Home / इतिहास / पहाड़ी कोरवाओं की आराध्या माता खुड़िया रानी एवं दीवान हर्राडीपा का दशहरा

पहाड़ी कोरवाओं की आराध्या माता खुड़िया रानी एवं दीवान हर्राडीपा का दशहरा

दक्षिण कोसल में शाक्त परम्परा प्राचीन काल से ही विद्यमान है, पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त सप्त मातृकाओं, योगिनियों तथा महिषासुर मर्दनी की प्रतिमाएं इसका पुष्ट प्रमाण हैं। अगर हम सरगुजा से लेकर बस्तर तक दृष्टिपात करते हैं तो हमें प्रत्येक स्थान पर देवी सत्ता की दिखाई देती है। इन्हीं में एक वनवासिनी देवी हैं खुड़िया रानी। ये पहाड़ी कोरवा जनजाति की कुल देवी हैं।

सघन वन में पहाड़ियों की बीच छिछली पाठ के पठारी भागों से निकलकर यहां डोड़की नदी जगह जगह कई जलप्रपात बनाती है। इसकी एक जलधारा गुफा में बहती है बस यही गुफ़ा माता खुड़िया रानी का ठिकाना है। यह  नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित वनप्रदेश, दूर-दूर तक फैली पहाड़ियां,और साल के वृक्षों से घिरे जशपुर जिले के बगीचा विकास खंड के अंतर्गत यह स्थान स्वर्ग से कम नहीं है।

वैसे भी जशपुर जिला धरती का स्वर्ग है, जिसे कुदरत ने अप्रतिम सुंदरता का अनमोल उपहार दिया है। जो अलौकिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का केंद्र है। खुड़िया रानी गुफा जिला मुख्यालय से 135 किलो मीटर दूर और समुद्रतल से 2,525 फिट ऊंचाई पर पहाड़ियों के बीच स्थित है।

आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, महत्व का दर्शनीय स्थल जो लोगों की आस्था का केंद्र है गुफा में माँ खुड़िया रानी का मंदिर। अलौकिक रहस्यों से भरी इस गुफा के मुख्य द्वार पर कई देवी-देवताओं की प्रतिमायें अवस्थित हैं। यहां भगवान शिव, नंदी, माँ काली, माँ शिरंगी, भैरव बाबा की प्रतिमाएं हैं। गुफा के आंतरिक भाग में माँ खुड़िया रानी की प्रतिमा अवस्थित है।

गुफा के पत्थरों पर शिलालेख एवं बाह्य भाग पर प्राकृतिक रूप से उत्कीर्ण चित्रकारी में सभ्यता व संस्कृति की अनोखी झलक दिखाई देती है।जहां मूर्तिकला व वास्तुकला की स्प्ष्ट छाप है। गुफा के अंदर ही झरनों की शीतल स्वच्छ जलधारा बहती है। यहां का प्राकृतिक दृश्य अलौकिक और निराला है जो जम्मू कश्मीर स्थित माँ वैष्णव देवी का पर्याय और प्राचीनतम धरोहरों में से एक है। गुफा के आंतरिक भाग में पहुंचना बहुत कठिन है, क्योंकि अंधेरे के कारण कुछ दिखाई नहीं देता 100 मीटर लंबी गुफा अपने में अनूठी है।

गुफा के ठीक दायीं ओर एक प्राकृतिक गुफा भी मौजूद है, जिसकी खोज यहां के भगवान भगत नाम के सेवक ने की थी इसलिए इसका नाम भगवान गुफा के नाम से किया गया। श्रद्धा पाट और छिछली पाट के पठारी भागों से निकल कर यहां डोंडकी नदी जगह-जगह कई जलप्रपात बनाती है। गुफा के बाह्य भाग में पेड़ों पर मधुमक्खियों को माँ के सैनिकों के रूप में जाना जाता है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार प्राचीन समय में गुफा के अंदर ही पूजा-अर्चना होती थी। सबसे पहले खुड़िया का दीवान ही पूजा करता था। एक दिन बैगाओं के साथ पूजा करने के बाद वापस जाते समय बलि चढ़ाने का हथियार मंदिर के भीतर ही भूल  गया, जब उसे याद आया तो तुरंत उसे लेने गया, जब वहां पहुंचा तो नौ माताएँ बैठकर भोजन कर रहीं थीं।

बैगा को देखकर वे क्रोधित हो गईं और बोलीं कि तुम्हें हमपर विश्वास नहीं जो तुम अपना सामान लेने तुरन्त आ गए, जाओ अब से तुम मेरी पूजा दरवाजा के बाहर से ही करना। उस दिन से माता रानी का द्वार हमेशा के लिए बन्द हो गया। बैगा बाहर से ही पूजा-अर्चना करता है।

नवरात्रि के प्रारम्भ से दशहरा तक सामाजिक परम्पराओं के साथ जशपुर जिले के बगीचा विकास खंड के सन्ना क्षेत्र के हर्राडीपा में दशहरा सम्पन्न होता है। जिसे गाँव की बोलचाल की भाषा में दीवान हर्राडीपा के नाम से जाना जाता है। जो पहाड़ी कोरवाओं के परंपरागत प्रमुख दीवान का गृहग्राम है जिन्हें खुड़िया दीवान के नाम से जाना जाता है।

नवरात्रि  पूजा जिस दिन से प्रारंभ होती है उसी दिन से कोरवाओं की इष्टदेवी माँ खुड़िया रानी जिन्हें माता भगवती का स्वरूप माना जाता है इनका आह्वान कर बैगा पुजारियों द्वारा माता रानी को बुलाकर स्थापित किया जाता हैं। यहां की पूजा का आकर्षण नवमी पूजा को दिखाई देता है।

यहां नवमी के दिन ही दूर दराज से लोग आ जाते हैं और पूजा में सम्मिलित होते है और रात भर यहां पेड़ों जंगलों मैदानों में रुक जाते हैं, जो सदियों की परंपरा है। यहां की दैवीय पूजा की व्यापकता को इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जहां बगीचा का खुड़िया इलाका तो समाहित रहता ही है, वहीं मनोरा ब्लॉक भी लगभग-लगभग पूरा समाहित होने के साथ, सरगुजा के शंकरगढ़ कुसमी तक के लोग सम्मिलित होते हैं, नवमी को रुकते हैं और दशहरा के बाद लौटते हैं।

यहां रियासत काल से महामाऊर की प्रथा है और नवमी के दिन दैवीय तलवार की पूजा होती है जिसे नवमीं के दिन ही  म्यान से बाहर निकाला जाता है और पूरी कोरवा सेना के पूर्वज अपने पारंपरिक हथियारों के साथ दैवीय तलवार को नहलाने ले जाते हैं और नए कपड़ों के साथ वापस गर्भ गृह में रखा जाता है। इस पूजा में सम्मिलित होने दूर -दूर से लोग आते हैं।

दशहरा के दिन यहां मेला लगता है, उसी दिन पुरातन परंपरा अनुसार “खुड़िया दीवान” की सवारी भी निकलती है। सवारी निकलकर रैनी डाँड़ की ओर कुच करता है, वहां रावण रूपी प्रतीक वर्षों पुराना वट वृक्ष का परिक्रमा कर वापस लौट जाता है।

यहां रावण जलाने की परंपरा नहीं है। परम्पराओं को निभाने में क्षेत्र में निवासरत सभी जनजातियां आपस में सहयोग करती है। इस तरह यहाँ सभी लोग प्राचीन परम्परा के अनुसार पूजा अर्चना कर पारिवारिक सुख शांति एवं समृद्धि की कामना करते हैं।

आलेख

ललित शर्मा इण्डोलॉजिस्ट रायपुर, छत्तीसगढ़

About nohukum123

Check Also

“सनातन में नागों की उपासना का वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और जनजातीय वृतांत”

शुक्ल पक्ष, पंचमी विक्रम संवत् 2081 तद्नुसार 9 अगस्त 2024 को नागपंचमी पर सादर समर्पित …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *