वसंत का मौसम हो तथा पलाश की चर्चा न हो, ये नहीं हो सकता। यह समय छत्तीसगढ़ में बस्तर से लेकर सरगुजा तक के वनों में पलाश के फ़ूलने का होता है, ऐसे लगता है कि जंगल में आग लगी हो, जंगल में आग जब चहूँ दिसि लगी हो तो उसकी चर्चा होना स्वाभाविक ही है। ऐसा लगता है जैसे पलाश के फ़ूलों ने सारी धरा को आच्छादित कर उसका शृंगार किया हो। वैदिक ग्रंथों से लेकर वर्तमान तक पलाश का गुणगान होता है।
कवियों ने इसे अपने काव्य का विषय बनाया और कहा – भ्रमर गीत गुंजित सुमन मलय पवन मकरंद। किंशुक कलि रति काम के, रचती मादक छंद॥ भ्रमर प्रत्यंचा पर धरे जब पलाश के वाण, काम विमुग्धा सृष्टि ने रचे प्रीति के गान।
वियोगी प्रिया एवं प्रियतम के संयोग गान (मिलन गीत) जन मानस में रचे बसे हैं। नगाड़ों की थाप के साथ होली का फ़गुआ वातावारण को पलाशी बना देता है, विरह की अग्नि शिखाओं की लपटें जानों ब्रह्माण्ड को लील जाना चाहती हों।
शास्त्रों ने पलाश को यज्ञिय वृक्ष कहा है, यह वृक्ष हिंदुओं के पवित्र माने हुए वृक्षों में से हैं। इसका उल्लेख वेदों तक में मिलता है। श्रोत्रसूत्रों में कई यज्ञपात्रों के इसी की लकड़ी से बनाने की विधि है। गृह्वासूत्र के अनुसार उपनयन के समय में ब्राह्मणकुमार को इसी की लकड़ी का दंड ग्रहण करने की विधि है।
वसंत में इसका पत्रहीन पर लाल फूलों से लदा हुआ वृक्ष अत्यंत नेत्रसुखद हेता है। संस्कृत और हिंदी के कवियों ने इस समय के इसके सौंदर्य पर कितनी ही उत्तम उत्तम कल्पनाएँ की हैं। इसका फूल अत्यंत सुंदर तो होता है पर उसमें गंध नहीं होते।
इस विशेषता पर भी बहुत सी उक्तियाँ कही गई हैं। ढाक कहो, टेसू कहो, अथवा कहो पलाश। ऊपवन में पर हैसियत, होती इसकी खास।।
इसे किंसुक, पर्ण, याज्ञिक, रक्तपुष्पक, क्षारश्रेष्ठ, वात-पोथ, ब्रह्मावृक्ष, ब्रह्मावृक्षक, ब्रह्मोपनेता, समिद्धर, करक, त्रिपत्रक, ब्रह्मपादप, पलाशक, त्रिपर्ण, रक्तपुष्प, पुतद्रु, काष्ठद्रु, बीजस्नेह, कृमिघ्न, वक्रपुष्पक, सुपर्णी, केसूदो एवं शुक चंचु कहा जाता है। इस वृक्ष के फूल बहुत ही आकर्षक होते हैं। इसके आकर्षक फूलो के कारण इसे “जंगल की आग” भी कहा जाता है।
प्राचीन काल ही से होली के रंग इसके फूलो से तैयार किये जाते रहे है। भारत भर मे इसे जाना जाता है। एक “लता पलाश” भी होता है। लता पलाश दो प्रकार का होता है। एक तो लाल पुष्पो वाला और दूसरा सफेद पुष्पो वाला। लाल फूलो वाले पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है।
सफेद पुष्पो वाले लता पलाश को औषधीय दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी माना जाता है। वैज्ञानिक दस्तावेजो मे दोनो ही प्रकार के लता पलाश का वर्णन मिलता है। सफेद फूलो वाले लता पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा है जबकि लाल फूलो वाले को ब्यूटिया सुपरबा कहा जाता है। एक पीले पुष्पों वाला पलाश भी होता है।
छत्तीसगढ़ में पलास के पत्ते प्रायः पत्तल और दोने आदि के बनाने के काम आते हैं, इसके साथ आग में भूंज कर बनाई जाने वाले भोजन को लपेटने के लिए भी पलाश के पत्तों का उपयोग होता है, छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध “अंगाकर” “पानरोटी” रोटी इसी पलाश के पत्तों से लपेट कर बनाई जाती है।
राजस्थान और बंगाल में इनसे तंबाकू की बीड़ियाँ भी बनाते हैं। फूल और बीज ओषधिरूप में व्यवहृत होते हैं। बीज में पेट के कीड़े मारने का गुण विशेष रूप से है। फूल को उबालने से एक प्रकार का ललाई लिए हुए पीला रंगा भी निकलता है जिसका खासकर होली के अवसर पर व्यवहार किया जाता है।
फली की बुकनी कर लेने से वह भी अबीर का काम देती है। छाल से एक प्रकार का रेशा निकलता है जिसको जहाज के पटरों की दरारों में भरकर भीतर पानी आने की रोक की जाती है। जड़ की छाल से जो रेशा निकलता है उसकी रस्सियाँ बटी जाती हैं।
इस वृक्ष के रेशों से दरी और कागज भी इससे बनाया जाता है। इसकी पतली डालियों को उबालकर एक प्रकार का कत्था तैयार किया जाता है जो कुछ घटिया होता है और बंगाल में अधिक खाया जाता है। मोटी डालियों और तनों को जलाकर कोयला तैयार करते हैं। छाल पर बछने लगाने से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है जिसको ‘चुनियाँ गोंद’ या पलास का गोंद कहते हैं।
वैद्यक में इसके फूल को स्वादु, कड़वा, गरम, कसैला, वातवर्धक शीतज, चरपरा, मलरोधक तृषा, दाह, पित्त कफ, रुधिरविकार, कुष्ठ और मूत्रकृच्छ का नाशक; फल को रूखा, हलका गरम, पाक में चरपरा, कफ, वात, उदररोग, कृमि, कुष्ठ, गुल्म, प्रमेह, बवासीर और शूल का नाशक; बीज को स्तिग्ध, चरपरा गरम, कफ और कृमि का नाशक और गोंद को मलरोधक, ग्रहणी, मुखरोग, खाँसी और पसीने को दूर करने वाला लिखा है।
ऋतुराज वसंत के स्वागत का प्रमुख श्रेय लाल रंग से आवृत्त पलाश वृक्ष को ही जाता है। पलाश के गुणों के कारण इसे ब्रह्म वृक्ष भी कहा गया है, इसमें औषधिय गुणों की भरमार है, प्रतिदिन एक पलाश पुष्प पीसकर दूध में मिला के गर्भवती माता को पिलायें तो इससे बल-वीर्यवान संतान की प्राप्ति होती है।
नारी को गर्भ धारण करते ही अगर गाय के दूध में पलाश के कोमल पत्ते पीस कर पिलाते रहिये तो शक्तिशाली और पहलवान बालक पैदा होगा। पेशाब में जलन हो रही हो या पेशाब रुक रुक कर हो रहा हो तो पलाश के फूलों का एक चम्मच रस निचोड़ कर दिन में 3 बार पी लीजिये, इसी पलाश से एक ऐसा रसायन भी बनाया जाता है जिसके अगर खाया जाए तो बुढापा और रोग आस-पास नहीं आ सकते। इसका प्रयोग बाजीकरण में भी होता है।
भारत के सुंदर फूलों वाले प्रमुख वृक्षों में से पलाश एक है। सुन्दरता ने ही इसे उत्तर प्रदेश सरकार के राज्य पुष्प के पद पर सुशोभित किया है और इसको भारतीय डाकतार विभाग द्वारा डाकटिकट पर प्रकाशित कर सम्मानित किया जा चुका है।
भारतीय साहित्य और संस्कृति से घना संबंध रखने वाले इस वृक्ष का चिकित्सा और स्वास्थ्य से भी गहरा संबंध है। वसंत में खिलना शुरू करने वाला यह वृक्ष गरमी की प्रचंड तपन में भी अपनी छटा बिखेरता रहता है।
जिस समय गरमी से व्याकुल हो कर सारी हरियाली नष्ट हो जाती है, जंगल सूखे नज़र आते हैं दूर तक हरी दूब का नामों निशान भी नज़र नहीं आता उस समय ये न केवल फूलते हैं बल्कि अपने सर्वोत्तम रूप को प्रदर्शित करते हुए नयनों को सुख प्रदान करते हैं। कवि रामेश्वर कम्बोज कहते हैं – निर्जल घाटी के सीने पर, आखर लिख दिये प्यास के। जंगल में भी शीश उठाकर, खिल गए फूल पलाश के॥
सुन्दर आलेख !
सुन्दर आलेख ! क्या ये आलेख साँझा कर सकते हैं ?
जी सर, सांझा कर सकते हैं।
सुन्दर जानकारी ।
बहुत ही उम्दा और तथ्यात्मक लेख।
आपसे इसी की आशा रहती है।
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