भारत के प्राचीन इतिहास में कोसल और दक्षिण कोसल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक महान संतों और महान विभूतियों की जन्मस्थली, कर्म भूमि और तपोभूमि के रूप में भी पहचाना जाता है। कई महान विभूतियों ने यहाँ जन्म तो नहीं लिया, लेकिन अपनी चरण धूलि से और अपने महान विचारों से इस धरती का गौरव बढ़ाया। इस राज्य के सांस्कृतिक इतिहास में शैव, शाक्त, वैष्णव ,बौद्ध और जैन मतों की गौरव गाथाएं भी अमिट अक्षरों में दर्ज हैं।
लेकिन हममें से बहुतों को और नई पीढ़ी में तो शायद किसी को भी नहीं मालूम कि सत्य और अहिंसा के महान सन्देश वाहक और बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान गौतम बुद्ध भी छत्तीसगढ़ आ चुके हैं। सुप्रसिद्ध कवि, लेखक और अध्येता स्वर्गीय हरि ठाकुर के अनुसार तथागत ने तत्कालीन दक्षिण कोसल नरेश विजयस के आमंत्रण पर राजकीय अतिथि के रूप में तीन माह तक किनारे राजधानी श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) में निवास किया था, जबकि प्रदेश के वरिष्ठ पुरातत्वविद और इतिहासकार पद्मश्री अरुण कुमार शर्मा का कहना है कि बुद्ध ने वहाँ चौमासा बिताया था। उनके श्रीपुर प्रवास की अवधि को लेकर वर्तमान युग के विद्वानों में मामूली मत-मतांतर हो सकता है, लेकिन इन दोनों विद्वानों के अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि भगवान बुद्ध यहां आए थे।
निश्चित रूप से उस दौरान उन्होंने सत्य, अहिंसा, दया और करुणा जैसे सर्वश्रेष्ठ मानवीय मूल्यों पर आधारित अपने उपदेशों से इस प्रदेश की जनता को भी मानवता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी थी। वैसे श्रीपुर अथवा सिरपुर में छठवीं-सातवीं शताब्दी के अनेक पुरावशेष प्राप्त हुए हैं और यहां 595 ईस्वी से 653 ईस्वी तक सम्राट महाशिवगुप्त बालार्जुन के 58 वर्षीय शासन का भी उल्लेख मिलता है। पद्मश्री अरुण कुमार शर्मा के अनुसार सिरपुर में सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया था। छत्तीसगढ़ की इस पुरातात्विक नगरी में बुद्ध प्रतिमाओं के साथ अनेक प्राचीन बौद्ध स्मारक भी प्राप्त हुए हैं।
उल्लेखनीय है कि कपिलवस्तु के महाराज शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ ही आगे चलकर तथागत और गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। उनका जन्म कपिलवस्तु के नजदीक लुम्बिनी (वर्तमान नेपाल) में वैसाख पूर्णिमा के दिन ईसा पूर्व 563 में हुआ था। उन्हें भारत के बोध गया में निरंजना नदी के तट पर बोधि वृक्ष यानी पीपल के नीचे 35 वर्ष की उम्र में कठोर तपस्या के बाद ज्ञान प्राप्त हुआ। वह भी वैसाख पूर्णिमा का दिन था। जब 80 वर्ष की आयु में ईसा पूर्व 483 में उनका महापरिनिर्वाण हुआ, तो वह दिन भी वैसाख पूर्णिमा का ही था। इस प्रकार तीन बड़े संयोग उनके जीवन से जुड़े हुए हैं। वह अपने 80 वर्षीय जीवन के किसी कालखंड में छत्तीसगढ़ आए थे। वह यहाँ महानदी के किनारे श्रीपुर में ठहरे थे, जो उन दिनों बौद्ध संस्कृति का भी एक प्रमुख केन्द्र था ।
भगवान बुद्ध की छत्तीसगढ़ यात्रा का विस्तृत वर्णन राज्य के सुप्रसिद्ध कवि और लेखक स्वर्गीय हरि ठाकुर ने अपने महाग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ में किया है। ठाकुर साहब का निधन 3 दिसम्बर 2001को हुआ था। छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक, पौराणिक और राजनीतिक इतिहास पर इस महाग्रंथ का प्रकाशन हरि ठाकुर के मरणोपरांत वर्ष 2003 में हुआ। इसके खण्ड-एक के अध्याय 7 में ‘भगवान बुद्ध की दक्षिण कोसल यात्रा ‘ शीर्षक अपने आलेख में हरि ठाकुर ने तथागत के छत्तीसगढ़ प्रवास पर व्यापक प्रकाश डाला है।
हरि ठाकुर लिखते हैं- इतिहास प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएन सांग 20 जून 639 ईस्वी को छत्तीसगढ़ की राजधानी श्रीपुर आये। वे श्रीपुर में एक माह रहे। उस समय छत्तीसगढ़ पर सम्राट बालार्जुन का राज्य था। श्रीपुर उनकी राजधानी थी। हुएन सांग ने अपने भारत भ्रमण का वृत्तांत एक पुस्तक में लिखा है। टी. वाटर्स ने इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। हुएन सांग ने लिखा है -वह कइलिंकया (कलिंग) से पश्चिम-उत्तर दिशा में वनों-पर्वतों को पार करते हुए 1800 ली चलकर कियावसलो (कोसल )पहुँचा। कोसल राज्य का क्षेत्रफल 6000 ली है। इसकी सीमाएं चारों ओर से जंगलों और पहाड़ों से घिरी हैं। इसकी राजधानी का क्षेत्रफल 40 ली है।
यहाँ का राजा जाति का क्षत्रिय है। वह बुद्ध धर्म का बड़ा सम्मान करता है। उसके गुणों और प्रजा प्रेम की सर्वत्र प्रशंसा होती है। यहाँ सौ संघाराम और दस हजार से कुछ कम ही भिक्षु हैं। वे सब महायान सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। नगर के दक्षिण में थोड़ी दूर पर एक संघाराम है, जिसकी बगल में सम्राट अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप है। इस स्थान पर प्राचीन काल में तथागत भगवान ने अपनी अलौकिक शक्ति का परिचय देकर, एक बड़ी सभा में अपने मत के विरोधियों को परास्त किया था। इसके उपरांत बोधिसत्व नागार्जुन इस संघाराम में निवास करते थे। उस समय के नरेश का नाम साद्वह था। वह नागार्जुन का बड़ा सम्मान करता था। उसने नागार्जुन की सुरक्षा के लिए एक रक्षक नियुक्त कर दिया था।
बोधिसत्व नागार्जुन भी थे श्रीपुर निवासी
हरि ठाकुर आगे लिखते हैं -हुएन सांग के इस वृत्तांत से तीन बातों पर मुख्य रूप से प्रकाश पड़ता है (1) भगवान गौतम बुद्ध श्रीपुर आए थे। उस समय श्रीपुर दक्षिण कोसल की राजधानी थी। दक्षिण कोसल को उस समय सिर्फ कोसल कहा जाता था।
(2) सम्राट अशोक ने श्रीपुर के दक्षिण में एक स्तूप का निर्माण करवाया था।
(3) बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संस्थापक तथा शून्य -दर्शन के प्रवर्तक महान दार्शनिक बोधिसत्व नागार्जुन श्रीपुर के निवासी थे। वे श्रीपुर के एक संघाराम में रहकर बौद्ध -धर्म -दर्शन का प्रचार करते थे। उन्हें सातवाहन राजा का संरक्षण प्राप्त था ,जो उनका बहुत सम्मान करता था।
पहली बार हुएन सांग ने बताया गौतम बुद्ध श्रीपुर आए थे
हरि ठाकुर के अनुसार हुएन सांग ने भारत के अनेक स्थानों की यात्रा की, किन्तु वह उन स्थानों पर अवश्य गया, जहाँ भगवान गौतम बुद्ध के चरण पड़े थे। उन स्थानों पर जाकर उसने जो कुछ अपनी आँखों से देखा अथवा लोगों से सुना, वह सब उसने क्रमबद्ध अपने भ्रमण वृत्तांत में लिख दिया। हुएन सांग ही वह पहला इतिहासकार है, जिसने लिखा है कि भगवान बुद्ध श्रीपुर (सिरपुर )आए थे।
हरि ठाकुर कहते हैं कि भगवान बुद्ध की दक्षिण कोसल की यात्रा के बारे में हुएन सांग ने जो कुछ भी लिखा है, उसकी सत्यता अब एक अन्य स्रोत से भी प्रमाणित होती है। नेपाल में बौद्ध धर्म का एक संस्कृत ग्रंथ प्राप्त हुआ है। राजेन्द्र लाल मित्र ने इस ग्रंथ का सन 1882 में अनुवाद किया। ग्रंथ का नाम है अवदान शतक। श्री मित्र के अनुसार यह अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है। आचार्य नरेन्द्र देव ने भी इस ग्रन्थ को अत्यंत प्राचीन बतलाते हुए लिखा है अवदान शतक हीनयान का ग्रंथ है। अवदान शतक की कई कथाएँ अन्य संग्रहों में और कुछ पाली अपादानो में भी पायी जाती हैं। अवदान शतक की सहायता से अनेक अवदान मालाओं की रचना हुई।
आचार्य नरेन्द्र देव के इस कथन का उल्लेख करते हुए हरि ठाकुर आगे लिखते हैं कि अवदान शतक में भगवान बुद्ध के जीवन से सम्बंधित सौ कथाएँ संकलित हैं। यह ग्रंथ बौद्ध धर्म की प्रारंभिक कृतियों में से है। हरि ठाकुर के अनुसार अवदान शतक की कथाओं का संकलन और सम्पादन नन्दीश्वर आचार्य ने किया था।
उत्तर-दक्षिण कोसल राजाओं में युध्द : भगवान बुद्ध ने की थी मध्यस्थता
अवदान शतक की एक कथा में भगवान गौतम बुद्ध के दक्षिण कोसल की यात्रा का उल्लेख है। कथा इस प्रकार है कि भगवान तथागत जब जेतवन में निवास कर रहे थे तब उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल के राजाओं में युद्ध छिड़ गया। उत्तर कोसल के राजा का नाम प्रसेनजित था। दक्षिण कोसल के राजा का नाम विजयस था। युद्ध काफी लम्बा चला। युद्ध से त्रस्त होकर उत्तर कोसल का राजा प्रसेनजित उदास मुद्रा लेकर भगवान बुद्ध के पास जेतवन गया। प्रसेनजित ने उनसे प्रार्थना की कि वे मध्यस्थता करके शांति समझौता करा दें। भगवान बुद्ध ने उसे वाराणसी में आकर मिलने को कहा। दक्षिण कोसल नरेश विजयस को भी वाराणसी आने की सूचना भेज दी गयी। दोनों राजा वाराणसी पहुँचे।
दक्षिण कोसल में तीन माह रहे गौतम बुद्ध
भगवान बुद्ध ने प्रसेनजित को उपदेश दिया, समझाया। उनके उपदेश का वांछित परिणाम निकला। प्रसेनजित ने पश्चाताप किया और भिक्षु बनकर संघाराम में रहने लगा। वहाँ उसने अर्हत की श्रेणी प्राप्त की। दक्षिण कोसल के राजा विजयस ने भगवान गौतम बुद्ध को अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया। उन्होंने निमंत्रण स्वीकार किया। वे दक्षिण कोसल आए और यहाँ की राजधानी में तीन माह तक रहे। दक्षिण कोसल नरेश ने उन्हें 1000 वस्त्र खण्ड भेंट किये। राजा की प्रार्थना पर भगवान बुद्ध ने उसे परम ज्ञान का उपदेश दिया। भगवान बुद्ध अपने प्रधान शिष्य आंनद से कहते हैं कि दक्षिण कोसल का यह राजा पूर्ण बुद्धत्व को प्राप्त करेगा और विजयस के नाम से प्रसिद्ध होगा। उसके हाथों से कल्याणकारी कार्य सम्पन्न होंगे।
अवदान शतक पहला ग्रंथ, जिसमें छत्तीसगढ़ को कहा गया दक्षिण कोसल
बहरहाल, हरि ठाकुर अवदान शतक की इस कथा के अनुसार तीन प्रमुख निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। वे कहते हैं
(1) उत्तर और दक्षिण कोसल नरेशों के बीच युद्ध में दक्षिण कोसल नरेश विजयस का पलड़ा भारी था। उत्तर कोसल नरेश प्रसेनजित जब पराजय के कगार पर पहुँच गया, तब वह भगवान गौतम बुद्ध की शरण में गया और संधि करवा देने की प्रार्थना की। तथागत ने प्रसेनजित को उपदेश दिया। परिणाम स्वरूप प्रसेनजित ने पश्चाताप किया। स्पष्ट है कि दक्षिण कोसल के विरुद्ध युद्ध की शुरुआत उसी ने की थी।
(2) विजयस ने भगवान बुद्ध को 1000 वस्त्र खण्ड भेंट किए थे। इससे स्पष्ट है कि विजयस एक सम्पन्न राजा था और इस क्षेत्र में वस्त्र उत्पादन उद्योग उन्नत दशा में था। भगवान बुद्ध के साथ उनके प्रधान शिष्य आनन्द तो थे ही, उनके साथ उनके एक हजार शिष्य भी रहे होंगे। अन्यथा उन्हें एक हजार वस्त्र खण्ड भेंट करने की राजा विजयस को क्या आवश्यकता थी?
(3) अवदान शतक वह पहला ग्रंथ है, जिसमें छत्तीसगढ़ को पहली बार दक्षिण कोसल कहा गया है। उसके पहले और बाद के सभी प्राचीन ग्रंथों में इस क्षेत्र को सिर्फ कोसल नाम से ही सम्बोधित किया गया है। उत्तर कोसल को बुद्धकाल में, उसके पहले और बाद में भी उत्तर कोसल ही कहा जाता था। हरि ठाकुर आगे कहते हैं भगवान गौतम बुद्ध और प्रसेनजित ऐतिहासिक पुरुष हैं। अतः विजयस को भी ऐतिहासिक पुरुष स्वीकार किया जाना चाहिए ।
नालंदा जैसा था सिरपुर का विद्या केन्द्र
ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि छत्तीसगढ़ में बौद्ध मत का प्रचार अशोक से भी बहुत पहले हो चुका था। बोधिसत्व नागार्जुन के समय तक श्रीपुर (सिरपुर) बौद्ध धर्म का एक प्रख्यात केन्द्र बन चुका था। हुएन सांग जब श्रीपुर आया, तब वहाँ महायानियों के सौ संघाराम थे और दस हजार भिक्षु विद्या अध्ययन कर रहे थे। इतने बड़े विद्या केन्द्र की तुलना नालंदा से की जा सकती है।
हरि ठाकुर आगे दावे के साथ कहते हैं कि अवदान शतक की प्राचीनता को चुनौती नहीं दी जा सकती। इन कथाओं का संकलन और सम्पादन नन्दीश्वर आचार्य ने किया था। इस कृति में सम्राट अशोक के पूर्व के राजाओं अजातशत्रु, बिम्बसार और प्रसेनजित का उल्लेख तो है, किन्तु अशोक या उसके पश्चात के किसी भी राजा का उल्लेख नहीं है। स्पष्ट है कि अवदान शतक की रचना अशोक के पहले हो चुकी थी। उस समय भगवान गौतम बुद्ध के जीवन से सम्बंधित कथाएँ लोगों की स्मृतियों में ताजा थीं, जिनका संकलन नन्दीश्वर आचार्य ने किया। अतः इन कथाओं में दिए गए ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
इन ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर तथागत भगवान गौतम बुद्ध के छत्तीसगढ़ प्रवास की पुष्टि होती है । राज्य के सांस्कृतिक इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय बौद्ध युग का भी है । बलौदाबाजार भाटापारा जिले के ग्राम डमरू में वर्ष 2013 से 2016 के बीच हुए उत्खनन में पुरातत्वविदों ने बौद्ध स्तूप के साथ कुछ आवासीय संरचनाएं और भगवान बुद्ध के ‘चरण चिन्ह’ उत्खनन में प्राप्त किए। यह गाँव जिला मुख्यालय बलौदाबाजार से लगभग 16 किलोमीटर पर है। इसे डमरूगढ़ भी कहा जाता है।
पुरातत्वविदों के अनुसार पाँचवी शताब्दी में बौद्ध धर्म के हीनयान सम्प्रदाय में भगवान बुद्ध के चरण चिन्हों की पूजा की परम्परा थी। इस सम्प्रदाय के लोग तथागत की प्रतिमा नहीं बनाते थे। पुरातत्वविदों का कहना है कि बिहार के बोधगया में स्थित बुद्ध के मंदिरों में ईसा पूर्व दूसरी सदी से पाँचवी सदी तक पद चिन्हों के निर्माण और पूजन की परम्परा थी। उन्होंने डमरू में प्राप्त चरण चिन्ह के आधार पर संभावना व्यक्त की है कि यह स्थान पहली सदी से पाँचवी सदी के बीच हीनयान सम्प्रदाय का एक प्रमुख केन्द्र रहा होगा।
नयी पीढ़ी के इतिहासकार और पुरातत्वविद चाहें तो इस विषय में आगे और भी गहन अध्ययन करके नये तथ्य सामने ला सकते हैं।
आलेख :
बहुत ज्ञानवर्धक आलेख..
स्वराज भैया, बधाई। ज्ञानवर्धक आलेख।