शिकार द्वारा मनोरंजन वैदिक काल से समाज में विद्यमान रहा है एवं प्राचीन काल के मनोरंजन के साधनों का अंकन मंदिरों की भित्तियों में दिखाई देता है। मंदिरों की भित्तियों में अंकित मूर्तियों से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल के समाज में किस तरह के मनोरंजन के साधन प्रचलित थे। देखा जाए तो सभी आयु वर्ग के लिए पृथक मनोरंजन के साधन होते थे। इसमें आखेट भी मनोरंजन का एक साधन था।
धनुर्विद्या में क्षत्रिय युवाओं का कुशल होना अत्यंत ही आवश्यक माना जाता था तथा युवा मल्लयुद्ध कला, तीरंदाजी एवं आखेट की ओर अधिक आकर्षित होते थे। क्योंकि तत्कालीन समय की मांग यही थी। मल्ल युद्ध कला से शारीरिक सुदृढता आती थी और तीरंदाजी एक अच्छा सैनिक बनाती थी। तीरंदाजी का अभ्यास करने के लिए आखेट भी आवश्यक ही था, जिस तरह वर्तमान में सुरक्षाबलों के लिए निशानेबाजी का अभ्यास चाँदमारी में किया जाता है।
ललित विस्तर में युवाओं के रंगमंडल का उल्लेख मिलता है। जहाँ शारीरिक परिश्रम वाले खेलों का आयोजन होता था। युवाओं में शक्ति अधिक होने के कारण कूदने फ़ांदने एवं दौड़ने वाले खेलों में रुचि लेते थे। जिससे शारीरिक व्यायाम भी हो जाता था। धनुर्विद्या का सामान्यत: किशोरो में अधिक आकर्षण होता था। पौढ शिकार हेतु जंगल में जाया करते थे, इसका उल्लेख तत्कालीन साहित्य में भी मिलता है। मांस के लिए शिकार करना आम बात थी, परन्तु राजा सेना सहित शिकार के लिए वन गमन करते थे।
मंदिरों में स्थापित मूर्तियों से ज्ञात होता है कि सामन्यत: शुकर (बरहा) एवं हिरण प्रजाति का शिकार किया जाता था। इसके मांस के प्रति लोगों का अधिक आकर्षण था। जब कोई शेर या बाघ आदमखोर हो जाता था तो प्रजा एवं पशुधन की रक्षा के लिए राजा को उसका शिकार करना पड़ता था। इसके लिए हांका कर सामुहिक आखेट की व्यवस्था की जाती है।
तत्कालीन समय में शेर का आखेट रोमांच के लिए किया जाता है। खजुराहो के कंदारिया महादेव मंदिर की भित्ति में एक बड़े शुकर का शिकार कई लोग मिलकर करते दिखाई दे रहे हैं, जिसमें उनका स्वान विशेष रुप से सहभागी है। मूर्ति शिल्प से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समय में आखेट भी समाज के मनोरंजन एवं सैन्य प्रशिक्षण का एक प्रमुख साधन रहा है।
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