रायगढ़ जिले में सारंगढ़ से सोलह किलोमीटर की दूरी पर इस जिले का सबसे बड़ा गाँव कोसीर स्थित है। कोसीर की जनसंख्या लगभग दस हजार की है । गांव में जातिगत दृष्टि से जनजातीय समुदाय, सतनामी, वैष्णव, कहरा, केंवट, मरार, कलार, रावत, चन्द्रनाहू, कुर्मी, धोबी, नाई, लोहार, पनका, सारथी कुछ इक्का-दुक्का मारवाड़ी परिवार, ब्राम्हण, जैन, मुस्लिम वर्ग के लोग भी है। कोसीर गांव में बांधा तालाब है जो 56 एकड में फैला है। यह तालाब कोसीर गाँव की निस्तारी का प्रमुख साधन है।
यहा लगभग 30 तालाब है जिससे सिंचाई होती है। यहां गौटिया शासन रहा है 1969-70 में गौटिया परिवार गोकुल चन्द्रा की छोटी पत्नी सरही दाई सती हुई थी जिनका मंदिर कोसीर में है । कोसीर का साप्ताहिक बाजार शुक्रवार को भरता है। वही गांव में होली-दिपावली पर्व को हर वर्ग मिलकर मनाता है। दशहरा पर्व के दिन भाठागांव में बने गढ में गढविच्छेदन होता। गाजे बाजे के साथ गांव के ग्रामीण इस आयोजन में भाग लेते हैं। यहीं इसी गाँव में कुसलाई दाई (कौशलेश्वरी देवी) का भव्य मंदिर है।
कौशलेश्वरी देवी
छत्तीसगढ़ की शाक्त परम्परा में कोसीर ग्राम की देवी महिषासुरमर्दनी कौशलेश्वरी (कुसलाई दाई) का महत्वपूर्ण स्थान है। जब भी हम यहाँ की शाक्त परम्परा की चर्चा करते हैं तो देवी कौशलेश्वरी के उल्लेख के बिना अधूरी है। कौशलेश्वरी देवी का अपना अलग ही प्रभामंडल है। कोसीर ग्राम लगभग चित्रोत्पला गंगा के तट पर ही स्थित माना जा सकता है क्योंकि कोसीर ग्राम की (खार) सीमा से चित्रोत्पला गंगा महानदी की दूरी लगभग दो किमी है। कोसीर ग्राम की दूरी सारंगंढ से सोलह किमी है और यहाँ के ढुकुलिया तालाब की पार के उपर देवी का मंदिर स्थित है।
मंदिर का इतिहास –
कोसीर ग्राम से प्राप्त पुरावशेषों से ज्ञात होता है कि यह ग्राम प्राचीन काल से ही आबाद रहा है। इस ग्राम का मध्य भाग टीले की तरह उभरा हुआ है। इस टीले के चारों ओर उपस्थित तालाब प्रमाण हैं कि कभी ये इस टीले के चारों तरफ़ खाई के अवशेष हैं। यहां से प्राप्त 11 वीं शताब्दी की पुरा सामग्री से ज्ञात होता है कि यह ग्राम इतिहास में महत्वपूर्ण स्थल रहा है। इसका प्रमाण यहाँ रंगसगरा (रण सागर) तालाब, रनजीता (रण जीता) मैदान है। नाम से ही ज्ञात होता है कि इनका निर्माण रण जीतने के उपलक्ष में कराया गया होगा।
महिषासुरमर्दनी देवी कौशलेश्वरी
यहाँ तालाबों से मिट्टी उत्खनन के समय छोटी बड़ी प्रतिमाएं प्राप्त होते रहती हैं तथा अस्थियों के अवशेष भी प्राप्त होते हैं। इससे तालाब की प्राचीनता ज्ञात होती है। कौशलेश्वरी माता का मंदिर पूर्व में बलुआ पत्थरों से बना था तथा मंदिर में स्थापति देवी विग्रह भी इसी पत्थर से निर्मित है। यह प्रतिमा महिषासुर मर्दनी की है। इस प्रतिमा में देवी महिषासुर का वध कर रही है, देवी का वाहन सिंह उनके चरणों के पास खड़ा है। सम्पूर्ण प्रतिमा में शृंगारिक अलंकरण है। इन्हें त्रिशुल धारण किए हुए प्रदर्शित किया है।
कलात्मकता की दृष्टि से देवी की मूर्ति के समीप ही अव्यवस्थित पत्थर का चौकोर स्तंभ लगभग 10 फिट उॅचा है आसन के समान चार पैर युक्त मढिया, दिवारों के पत्थरों पर बनी पद्म सदृश्य फूलों की आकृतियाँ, मंदिर के दरवाजे के पास कडियों की श्रृंखला के समान नक्काशी प्राचीन काल की वास्तुकलाप्रियता को अभिव्यक्त करती हैं। मंदिर के अवशेष के रूप में नींव आयताकार भारी पत्थरों से निर्मित है। सम्पूर्ण ग्राम में इस प्रकार के पत्थर स्तंभ के टुकडे, खण्डित मूर्तियाँ यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं।
मंदिर में देवी की पूजा
मंदिर में देवी की पूजा-पाठ प्रारंभ से ही गोंड़ जनजाति का बैगा परिवार करते आ रहा है और आज तक उन्ही के द्वारा पूजा की जा रही है। मां कौशलेश्वरी देवी को ग्राम्य देवी कुसलाई दाई के रूप में पूजते है । मंदिर में जो भी चढावा आता है उसे बैगा परिवार रखते है ।
बलि प्रथा
मां के आंगन में कुशलमुडिया देव की सिर कटी मूर्ति है जहां पर भक्त अपनी मन्नत पूरी होने पर बकरा कि बलि देते हैं पहले भैंसा की बलि चढती थी पर वर्तमान में बंद कर दिया गया है । कुंवार और चैत नवरात्रि को नवमी के दिन गांव के नाम से तीन बकरों की बलि चढती है जिसे प्रसाद के रूप में सभी वर्ग ग्रहण करते है ।
देवी की महिमा
ग्रामीण देवी मां के महिमा के बारे में कहते है नवरात्र पर्व पर मां का स्वरूप नौ दिन तक अलग-अलग रूप में दिखाई देता है। बुजुर्ग ग्रामीण कहते हैं कुंवारी कन्या उपवास रह कर पूजा करती हैं तो इच्छित वर की प्राप्ती होती है उपासक सुबह शाम मंदिर पहुच कर पूजा अर्चना करते हैं।
पवित्र ढुकुलिया तालाब
ढुकुलिया तालाब के विषय में किवंदति है कि देवी मां इस तालाब में स्नान करती है इस कारण आज तक इस तालाब में कोई ग्रामीण स्नान नही करते हैं इस तालाब को पवित्र मानतें यह तालाब मंदिर से सटा हुआ है ।
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