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धन धान्य एवं समृद्धि के लिए कठोरी पूजा

वनवासी बाहुल जिला सरगुजा की प्राकृतिक सौम्यता हरियाली लोक जीवन की झांकी, सांस्कृतिक परंपराएं, रीति-रिवाज एवं पुरातात्विक स्थल बरबस ही मनमोह लेते हैं। वैसे तो सरगुजा की लोक संस्कृति में अनेकों त्योहार पर्व मनाए जाते हैं उनमें कठोरी पूजा मनाए जाने की परंपरा प्राचीन काल से रही है। हर साल कठोरी पूजा मई महीने के अंतिम तक क्षेत्र के गांवों में पूरे उत्साह और हर्षोल्लास के साथ कृषक वर्ग द्वारा मनाई जाती है।

कठोरी पूजा अर्थात कठोर भूमि, जहां हल ना चलाया जाता हो, यानी देवस्थान की पूजा अर्चना। इस रोज ग्राम बैगा द्वारा गौरा महादेव, इंद्र, वरुण, पृथ्वी, अन्नपूर्णा, रास बढावन देव, डीह डीहारीन धान के रूप में माता अन्नपूर्णा इत्यादि देवी देवताओं की मंगल कामनाएं प्राप्त करने के लिए पूजा अर्चना की जाती है। साथ ही इस रोज ढोल नगाड़ों के थाप पर ग्रामीण वनांचल क्षेत्रों में बायर नृत्य का आयोजन भी किया जाता है।

रियासत कालीन परम्परा के अनुसार कठोरी पूजा से एक रोज पहले समस्त गांव में कोटवार से मुनादी करवा दिया जाता है कि नियत दिवस को कठोरी पूजा मनाया जाएगा। कोई भी व्यक्ति गांव के रास ढोढी यानी पूजनीय मुख्य जल स्रोत से पानी ना भरे क्योंकि बिना कठोरी पूजा हुए रास ढोढ़ी से पानी भरा जाना एवं जमीन की खुदाई इत्यादि कार्य किया जाना पृथ्वी माता तथा वरुण देवता की अवमानना समझा जाता है।

सरगुजा के पारंपरिक कठोरी पूजा के निश्चित तिथि को ग्राम बैगा राजमहल पहुंचकर प्राचीन समय से पौती पिटारी में रखे गए देवरूपी रास बढावन घाटी धान से भरे श्रृंगारित कठौती आदि को लेकर गौरा महादेव कलेश्वरी पूजा स्थल में पहुंचता है तथा ग्रामवासी भी अपने-अपने धान की पूजा कराने इकट्ठा होते हैं तब ग्राम बैगा द्वारा विधिवत गौरा, महादेव, इंद्र, वरुण, पृथ्वी, अन्नपूर्णा देवी, डीह डीहारीन, छूरी पाठ इत्यादि देवी देवताओं की पूजा अर्चना करने की प्रक्रिया आरंभ करता है।

सभी देवी देवताओं का आवाहन पूजन करने पश्चात किसान वर्ग के एक व्यक्ति के गले में चावल से बने रोटी को बीच से छेद करके रस्सी से बांध दिया जाता है। तत्पश्चात किसानों द्वारा लाए गए धान को थोड़ा-थोड़ा निकालकर बांस से बनी एक टोकरी में इकट्ठा करके देवस्थल के चारों ओर एक निश्चित व्यक्ति द्वारा बोया जाता है तथा रास ढोढी से एक रोज पहले रात में बैगा द्वारा लाए गए पानी का छिड़काव नीम की डाली से एक दूसरे व्यक्ति के द्वारा ऊसर भूमि पर किया जाता है।

कतारबद्ध किसान हल के लोहे को हाथ में लेकर भूमि को जोतते हुए देवस्थल की पांच परिक्रमा करते हैं जिस व्यक्ति के गले में रोटी बंधी होती है वह एक दिशा की ओर भागता है और रोटी को छीनने के लिए हल जोत रहे लोग भी उसके पीछे भागते हैं। पूजा स्थल से कुछ दूर जाने के बाद गले में माला की तरह बंधी रोटी को वापस में बांट कर खाते हैं, यह क्रिया भी कठोरी पूजा का एक अंग है।

रास बढ़ावन देवता की कठोरी पूजा सरगुजा

इसके पश्चात ग्राम बैगा द्वारा विशेष हवन किया जाता है तथा अनिष्टकारी सांप, बिच्छू, मच्छर, खटमल, फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीव जंतुओं के नाम की छोटी पत्थरों की पोटली बांधी जाती है जिसे ग्राम बैगा पूजा करने के पश्चात अपने सिर के ऊपर से वार कर पीछे की तरफ फेंक देता है जिसे कृषक वर्ग के लोग पकड़ कर एक गड्ढे में दफन कर देते हैं। इस टोटके को करने का आशय है कि मनुष्यों, पशुओ एवं फ़सलों को किसी प्रकार की हानि न हो।

इसके बाद छुरी पाठ देवता का पूजा महुआ शराब के तर्पण से की जाती है। किसानों द्वारा लाए गए नारियल प्रसाद इत्यादि का वितरण सभी उपस्थित जनों को किया जाता है। इसके बाद ग्राम बैगा अपने सहयोगियों के साथ शाम को गांव के घर-घर जाकर रास पानी का वितरण करता है, इसके एवज में गांव के किसान ग्राम बैगा को चावल दाल कुछ राशि दक्षिणा स्वरूप देते हैं इस तरह से कठोरी पूजा संपन्न होती है।

रास पानी को लोग अपने घरों में छिड़कते हैं इस आस्था के साथ कि धन-धान्य की वृद्धि होगी, ग्राम बैगा द्वारा पूजा कर वापस किए गए धान को किसान सर्वप्रथम अपने खेत में बोकर कृषि कार्य का शुभारंभ करता है। जिसे सरगुजा में मूठ लेना कहा जाता है। कुछ प्राचीन परम्पराए आज भी विद्यमान है। मूठ लेने के पीछे भी एक रहस्य है जब किसान पूजा किये धान को खेत में बोने जा रहा होता है तो उसे कोई दूसरा अन्य व्यक्ति ना देखे। बैगा द्वारा पूजा कर दिये गए धान को मध्य रात्रि में बोने की परम्परा है। यदि इस कार्य को करते हुए कोई व्यक्ति देख देख लेता है तो अशुभ समझा जाता है।

पूजा का नियम न मानने पर दंड

प्राचीन दंतकथाएं आज भी प्रचलन में हैं। जमींदारी काल में कठोरी पूजा के लिए कुछ खास नियम व शर्तें बनाई गई थी, जिसमें किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा जमीन की खुदाई की जाने या फिर रास ढोढ़ी से बिना कठोरी पूजा संपन्न हुए पानी भरने की मनाही थी, भूलवश भी पानी भरने की गलती किये जाने पर दंड स्वरूप एक बकरा लिया जाता था।

जानकारों से पता चलता है कि रियासत काल में नियत कठोरी पूजा के एक रोज पहले गांव में कठोरी पूजा होने की मुनादी के बाद गांव वासी रासढोढी से पीने का पानी भर लिया करते थे तथा कटोरी पूजा होने तक उस पानी का इस्तेमाल करते थे पूजा उपरान्त यह प्रतिबंध हटा दिया जाता था।

कोई भी व्यक्ति जमीन की खुदाई नहीं करता था जमीदारों द्वारा बनाए गए नियमों का पालन बखूबी करता था शिकायत होने पर निर्धारित दंड के मुताबिक उस व्यक्ति को दंडित किया जाता था। वर्तमान में सभी नियम शिथिल हो गये है। गांवों में अलग अलग तरीके से कठोरी पूजा मनाये जाने का चलन आरम्भ हो गया है।

कठोरी पूजा के दिन बायर नृत्य का आयोजन –

सरगुजा में लोक कला में करमा, सैला सुआ, बायर इत्यादि नृत्य का विशेष महत्व प्राचीन काल से रहा है, इन विधाओं के साथ सरगुजा अरण्यांचल के लोगों का इतिहास जुड़ा हुआ है। किसी खास तीज त्योहारों में सरगुजावासी इन विधाओं के साथ अपने आप को जोड़कर तथा ढोल नगाड़ों की थाप पर थिरकते हुए खुशी प्रकट करते हैं।

कठोरी पूजा के दिन भी किसान ढोल नगाड़ों के साथ बायर नृत्य करते हैं, इसे गौरा नृत्य भी कहा जाता है। कालांतर में बायर नृत्य किए जाने का चलन विलुप्त होने लगा है, कहीं-कहीं ग्रामीण वनांचल क्षेत्रों में बायर नृत्य किए जाने रिवाज आज भी जिंदा है।

लखनपुर कटोरी पूजा को लेकर बातें आज भी कही सुनी जाती हैं। इस संबंध में वर्तमान बैगा रामलाल एवं उनके सहयोगी रूपचंद रजक तथा कुछ पुराने जानकार बताते हैं कि बहुत पहले लखनपुर जमीदारी में एक बार लखनपुर का रास बढावन देवता नाराज होकर अपनी घंटी सहित अंतर्ध्यान हो गये थे।

थाली में रखी हुई रास बढ़ावन देवता की घंटियाँ

तत्कालीन जमीदार (नाम अज्ञात) को इस बात का पता चला कि पिटारी में से रास बढावन देवता अंतर्ध्यान हो गए हैं, ग्राम बैगा को इस बात की इत्तला दी गई तथा यह फरमान जारी किया गया कि जितना जल्दी हो सके अंतर्ध्यान हो चुके रास बढ़ावन देवता को हर हाल मे राजमहल के पिटारे में वापस लाया जाए। ग्राम बैगा के पास बहुत बड़ा संकट उत्पन्न हो गया।

चारों तरफ गुप्तचर भेजे गए, तलाश के बाद ज्ञात हुआ कि रियासत धर्मजयगढ़ के किसी एक गांव में रात के वक्त गली गलियारों में घंटी बजने की आवाज सुनाई देती है, इस खबर के साथ ही लखनपुर के जमीदार ने ग्राम बैगा सहित लाव लश्कर धर्मजयगढ़ के उस कथित गांव में भेजा, तस्दीक हुई कि सचमुच रात के अंधेरे में घंटी बजती है। ज्ञात हुआ कि रास बढावन देवता धरमजयगढ़ के इसी गांव में रहते हैं।

ग्राम बैगा एवं उसके सहयोगियों द्वारा देवताओं को मना बुझा कर लखनपुर लाकर पिटारी में रखा गया, तब से लेकर आज तक रासबढ़ावन देवता एवं उनकी घंटियां पिटारे में रखकर पूजित होते रहे हैं। वर्ष में एक बार कठोरी पूजा के दिन गोलाकार शिलाखंड रूपी रासबढावन देवता एवं लोहे से बनी घंटियों की पूजा अर्चना ग्राम बैगा द्वारा की जाती है।

धान की पूजा कराने पहुंचे किसान वर्ष में एक बार देवता का दर्शन लाभ लेते हैं। रियासत काल में सर्वप्रथम कठोरी पूजा जमीदारों के अधीनस्थ भंडार गांव अंधला स्थित सकरिया देव से आरंभ होती थी, इसके बाद रियासत के सभी गांव में कठोरी पूजा नियम कायदे के दायरे में रहते हुए उल्लास के साथ मनाई जाती है।

कठोरी पूजा मनाए जाने का चलन क्षेत्र में आज भी सतत है, परंतु वह नियम कायदे नहीं रहे। ऐसी मान्यता है कि माता अन्नपूर्णा वर्ष में एक बार अपनी मायका अर्थात धरती मां की गोद में जाती हैं और ढेर सारा धनधान्य लेकर अपने भक्त किसान के घर लौटती हैं और जीव जंतुओं की भरण पोषण करती हैं।

माता गौरा का ही दूसरा रूप अन्नपूर्णा है। रास बढ़ावन देवता अर्थात अन्न धन की पैदावारी बढ़ाने वाले देव। इस तरह से सरगुजा क्षेत्र में कठोरी पूजा मनाई जाती है तथा अक्षय तृतीया एकादशी गंगा दशहरा इत्यादि शुभ दिनों में धान की मूठ ली जाती है। कृषक समाज की प्राचीन कठोरी पूजा आज भी प्रचलित है।

शोध आलेख

श्री मुन्ना पाण्डे,
 वरिष्ठ पत्रकार लखनपुर, सरगुजा

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