आपका प्रस्थान उचित नहीं है इसलिए आज रात आप हमारे गांव में रुक जाइए और अगले सुबह हम आपको नदी तट पर पहुंचा देंगे। उस समुदाय के लोग माता के आगमन पर खुशी से माता की सेवा में रात्रि जागरण करते हैं और भक्ति भाव से नृत्य और संगीत के माध्यम से माता की सेवा करते हैं। अगली सुबह जब माता की विदाई बेला आती है, तो उनको विदा करते हुए गांव के सभी स्त्री, पुरुष, बुजुर्ग और बच्चे रोने लगते हैं और माता से प्रार्थना करते हैं आप जा तो रही हो मां लेकिन लौटकर फिर आना। हम लोगों को आपकी सेवा करने का पुनः अवसर देना। माता कहती है कि मैं वापस नहीं आ सकुंगी इसलिये तुम सब भाद्रपद एकादशी के दिन करमसेनी वृक्ष की शाखा को लाकर गांव में स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना करना उसी से मेरा आशीर्वाद तुम सबको प्राप्त होगा। इसके पश्चात सभी लोग माता को नम आंखों से विदाई देते हैं। तब से लेकर आज तक राजिम में सारथी समाज के लोग भाद्रपद एकादशी से माता कर्मा महोत्सव मनाते हैं और माता कर्मा की पूजा अर्चना करते हैं।

माता कर्मा महानदी तट पर भगवान राजिमलोचन का दर्शन करके कुलेश्वर महादेव को प्रणाम करते हुए नदी के मार्ग से जगन्नाथपुरी के लिए प्रस्थान करती हैं। इस प्रकार नदी मार्ग से यात्रा करते हुए माता कर्मा एक दिन स्वयं को जगन्नाथ पुरी के समुद्र तट पर पाती हैं। वहां पूछने पर माता कर्मा को पता चलता है कि जगन्नाथधाम यही है। माता कर्मा को जैसे ही पता चला कि यही जगन्नाथपुरी है वह हर्षातिरेक में श्री कृष्ण को पुकारने लगी और मंदिर की राह जाने लगी। मंदिर के पुजारियों ने मलिन चिथड़े वस्त्र पहनी महिला को सीढ़ियों पर चढ़ते देख क्रोधित होकर दरवाजे पर रोक दिया। कर्मा माता ने कहा कि उसे भगवान जगन्नाथ प्रभु ने बुलाया है, उनके दर्शन के लिए आई है। उसे अपने हाथों से खिचड़ी खिलाना चाहती है। मां कर्मा की बातों पर पुजारी हंसने लगे और उन्हें धक्का देकर भगा दिए। माता वहां से लौट गई और समुद्र किनारे जाकर अपने साथ लाये चावल दाल से खिचड़ी पकाकर श्रीकृष्ण को पुकारने लगी। जगन्नाथ प्रभु बाल रूप में आकर उनके हाथों से खिचड़ी खाते और मां कहकर माता कर्मा को पुकारते थे। इस प्रकार माता कर्मा प्रतिदिन खिचड़ी बनाकर भगवान कृष्ण को पुकारती थी और प्रभु बाल रूप में उनके हाथों से प्रसाद ग्रहण करने आते थे। एक दिन जब पुजारियों ने जगन्नाथ प्रभु की पूजा के लिए मंदिर के पट खोले तो जगन्नाथ जी के मुंह में खिचड़ी लगा हुआ था। यह बात वहां के राजा को पता चला तब उन्होंने माता कर्मा को ससम्मान राजभवन में बुलाया। माता ने जगन्नाथ पुरी के मंदिर में अपने आराध्य के दर्शन करते हुए चैत्र शुक्ल एकम संवत 1121 ( सन 1064 ) को अपना जीवन त्यागकर पुण्य आत्मा ज्योति स्वरूप में भगवान कृष्ण के ह्रदय में समाहित हो गई। बताया जाता है कि तब से प्रभु जगन्नाथ को खिचड़ी खिलाने की परंपरा चल रही है।

माता कर्मा ने अपने अटूट समर्पण भाव और अनुपम भक्ति से समस्त संसार को श्रद्धा और विश्वास की शक्ति से परिचय कराया। उन्होंने समस्त मानव समाज को भाई-चारा, समरसता का संदेश दिया। जब जब निश्चल भक्ति और नारी शक्ति का प्रसंग आएगा तब तब माता कर्मा भक्त शिरोमणि एवं नारी शक्ति जागरण के अग्रणी महाविभूति के रूप में सदैव याद किए जाते रहेंगे।

टीप :- माता कर्मा की जन्म एवं निर्वाण की तिथि का कोई प्रमाणिक ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध नहीं है।

आलेख

डॉ घनाराम साहू, रायपुर

युगल किशोर साहू, बागबाहरा

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