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बस्तर की सामूहिक पूजा पद्धति ककसाड़

छत्तीसगढ़ प्रदेश के बस्तर संभाग में जीवन-यापन करने वाली जनजाति देव संस्कृति के पोषक है। वह अपने लोक देवी देवताओं के प्रति अपार श्रद्धा रखता है। उसकी यह भावना उसके कार्य-व्यवहार से परिलक्षित होती है। जनजाति समाज के तीज-त्यौहार देव कार्य सब अपने देवताओं को प्रसन्न करने और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये होते हैं।

उनका मानना है कि उसके लोक देवता हर्ष, आनन्द से देव गुड़ी (मंदिर) के आंगन में खेलेगें तो साल भर गाँव का जीवन सुखमय होगा। इसलिये वह साल भर मे कई अवसरों पर देवताओं की सामूहिक पूजा का आयोजन करते हैं। जिससे उसके देवतागण प्रसन्न होकर आनन्द से खेले और उनका जीवन सुखमय हो।

इसी तरह की एक सामूहिक पूजा पद्धति का नाम है ककसाड़। इस सामूहिक पूजा पद्धति को जानकारी के आभाव में लोगों के द्वारा एक प्रकार का नृत्य कहा जाता है, जो उचित नहीं है। ककसाड़, करसाड़ का अपभ्रंश रूप है जिसे माड़ क्षेत्र के आदिवासी समाज और कोडागाँव क्षेत्र के आदिवासी व्यवहार में लाते हैं। सामान्यतः यह देव जातरा ही है परन्तु जब बताने के लिये ककसाड़ शब्द का प्रयोग किया जाता है, तब इस जातरा का महत्व बढ़ जाता है।

ककसाड़ या करसाड़ का अर्थ जनजाति समाज के लोगों के बताये अनुसार हिन्दी में “देव क्रीडा” से लगाया जा सकता हैं। उनके बताये अनुसार, ककसाड़ का मतलब “करसीहियाना” होता है, इस गोंडी शब्द का अर्थ हिन्दी में देवताओं का खेलाना होता है। पुरूष वर्ग ढोल बजाते हैं, महिलाएँ रिलो पाटा (रिलो गीत) गाती हैं और सिरहाओं के उपर देवता सवारी करके मंदिर के आंगन में खेलते है। गीत, संगीत प्रधान इस सामूहिक वार्षिक पूजा को ककसाड़ के नाम से पुकारते है। इस उत्सव का सामूहिक आयोजन होता है एवं सभी की समान भागीदारी होती है।

बस्तर का जनजाति समाज सामुदायिक जीवन-यापन करता है। वह अपना प्रत्येक कार्य चाहे वह व्यक्तिगत ही क्यों न हो सबके साथ मिलजुल कर करता है, देखने वालों को लगता है कि वह कोई उत्सव मना रहा हो। इस प्रकार के किसी भी सामाजिक कार्य में सबकी भागीदारी निश्चित होती है, सबके काम बँटे हुये होते हैं और सभी अपने कार्यो को पूरी निष्ठा से करते है। जनजाति समाज के समूह में होने वाले कार्य प्रायः देव काम होते हैं, जिसमें गाँव में निवासरत सभी जाति-जनजाति वर्ग के लोगों की भागीदारी होती है।

प्रकृति आधारित जीवन-यापन करने वाला जनजाति समाज की सारी आवश्यकतायें प्रकृति से पूरी होती है। जनजाति प्रकृति के प्रति अनन्य श्रद्धा का भाव रखता है, उनके लोक देव-देवता भी प्रकृति के सदृश्य हैं और उनका विग्रह भी उसी तरह बनाया गया है। उनका मानना है कि उसके जीवन में आने वाले सुख-दुख का आधार उनके लोक देवताओं और प्रकृति की कृपा है। देवता जब प्रसन्न होते हैं, तब उनके जीवन में हर्ष और आनन्द का संचार होता है और कुपित होने पर नानाप्रकार के कष्ट आते हैं, जिनका निदान भी उनके लोक देवताओं के पास ही है।

आदिवासी समाज के लोक देवता उनके आदि पुरूष हैं, जिनके द्वारा समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई गई है। उन्होंने ही समाज को एक दिशा प्रदान की है और उनके द्वारा बनाये गये नियम, परम्परा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होकर आज की पीढ़ी तक आई है। इन नियमों एवं परम्पराओं का पालन करना जनजाति समाज के लिये गर्व की बात है और वह उसी रूप में आज भी अपनाये हुये है जिस प्रकार उनके पूर्वजों ने उन्हें सौंपा था।

बस्तर का जनजाति समाज अपने लोक देवताओं और प्रकृति के प्रति अगा़ध श्रद्धा रखता है और ऐसे अवसर की प्रतीक्षा करता है, जब वह अपने सुखमय जीवन के लिये उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे। जनजातियों के साल भर होने वाले देवोत्सव जिन्हें वह गोंडी में साड़ कहता है, प्रकृति से प्राप्त किसी न किसी उपज या अपने श्रम से उपजाये फसल को सर्वप्रथम अपने देवताओं को अर्पित कर जागृत करने वाला होता है। इसे वह जोगानी करना कहता है।

जोगानी से अर्थ जागृत करने से है। उसका मानना है कि प्रकृति से प्राप्त या श्रम से उपजाये फसल पर सबसे पहले अनके देवताओं का अधिकार होता है, जिसे वह सबसे पहले अपने देवों को अर्पित करता है फिर स्वयं ग्रहण करता है। इस प्रक्रिया को जोगानी करना कहते हैं, इसके पूर्व उस उपज को खान या छूना भी वर्जित होता है।

इस तरह जनजाति समाज प्रकृति के प्रति अपनी निष्ठा और कृतज्ञता ज्ञापित करता है। इसी तरह वह अपने सुखमय जीवन के लिये लोक देवताओं की प्रत्येक वर्ष विशेष पूजा का आयोजन कर कृतज्ञता ज्ञापित करता है। जिसे सामान्यतः जातरा कहा जाता है। अलग-अलग समय में होने वाले इन देवोत्सव को जनजाति समाज अलग-अलग नाम से पुकारता है। इसी में एक देवोत्सव का नाम ककसाड़ है।

बस्तर के जनजाति समाज का मानना है कि उसके लोक देवता जब प्रसन्न होते हैं, तब वे अपने गुड़ी (मंदिर) के आँगन में हर्ष, उल्लास के साथ खेलते हैं। उनका खेलना इस बात का सूचक है कि देवता अपने भक्तों की सेवा से खुश है और अपनी खुशी को व्यक्त करने के लिये अपने आँगन में खेलते है। जनजाति समाज भी देवताओं के प्रसन्न होकर खेलने से यह अनुमान लगाता है कि आने वाले समय मे उसका जीवन और उसके गाँव का जीवन सुखमय होगा। इसके लिये उसके पूर्वजों ने पूर्व से ही व्यवस्था करके रखी है।

ककसाड़ गोत्र देवताओं की सामूहिक पूजा है। बस्तर का जनजाति समाज विभिन्न परगनाओं में निवास करता है और प्रत्येक परगना का एक मंडा देव (मुख्यदेव) या गोत्र देवता होता है। इस देव के सगा अर्थात पुत्रियों के परिवारिक देव और सहोदर मतलब पुत्र परिवार के समस्त गोत्र देवताओं की सामूहिक पूजा का नाम ककसाड़ है। इस आयोजन में मंडादेव के सभी पारिवारिक देवताओं का मेल-मिलाप तो होता ही है, साथ में इन देवताओं को मानने वाले विभिन्न गोत्र के लोग भी आपस में मिलते हैं और अपने-अपने कुल देवताओं की पूजा कर कृतार्थ होते है।

बस्तर के गाँव किसी न किसी परगने के अन्तर्गत आते हैं और प्रत्येक परगना का एक मंडा देव होता है। इस देवता की वार्षिक पूजा आयोजित करने के लिये परगना के अन्तर्गत आने वाले गाँव के देवता का कार्य करने वाले लोगों की एक बैठक आयोजित की जाती है। इस बैठक में ककसाड़ का दिन तय किया जाता है और सब लोगों को उनके द्वारा किये जाने वाले कार्य की जवाबदेही दी जाती है। यहाँ इस आयोजन में होने वाले खर्च के लिये गाँव के हिसाब से चन्दा भी निर्धारित किया जाता है।

गाँव के प्रत्येक घर से निश्चित राशि और चावल इस आयोजन के लिये देय होता है। हालाकि यह चन्दा और चाँवल पहले से तय होता है, इस दिन उसका दुहराव किया जाता है। इस बैठक का आयोजन पूजा तिथि से पन्द्रह दिन या एक माह पूर्व होता है, ताकि देवता के सम गोत्रिय देवताओं को और विषम गोत्रिय देवताओं को समय पर सूचना दी जा सके। इन गोत्र देवताओं के मानने वाले परगना से दूर भी बसे हुये होते है। जिन्हें सूचना देने के लिये और उनके आने के लिये समय दिया जाता है।

ककसाड़ की सूचना देने वाले दो-तीन व्यक्तियों के कई समूह बना दिये जाते है, जो देवता के प्रतीक लेकर परगना के गाँवों में जाते हैं। इसे पेन जोड़िंग कहा जाता है, जिसका अर्थ देवता का निमंत्रण होता है। पेन का अर्थ देवता और जोड़िंग का अर्थ बुलावा या निमंत्रण होता है। ये जोड़िंग के लोग देवता की तोड़ी (दुदुम्भी जैसा वाद्य) या बैरक (झण्डा) लेकर निकलते हैं। अलग-अलग दिशा के गाँव में अलग-अलग जोड़िंग दल निकलते है और गाँव में पहुँचने पर तोड़ फूँकते हैं। गाँव के लोग समझ जाते है कि देव निमंत्रण है। इसके अलावा भी ये लोग निश्चित घर में बैठतें है, जहाँ इनके सम्मान में शराब परोसा जाता है। कुछ गाँव में इनके दिन की और रात के खाने की सोने की व्यवस्था होती है।

पेन जोड़िंग दल प्रायः मंडा देव के विषम गोत्रिय लोगों का दल होता है, जिन्हें देवता के गांयता का सहायक कहा जाता है। इनके द्वारा दी गई सूचना परगना के प्रत्येक लोगों के लिये प्रभावकारी होती है। पेन जोड़िंग वाले जिस दिन गाँवों में सूचना देने के बाद लौटते हैं, उस दिन उन्हें मंडा देव के मंदिर में रूकना होता है। यहीं पर वे रात का खाना बनाते हैं और अपने साथ लाये शराब को पीकर रात्रि विश्राम करते है।

ककसाड़ के एक दिन पूर्व दोपहर के बाद से मंडादेव के सगा-सहोदर देवताओं को लेकर गाँव के लोग देव गुड़ी मे एकत्रित होने लगते हैं। मंड़ा का मतलब होता है मंडप और टोंडा का अर्थ होता है लता या बेल। मंडा देवता के भाई, बेटा से संबन्धित देवताओं को मंडप देवता और जब बहन-बेटियों से संबन्धित देवता के विशय में कहा जाता है, तो वे टोंडा देव होते हैं।

देवताओं के आगमन के बाद सभी को उचित आसन दिया जाता है। मंडा के अन्तर्गत आने वाले देवताओं को एक ओर स्थान दिया जाता है और टोंडा बहन, बेटियों से संबन्धित देवताओं को उनके सामने स्थान दिया जाता है। इसके बाद सभी आगन्तुक देवताओं की सामूहिक पूजा मंडा देव के गांयता, पुजारी द्वारा की जाती है। सब देवों के सामने दीप जलाकर धूप दिखाया जाता है।

इस समय सब देवता अपनी पूरी शक्तियों के साथ आये हैं या नहीं इस बात की भी परीक्षा ली जाती है। सब देवों के सामने एक चूजे से चावल टोकाया जाता है, चूजे ने चाँवल खा लिया तो समझा जाता है कि देव सभी संसाधन के साथ अच्छी भावना के साथ आये है, यदि चावल नही टोकने से माना जाता है कि देव प्रसन्न नहीं है, उन्हें उनके गांयता के माध्यम से प्रसन्न किया जाता हैं। इस रात का भोजन सब आगत लोग अपने साथ लाये साधन से करते है।

यह रात बहुत ही उत्साह भरा होती है, आस-पास के गाँव के लोग और सभी आगत लोग भोजन के उपरान्त देव मंदिर में जमा होते हैं। गाँव-गाँव से आये लड़के-लड़कियाँ नृत्य करते हैं। पुरूष वर्ग ढोल बजाकर नाचते हैं और महिलाएँ एक दूसरे के गलबहियाँ डाले रेला नृत्य करती हैं। ढोल बाजा एक प्रकार का जुझारू बाजा होता है, जिसके बजते ही शरीर में उर्जा का संचार होता है और नहीं चाहते भी लोगों के पैर नाचने थिरक उठते है।

महिलाएँ कतारबद्ध होकर रेला नृत्य करते हुये रिलो पाटा गाती हैं, यह गीत देव आराधना गीत है, जिसमें उन आगत लोक देवताओं के जस का वर्णन होता है। इस समय यहाँ पर देव नगारा और मोहरी भी बजाया जाता है। ढोल बजने के साथ ही सिरहाओं के सिर देवता चढ़ता है और वे ढोल, नगांरे के थाप में खेलने लगते है।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि देवताओं का एक विशेष ताल होता है जिसे कुशल नगांरची ही बजाता है, इसे देवपाड़ कहा जाता है। देवता अपने पाड़ में बड़े ही उमंग के साथ खेलते है। ऐसा लगता है मानो सारे देवता पृथ्वी पर आकर खेल रहे हो, यही तो ककसाड़ मनाने का उद्देश्य भी है। यह क्रम देर रात तक जारी रहता है। देवताओं के खेलने के बाद कोकरेंग नृत्य होता है।

कोकरेंग नाच को ककसाड़ मान लिया गया है परन्तु यह देवताओं के सम्मान में होने वाला नृत्य है, जो केवल नारायणपुर के आस-पास ही किया जाता है। खुले आसमान के नीचे चाँदनी रात में यह नृत्य किया जाता है। इस नाच में पहनने वाले परिधान भी सफेद रंग के होते हैं। पुरूश वर्ग सफेद पगड़ी, सफेद बनियान, और धोती को घाघरा की तरह पहना होता है, उसके कमर में छोटी बड़ी घन्टी बँधी होती है और कन्धे पर एक सुन्दर टंगिया रखा होता है, सिर पर जंगली पक्षियों के पँख की कलगी खुची होती है।

इसी तरह महिलायें सफेद साड़ी को घुटने के नीचे तक पहनी होती है, बाल करीने से सजे होते हैं और जुड़े में वन फूलों का गजरा सजा होता है। हाथ में एक छड़ी पकड़े होती है, जिसके ऊपरी सिरे पर घुँघरू बँधी होती है। इस नृत्य में विभिन्न गाँवों के समूह आते हैं, जो अपने गोत्र देवता के सम्मान में गीत गाते हैं। पुरूश वर्ग सामने की कतार में और महिलायें पीछे की कतार में होती है। सारे समूह अलग-अलग एक गोल घेरा बनाये होते हैं।

कोकरेंग नृत्य रिलो की अलाप के साथ प्रारम्भ होता है, एक समूह की महिलायें अलाप लेती हैं, और पुरूष वर्ग अपने कमर में बँधी घंटियों से ताल देते है। पुरूष वर्ग पंजे के बल से शरीर को ऊपर उठाते हैं और ताल के साथ नीचे गिराते हैं, जिससे कमर की घंटियाँ छन्न से बजती हैं। लड़कियाँ भी हाथ में पकड़ी छड़ी उसी ताल में जमीन पर पटकती हैं। पहले समूह के सक्रिय होते ही उसके सामने का समूह भी सक्रीय होता है, पहला समूह गीत गाते, ताल देते अपने सामने के समूह तक जाता है।

दूसरा समूह पहले समूह को उसी तरह उसके स्थान तक पहुँचाता है, वहाँ से उसे कोई अन्य समूह उस दूसरे समूह को उसके स्थान तक पहुँचाता है। यह क्रम रात भर चलता रहता है। सारा वातावरण लयबद्ध छनक-छनक की और रिलो की अलाप से गुँजायमान होता है। इस नृत्य का आकर्षण इतना है कि इसे वनवासी समाज के महिला-पुरूष रात भर देखते रहते हैं।

दूसरे दिन सुबह फिर ढोल बजता है, जिसमें महिलाएँ रिलो पाटा गाते हुये नृत्य करती हैं। यह ककसाड़ का महत्वपूर्ण दिन होता है,ढोल बजना बन्द होने के बाद सब अपने दैनिक कार्य से निवृत होकर मुख्य देवता के साथ आगत देवताओं की सामूहिक पूजा करते हैं। इसके कुछ देर पश्चात सभी देवताओं को लेकर गाँव के प्रत्येक घर जाते हैं।

इस दिन गाँव के हर घर का आँको पहले से हीं गोबर से लीप कर शुद्ध किये रहते है। अपने देवों के आगमन और स्वागत करने के लिये यथाशक्ति धूप, दीप, लाली, सुपारी, नारियल आदि से देवताओं की पूजा की जाती है और हल्दी, तेल का लेप करते हैं। यह पूजा गाँव के हर घर में की जाती है। इस दिन सभी लोगों के लिये सामूहिक भोजन बनाया जाता है। गाँव-परिक्रमा के बाद सब आकर भोजन करते हैं।

दोपहर को एक बार फिर ढोल बजाया जाता है और महिलाये रिलो पाटा गाकर नृत्य करती हैं। एक-एक करके सभी देव सिरहाओं का देवता चढ़ता है और सभी रिलो गीत और ढोल की ताल में खेलते हैं। देवताओं के विग्रह आंगा और देवियों के विग्रह डोली को युवक कन्धे में उठाकर खेलाते हैं। मोहरी और देव नंगारा भी बजते रहता है, बहुत पवित्र और उल्लासमय वातावरण होता है।

मंत्रमुग्ध होकर महिला-पुरूष अपने देवताओं को खेलते देखते हैं। बुजुर्ग महिलायें अपने साथ शराब लेकर आयी होती हैं, जो इस समय अपने देवताओं को शराब का तर्पण करती हैं। यह तर्पण उनके देवों पर अपनी आस्था का प्रदर्शन है। देवगण महिलाओं के साथ गलबहियाँ डाल कर भी नृत्य करते हैं। इसे देवताओं को अपने साथ खेलाना कहा जाता है। शाम को सब देवतागण एक निश्चित देव तालाब में नहाने जाते है। यहाँ से लौटने के बाद सबको यथा स्थान विराजित कर सामूहिक पूजा की जाती है। इसके बाद भोजन और विश्राम होता है।

तीन दिन के ककसाड़ का तीसरा दिन विदाई का होता है। इस दिन सभी देवताओं को ससम्मान विदाई दी जाती है। यह देवताओं की बलि का दिन होता है। परगना के लोग अपने मंडा देव के सम्मान में पहले से निर्धारित बलि देते हैं, इसके बाद सब गाँवों से आये देवों को मानने वाले बलि देते है। वध्य पशु पूर्व से तय होता है कहा जाता है कि जब मंडादेव (मुख्यदेवता) ने उसके अन्तर्गत आने वाले देवताओं को ग्राम आबंटित किया था, तो उसके बदले उन देवताओं ने उनके सम्मान में बलि देने का कराड़ किया था, उस कराड़ (वचन बद्धता) को ककसाड़ में पूरा किये जाने के लिये यह बलि दी जाती है। बलि पशु के सिर को मंडादेव को अर्पित करके धड़ को उस गाँव के लोगों को दे दिया जाता है, उसे वे ही बनाकर खाते हैं। दोपहर भोजन के बाद सब अपने देवताओं के साथ अपने गाँव की ओर प्रस्थान करते हैं।

मंडा देव का ककसाड़ होने के बाद अन्य देवताओं के जातरा का आयोजन किया जाता है। ककसाड़ देवताओं की वार्षिक पूजा है, जो हर वर्ष आयोजित होती है, सामान्यतः इन्हें जातरा कह दिया जाता है मगर तीन साल और सात साल में होने वाले सामूहिक पूजा को ही ककसाड़ कहते हैं।

नोट : लेखक बस्तर की जनजातीय संस्कृति के जानकार हैं।

आलेख

श्री शिव कुमार पाण्डेय अधिवक्ता एवं संस्कृति के जानकार नारायणपुर, बस्तर

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