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मकर संक्रांति पर्व का महत्व एवं गंगा सागर स्नान दर्शन

सूर्य का मकर राशि में प्रवेश ‘संक्रांति‘ कहलाता है। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है। जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होने लगता है तब दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है। उत्तरायण से दक्षिणायन के समय में ठीक इसके विपरीत होता है।

वैदिक काल में उत्तरायण को ‘देवयान‘ तथा दक्षिणायन को ‘पितृयान‘ कहा जाता था। मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दिये गए द्रव्य को ग्रहण करने के लिए देवतागण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएं शरीर छोड़कर स्वार्गादि लोकों में प्रवेश करती हैं। इसीलिए यह आलोक का पर्व माना गया है।

धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन स्नान, दान, जप, हवन और धार्मिक अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। इस अवसर पर किया गया दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना अधिक मिलता है। इसीलिए लोग गंगादि नदियों में तिल लगाकर सामूहिक रूप से स्नान करके तिल, गुड़, मूंगफली, चांवल आदि का दान करते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को शाल और कंबल दान करने का विशेष महत्व होता है।

विष्णु धर्मसूत्र में कहा गया है कि पितरों की आत्मा की शांति, अपने स्वास्थ्यवर्द्धन और सर्व कल्याण के लिए तिल के छः प्रकार के प्रयोग पुण्यदायक व फलदायक होते हैं-तिल जल स्नान, तिल दान, तिल भोजन, तिल जल अर्पण, तिल आहुति और तिल उबटन मर्दन। कदाचित् यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में इस दिन तिल उबटन के रूप में लगाकर नदियों में स्नान करते हैं, तिल का दान करते हैं, तिलगुजिया, तिल से बने गजक, रेवड़ी और खिचड़ी खाने-खिलाने का रिवाज है।

विभिन्न राज्यों में संक्रांति:-
इलाहाबाद में माघ मास में गंगा-यमुना के रेत में पंडाल बनाकर कल्पवास करते हैं और नित्य गंगा स्नान करके दान आदि करके किला में स्थित अक्षयवट की पूजा करते हैं। प्रलय काल में भी नष्ट न होने वाले अक्षयवट की अत्यंत महिमा होती है। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जलाता है।

इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चांवल और भूने हुए मक्का की आहूति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचैली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेवड़ियां आपस में बांटकर खुशियां मनाते हैं। बहुएं घर घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मनाते हैं। नई बहू और नवजात बच्चों के लिए लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारंपरिक मक्के की रोटी और सरसों की साग का भी लुत्फ उठाया जाता है।

महाराष्ट्र में इस दिन ताल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं:- ‘तिल गूढ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला‘ अर्थात् तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं।

बंगाल में भी इस दिन स्नान करके तिल दान करने की विशेष प्रथा है। असम में बिहु और आंध्र प्रदेश में भोगी नाम से मकर संक्रांति मनाया जाता है। तामिलनाडु में मकर संक्रांति को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पोंगल सामान्यतः तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है।

पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।

बंगाल में भी इस दिन स्नान करके तिल दान करने की विशेष प्रथा है। असम में बिहु और आंध्र प्रदेश में भोगी नाम से मकर संक्रांति मनाया जाता है। तामिलनाडु में मकर संक्रांति को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पोंगल सामान्यतः तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।

पतंग उढ़ाने की विशिष्ट परंपरा:-
मकर संक्रांति को पतंग उड़ाने की विशेष परंपरा है। देशभर में पतंग उड़ाकर मनोरंजन करने का रिवाज है। पतंग उड़ाने की परंपरा का उल्लेख श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने भी किया है। बाल कांड में उल्लेख है- ‘राम इक दिन चंग उड़ाई, इंद्रलोक में पहुंची गई।‘ त्रेतायुग में ऐसे कई प्रसंग हैं जब श्रीराम ने अपने भाईयों और हनुमान के साथ पतंग उड़ाई थी। एक बार तो श्रीराम की पतंग इंद्रलोक में पहुंच गई जिसे देखकर देवराज इंद्र की बहू और जयंत की पत्नी उस पतंग को पकड़ ली। वह सोचने लगी-‘जासु चंग अस सुन्दरताई। सो पुरूष जग में अधिकाई।।‘

मांगलिक कार्यो की शुरूवात:-
पौष मास में देवगण सो जाते हैं और इस मास में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होते। लेकिन माघ मास में मकर संक्रांति के दिन से देवगण जाग जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि इस दिन से मांगलिक कार्य-उपनयन संस्कार, नामकरण, अन्नप्राशन, गृह प्रवेश और विवाह आदि सम्पन्न होने लगते हैं।

सारे तिरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार:-
मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा सागर में भी बड़ा मेला लगता है। इस दिन गंगा सागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीढ़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वर्ष में केवल एक दिन-मकर संक्रांति को यहां लोगों की अपार भीढ़ होती है। इसीलिए कहा जाता है-‘सारे तीरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार।‘

कोलकाता से 135 कि. मी. की दूरी पर सागर द्वीप है। यहां प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर 09 से 15 जनवरी को मेला लगता है। इस मेले में देश-विदेश से लाखों तीर्थ यात्री यहां आते हैं। तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए परिवहन, खाद्य और आवश्यक व्यवस्थाएं पश्चिम बंगाल सरकार सरकारी कर्मचारियों के अलावा स्वयं सेवी संस्थाओं के सहयोग से करती है।

कोलकाता से बस के द्वारा सागर द्वीप तक जाने के दो रास्ते हैं:-

1. कोलकाता से काकद्वीप या हारउड प्वाइंट लाट नं. 8 से लांच द्वारा नदी पार कचुबेरिया होकर। कोलकाता से हारउड प्वाइंट 96 कि. मी. की दूरी पर है। यहां से लांच के द्वारा लगभग 100 कि. मी. की दूरी पार कर कचुबेरिया पहंचकर वहां से बस के द्वारा 30 कि. मी. पर गंगासागर स्थित है। बस स्टैंड से मात्र एक-डेढ़ कि. मी. की दूरी पर मेला स्थल है।

2-कोलकाता से नामखाना होकर लांच द्वारा नदी पार चेमागुड़ी होकर। कोलकाता से 114 कि. मी. की दूरी पर नामाखाना स्थित है। नामखाना जेटीघाट से लांच के द्वारा डेढ़-दो घंटे की यात्रा करके नदी पार चेमागुड़ी पहुंचेंगे। यहां से 06 कि. मी. की पैदल अथवा बस की यात्रा करके गंगासागर पहंचा जा सकता है। बस स्टैंड से मात्र एक-डेढ़ कि. मी. की दूरी पर मेला स्थल है।

उपर्युक्त दोनों स्थानों (काकद्वीप और नामखाना) पर सियालदह स्टेशन से ट्रेन द्वारा डायमण्ड हार्बर जाकर वहां से बस के द्वारा पहुंचा जा सकता है। कोलकाता के प्रिंसेपघाट, धर्मतल्ला और हावड़ा से सरकारी एवं गैर सरकारी बसें छूटती है। बड़ा बाजार के सत्यनारायण पार्क से भी गैर सरकारी बसें हर आधे घंटे में छूटती हैं।

कोलकाता से हारउड प्वाइंट लाट नं. 8 तक सरकारी बसों की नियमित सेवाएं हैं और मेला के अवसर पर विशेष बस सेवा होती है। जबकि गैर सरकारी बसें मेला के अवसर पर विशेष रूप से चलायी जाती हैं। इसी प्रकार नामखाना जाने वाली बसें भी काकद्वीप से होकर जाती हैं और अब दीघा से भी नामखाना तक बसें चलती हैं।

गंगासागर मेले में आने वाले तीर्थ यात्रियों की सुविधाओं को ध्यान में रखकर केवल मेला क्षेत्र में ही नहीं बल्कि कोलकाता महानगर से लेकर विभिन्न स्थानों पर सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं के द्वारा व्यापक स्तर पर व्यवस्था की जाती है। पूरे मेले का दायित्व जिला प्रशासन दक्षिण 24 परगना का है।

पश्चिमी बंगाल सरकार के गृह विभाग के अंतर्गत इस मेले की व्यवस्था हेतु एक स्थायी मेला समिति बनाई जाती है। इस समिति के पदेन सचिव दक्षिण 24 परगना के जिला शासक होते हैं। इस समिति में पी.एच.ई. के चीफ इंजीनियर, पी.डब्लू.डी. के चीफ इंजीनियर, पश्चिमी बंगाल के स्वास्थ्य निदेशक, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, डी.सी.पोर्ट, पश्चिमी बंगाल के ट्रांसपोर्ट सेक्रेटरी, कमाण्डेंट मोबाइल सिविल इमरजेंसी फोर्स, भारत सेवा श्रम संघ और जिला सभापति सदस्य होते हैं।

मेले में क्या करें और क्या न करें:-
0गंगासागर जाने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या कम से कम होनी चाहिए अन्यथा साथियों के बिछुड़ने की संभावना होती है।
0तीर्थयात्रा के समय सामान उतना रखें जितना उठा सकें। किसी अपरचित व्यक्ति के उपर विश्वास न करें। सामानों के लिए अगर कुली की आवश्यकता पड़े तो कुली का बैच नंबर अवश्य नोट कर लेवें। बिना बैच वाले किसी कुली के उपर विश्वास न करें।
0मेले में अथवा यात्रा के दौरान किसी प्रकार की असुविधा होने पर पुलिस, स्वयं सेवकों और सूचना केंद्र से सहायता अवश्य लेवें।
0यात्रा के समय बस, ट्रेन अथवा लांच में चढ़ते और उतरते समय विशेष सावधानी रखें, धक्का मुक्की से बचें।
0खानपान में विशेष सावधानी रखें, बासी, अस्वस्थकर न ही खायें और न ही पीयें। कचरा को कचरा रखने के डिब्बे में ही डालें, गंदगी न फैलायें।
0साफ सुथरे स्थान में ही रूकें, जहां तहां मल-मूत्र त्याग न करें।
0खाने-पीने और रहने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं के द्वारा निःशुल्क व्यवस्था की जाती है।
0स्नान करते समय समान व कपड़ों की देखभाल स्वयं करें, किसी अनजान व्यक्ति के भरोसे न छोड़ें।
0किसी भी प्रकार की असुविधा से बचने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं से संपर्क करें और उनकी सलाह मानें।

बंगाल के सुदूर दक्षिणी छोर पर विश्वविख्यात् सुंदर वन के महत्वपूर्ण भाग के रूप में सागर द्वीप स्थित है। यह द्वीप 30 कि. मी. लंबा और 12 कि. मी. चैड़ा है। यह अत्यंत प्राचीन द्वीप है। इस द्वीप में प्राचीन कपिल मुनि का मंदिर है। नदी के तट पर एक चबुतरे के उपर स्थित मंदिर में सिंदुर राग रंजित कपिल मुनि की मूर्ति स्थित है।

उनके बाये हाथ में गंगा का प्रतीक कमण्डल है और दाये हाथ में मोक्ष के लिए कैवल्य का प्रतीक जपमाला है। मस्तक पर पंचनाग है जो शेषनाग के प्रतीक हैं। महामुनि कपिल के दायीं ओर भगीरथ को गोद में लिए पतित पावनी चतुर्भुजी गंगा विराजमान है और बायी ओर राजा सगर की प्रतिमा है। इसके अलावा वीर बजरंगबली, बन देवी के रूप में विशालक्षी देवी और इंद्र यज्ञ के घोड़े के साथ स्थित हैं।

संक्रांति श्राद्ध-तर्पण:-
राजा भगीरथ ने अपने पितरों का गंगाजल, अक्षत और तिल से श्राद्ध-तर्पण किया था जिससे उनके पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिली थी। तब से मकर संक्रांति स्नान, मकर संक्रांति श्राद्ध-तर्पण और दान आदि की परंपरा प्रचलित है।

मकर संक्रांति का महत्व:-
शास्त्रों के अनुसार दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक और उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, स्नान, दान, श्राद्ध और तर्पण आदि धार्मिक क्रिया का विशेष महत्व होता है। इस दिन ऐसा करने से सौ गुना पुण्य मिलता है। इस दिन शुद्ध घी और कंबल दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कहा भी गया हैः-
माघे मासि महादेव यो दान घृत कंबलम्।
सभुक्तवा सकलान मो गान अंते मोक्ष च विदंति।।

मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा स्नान और दान को अत्यंत शुभकारी और पुण्यदायी माना गया है। इस दिन प्रयागराज और गंगा सागर में स्नान करने को महास्नान कहा गया है। सामान्यतया सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करता है, किंतु कर्क और मकर राशि में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यंत फलदायक है। यह प्रक्रिया छः छः माह के अंतराल में होता है।

भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित होता है। मकर संक्रांति के पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है। इसीलिए यहां रातें बड़ी और दिन छोटा होता है। किंतु मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उक्रारी गोलार्द्ध की ओर आने लगता है जिससे यहां रातें छोटी और दिन बड़ा होने लगता है। इस दिन से गर्मी बढ़ने लगती है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा और रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा।

इसलिए मकर संक्रांति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को ‘अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर‘ होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से जीवों की चेतन एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होती है। इसी मान्यता के कारणलोगों के द्वारा विविध रूपों में सूर्यदेव की आराधना, उपासना और पूजा आदि करके कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है।

सामान्यतया भारतीय पंचांग की समस्त तिथियां चंद्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती है, किंतु मकर संक्रांति को सूर्य की गति से निर्धारित की जाती है। इसी कारण यह पर्व हमेशा 14 जनवरी को ही पड़ता है।

ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनिदेव से मिलने उनके घर जाते हैं। चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अतः इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपने देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति के दिन का ही चयन किया था। इसी दिन गंगा जी भगीरथ के पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम होते समुद्र में जा मिली थी। इसीलिए गंगा सागर में गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है।

मकर संक्रांति के दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक वातावरण में अधिक मात्रा में चैतन्य होता है। साधना करने वाले लोगों को इसका सर्वाधिक लाभ होता है। इस चैतन्य के कारण जीवन में विद्यमान तेज तत्व के बढ़ने में सहायता मिलती है। इस दिन रज, तम की अपेक्षा सात्विकता बढ़ाने एवं उसका लाभ लेने का प्रयत्न करना चाहिए। यह दिन साधना के लिए अनुकूल होता है।

ऐसी मान्यता है कि सूर्यदेव पुत्र शनिदेव और पत्नी छाया के शाप से कोढ़ी हो गये थे लेकिन दूसरे पुत्र यमराज के प्रयत्न से उन्हें कोढ़ से मुक्ति मिली और वरदान भी मिला कि जो कोई सूर्य के चेहरे की पूजा करेगा उसे कोढ़ से मुक्ति मिल जायेगा। बाद में सूर्यदेव के कोप से शनि और पत्नी छाया का वैभव समाप्त हो गया।

कालान्तर में शनिदेव और पत्नी छाया के तिल से समर्यदेव की पूजा करने पर उन्हें पुनः वैभव प्राप्त हुआ। तब सूर्यदेव ने वरदान दिया कि मकर संक्रांति को जो कोई उनकी तिल से पूजा करेगा उसे दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से मुक्ति मिल जायेगा, कष्ट और विपत्ति का नाश हो जावेगा। कदाचित् इसीकारण इस दिन तिल का उपयोग विविध रूपों में किया जाता है।

आलेख

प्रो (डॉ) अश्विनी केसरवानी, चांपा, छत्तीसगढ़


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