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लोक अभिव्यक्ति का रस : ददरिया

लोक में ज्ञान की अकूत संचित निधि है, जिसे खोजने, जानने और समझने की बहुत आवश्यकता है। लोकज्ञान मूलतः लोक का अनुभवजन्य ज्ञान है जो यत्र-तत्र बिखरा हुआ है और कई गूढ़ रहस्यों का भी दिग्दर्शन कराता है। यह विविध रूपों में हैं, कहीं गीत-संगीत, कहीं लोक-कथाओं और कहीं लोक-गाथाओं के रूप में। पहेलियों और कहावतों में भी यह ज्ञान हमें दिखाई देता हैं।

वाचिक परंपरा में विद्यमान इस ज्ञान को संकलित करना निश्चय ही दुरूह कार्य है, लेकिन असंभव नहीं। इसमें वे तत्व विद्यमान हैं, जिनकी गुत्थियाँ विज्ञान तक सुलझाने में असमर्थ जान पड़ता है। लोक सदियों से अपने इस ज्ञान को जाने-अनजाने व्यक्त कर दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करता आ रहा है।

लोकगीतों को ससंदर्भ देखें तो इनमें गीतों का पूरा जखीरा है। इनके छंदों और रागों में भी विविधता है। गीतों के रागों का शास्त्रीय आधार भले ही न हो, किन्तु उनके रागों का आधार निश्चित है। कुछ जानकार यह कहते हैं कि शास्त्रीय रागों की उत्पत्ति लोक गीतों से हुई है , वहीं कुछ लोग इसे लोक राग कहकर सीमित कर देते हैं। छत्तीसगढ़ के गीतों को हम मूल रूप में तीन भागों में इस तरह देख सकते हैं-1. पारंपरिक गीत, 2. गाथा गीत, 3. स्वतंत्र गीत।

पारंपरिक गीत वे गीत हैं जिन्हें लोक द्वारा किसी पर्व पर परंपरागत रूप से गाया जाता है। जैसे- विवाह गीत, भोजली गीत, गऊरा गीत, फाग गीत, जँवारा गीत इत्यादि।

गाथा गीतों को इतिहास के पन्नों से लिया गया है । गाथा गीत के रूप में कालान्तर की ऐतिहासिक घटनाओं को गीतों के माध्यम से मंचों पर गाया जाता है। इन्हें आख्यान गीत भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ में गाथा गीतों की प्रचुरता है और ख्याति भी।

गाथा गीतों में पण्डवानी, लोरिकचंदा, चंदैनी, दसमत-कैना, भरथरी इत्यादि लोक-गाथाएँ बहुत प्रचलित हैं। लोक गाथाओं के गायन की अलग-अलग शैलियाँ हैं और लोक गायक इसे मनोरंजक बना कर प्रस्तुत करते हैं।

स्वतंत्र गीत वे गीत हैं, जिनका संबंध मानव मन की रंजकता और अभिव्यक्ति से हैं। इन्हें किसी पर्व-परंपरा पर न गा कर स्वतंत्र रूप से अवसर अनुरूप गाया जाता है। ये गीत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के परिचायक हैं। इन गीतों में क्षेत्रीय आधार पर भिन्नता पाई जाती है, जिसके कारण एक ही गीत अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग अंदाज में गाया जाता है। ददरिया ऐसा ही एक गीत है।

छत्तीसगढ़ी ददरिया लोक गीतों के मध्य अपना विशेष स्थान रखता है। मूलतः इसे श्रृंगारपरक गीत माना जाता है, लेकिन समग्र रूप से विश्लेषण करने पर यह पाया गया है कि इसमें विविध रंग हैं। समय और परिस्थिति अनुसार इसकी विषयवस्तु बदलती रही है। कहीं यह सामाजिक, राजनैतिक विसंगतियों पर गहरी चोट करते हुए दिखाई देता है, तो इसमें कहीं पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य पर भी रचनाकारों की कलम चली है।

ददरिया को छत्तीसगढ़ में युगीन साहित्य के रूप में देखा जाता है। इसमें दोहे और ग़ज़ल की भाँति एक पद में ही पूरी बात नहीं कही जाती है, बल्कि उससे भी आगे किसी-किसी पद में मात्र दूसरी लाइन ही अपनी पूरी बात कहने में सक्षम होती है। जैसे-
‘‘करिया रूख के हरियर हे पाना,
चल दूनो झन मिल के, गाबोन गाना।’’

इस पद में ऊपर की पंक्ति सार्थक नहीं है। ऐसा लग रहा है कि केवल तुकबंदी करने के लिए रचना की गई है, किन्तु कथन का तत्व समाहित है। वृक्ष का तना काला होता है यह एक कथन है। कथन कभी भी निरर्थक नहीं होता, परन्तु यहाँ दूसरी पंक्ति से सह संबंध का अभाव है और दूसरी पंक्ति में नायक नायिका से कहता है- चलो हम दोनों मिलकर गाना गाएँ। अब नीचे दी गई ददरिया के पद देखें। इसमें दोनों पंक्तियों का एक दूसरे से सह-संबंध है-
बड़े बिहनिया ले, सुरुज ह आही,
कुकरा ह गोठियाही, चिरई ह गाही।

घपटे हे बादर, सुरुज ह लुकाय,
न तो कऊँवा बोले, न चिरई हर गाए।

एक उदाहरण और देखते हैं –
दुरिहा हे गोर्रा, निकट हे पानी,
बैरी घुघवा हर बइठे हे, हमर छानी।

यह लोक ज्ञान का बहुत बड़ा उदाहरण है । यदि वर्तुल चंद्रमा से दूर दिखाई दे रहा है, तो पानी निकट है, अर्थात् पानी बरसने की संभावना है और वर्तुल पास है तो पानी नहीं गिरेगा। पहली पंक्ति में इस आशय के लोक कथन को लिया गया है, वहीं दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि उल्लू हमारे ही छत पर बैठा हुआ है, उल्लू का बैठना अशुभ है। अतः हम दोनों का मिलन की संभावना नहीं है।

ददरिया वास्तव में श्रम परिहार करने वाले लोक गीत हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक इसे श्रमिक खेतों में काम करते हुए गाते (अब प्रायः नहीं के बराबर गाया जा रहा है)थे। इसका कभी समूह में और कभी एकल गायन किया जाता है। खेतों में कार्यरत मजदूर इस गीत के माध्यम से सवाल-जवाब करते हैं। पूरा समूह दो भागों में विभक्त हो कर ददरिया का गायन करता है। एक समूह ददरिया के माध्यम से सवाल करता है, तो दूसरा समूह उसका जवाब देता है। कभी-कभी तो वे आशु कवियों की तरह तत्काल रचना करते हैं और जवाब देते हैं। ददरिया में व्यंग्य विधान की बानगी भी जबरदस्त होती है। सहज ऐसा ताना दिया जाता है कि सामने वाला निरूत्तर हो जाता है।

घेरी-बेरी तैं हर आँखीच्च झन मार,
तोर भुजा मा हे ताकत, त खाँध मा बइठार।

यह गीत परोक्ष रूप में अपनी बात कहने के लिए सहज साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। जैसे-
लमही तुतारी, हाँथी ल टऊँचे,
तोर गोड़ खजवाये, पलगी पहुँचे।

करिया रे बादर, बरसत हावै,
तोला देखे बिना, मोर मन तरसत हावै।

ददरिया गीतों में श्रृंगार की पराकाष्ठा है। कहीं-कहीं संयोग और वियोग श्रृंगार का अनोखा उदाहरण देखने को मिलता है। जैसे-
मोटर चलइया, मारत हे हारन,
भैया देथे मोला गारी, तोरेच्च कारन।

परवा मा कऊँवा, बोलत हावै,
तोर बोली ह, अंतस ल खोलत हावै।

करिया रे बादर, बरसत हावै,
तोला देखे बिना, मोर मन तरसत हावै।

वास्तव में ददरिया का स्वर लोक अनुभव से जुड़ा हुआ है। लोक ने जैसे देखा या अनुभव किया उसे वैसे ही साझा किया। ददरिया में वृहत रूप से सामाजिक सरोकार देखे जाते हैं। यह समाज में घटित घटनाओं को समाज के ही सामने रखकर सबको सोचने के लिए विवश करता है। समाजिक विघटन हो या सामाजिक विसंगतियाँ, ददरिया इन पर चोट करने में चुकता नहीं।
टूटत हे गाँव के, समरस बेवहार,
कौनो माँगे नइ देवय, रुपया दू-चार।

सुग्घर रहिस मनखे, सुग्घर रहिस गाँव।
भाई-बहिनी के बीच मा, अब होवत हे दूराव।

सामाजिक बुराइयों पर ददरिया की कुछ अभिव्यक्तियां इस प्रकार से हैं –
गली-गली दारू के, नदिया बोहाय,
गाँव हर बिगड़गे, कौनेच्च नइ पतियाय।

गाँव-गाँव मा होगे हे पार्टीच्च बंदी,
सबो मनखे मन दिखथे, लंदीच्च-फंदी।

घर-घर मा होवत हे, चुनई के गोठ,
दारू-पइसा के बल मा, माँगत हावै वोट।

पाने-सुपारी अउ माखूर खायेस,
तैं बड़का बीमारी घर मा लायेस।

ददरिया के माध्यम से केवल सामाजिक विसंगतियाँ की ही नहीं, बल्कि धर्म और आध्यात्म की भी बात कही गई है तथा रामायण और महाभारत के किंवदंतियों को भी लिया गया है। जैसे-
राम धरे बरछी, लखन धरे बान,
सीता माई के खोजन मा, निकलगे हनुमान।

धाने रे लुये, गिरे ला कंसी,
भगवान के मंदिर मा, बाजत हे बंसी।

ददरिया के संबंध में यह कहा जा सकता है कि ददरिया मात्र लोक गीत ही नहीं, लोक की चेतना और चेतन अभिव्यक्ति भी है, जिसमें लोक का समग्र पक्ष समाहित है।

डॉ बलदाऊ राम साहू
न्यू आदर्श नगर, पोटिया चौक, दुर्ग (छ.ग.)


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